उद्बोधन:आध्यात्मिक
काव्य साहित्य | कविता आचार्य संदीप कुमार त्यागी ’दीप’31 May 2008
कही संतों की तू, अरे! मान सच ले।
महाठगनी जगन्माया से बच ले॥
नहीं भरमा स्वयं को और इसमें।
जतन ऐसा कोई कर मन न मचले॥
हरेक भोला भला मासूम चेहरा।
न जाने कब कुटिलतम चाल रच ले॥
मूँदके आँख मत विश्वासकर तू।
मान वो बात जो सच्ची हो जँच ले॥
नशे में नाचती हर इक जवानी।
कहाँ बिरला बुढ़ापा है? जो नच ले॥
कभी ना भूल क्षण भंगुर है जीवन।
गया हर कर्ण आया जो कवच ले॥
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