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उदास नदी पर सात कविताएँ   

(१)
सूख कर काँटा हो गई नदी,
पता नहीं, किस दुख की मारी है बेचारी?
न कुछ कहती है,
न कुछ बताती है।
एक वाचाल नदी का –
इस तरह मौन हो जाने का –
भला, क्या अर्थ हो सकता है?
(२)
नदी क्या सूखी
सूख गए झरने
सूखने लगे झाड़–झंखाड़
उजाड़ हो गए पहाड़
बेमौत मरने लगे जलचर
पंछियों ने छोड़ दिए बसेरे
क्या कोई इस तरह
अपनों को छोड़ जाता है?
(३)
उदास नदी
उदासी भरे गीत गाती है
अब कोई नहीं होता संगतकार उसके साथ
घरघूले बनाते बच्चे भी अब
नहीं आते उसके पास 
चिलचिलाती धूप में जलती रेत
उसकी उदासी और बढ़ा देती है
(४)
सिर धुनती है नदी अपना
क्यों छोड़ आयी बाबुल का घर
न आयी होती तो अच्छा था
व्यर्थ ही न बहाना पड़ता उसे
शहरों की तमाम गन्दगी
जली–अधजली लाशें
मरे हुए ढोर–डंगर
(५)
नदी–
उस दिन
और उदास हो गई थी
जिस दिन
एक स्त्री
अपने बच्चों सहित
कूद पड़ी थी उसमें
और चाहकर भी वह उसे
बचा नहीं पायी थी।
(६)
नदी– 
इस बात को लेकर भी
बहुत उदास थी कि
उसके भीतर रहने वाली मछली
उसका पानी नहीं पीती
कितनी अजीब बात है
क्या यह अच्छी बात है?
(७)
घर छोड़कर
फिर कभी न लौटने की टीस
कितनी भयानक होती है
कितनी पीड़ा पहुँचाती है
इस पीड़ा को
नदी के अलावा
कौन भला जान पाया है?

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