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उदीयमान सूरज का देश : जापान 

नोट- सुधि पाठक इस यात्रा संस्मरण को पढ़ते समय यह ध्यान रखें की आज से २८ साल पहले यात्रा की थी। तब से भारत में भौतिक सुविधाओं में बहुत बदलाव आया है। तकनीकी भी विकसित हुई है। तब भारत, वह भी बनारस से जा कर जापान कैसा लगा यही इसमें लिखा है। 

 

विश्व के विकसित देशों में जापान का स्थान महत्वपूर्ण है। १९९३ में अमेरिका की टक्कर का कोई देश संसार में था तो वह उगते हुए सूरज का देश जापान था। सभी राष्ट्रों की निगाह उस पर लगी रहती थी। एशिया महाद्वीप का यह छोटा सा द्वीप संसार के लिये ऊर्जा स्रोत दिवाकर की तरह रहस्यमय है। 

१९४५ में द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका की आहुति बना जापान मात्र ४८ वर्षों में अग्नि पुत्र सूर्य की तरह विश्व को आश्चर्यचकित कर देगा यह कल्पनातीत था। और शीघ्र ही विकसित मित्र राष्ट्रों की बराबरी में करने लगेगा। कुछ क्षेत्रों में तो आगे निकल कर अपने उदीयमान प्रभा से धरा को आलोकित करने लगेगा। एक दिन निस्संदेह एशिया का यह एक कीर्ति स्तम्भ बन जायेगा। यह अपने में अद्वितीय घटना है। 

ऐसे विलक्षण देश के चर्चे, जापान जाने वाले व्यक्तियों से सुन कर उसे देखने की इच्छा तीव्र हो जाती थी। उसके विकास, खेतीबाड़ी, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, विज्ञान व तकनीकी विकास के वृत्तांतों ने जापान को करिश्माई बना दिया। यह सब जापान की अपनी कल्पना शक्ति, दृढ़ इच्छाशक्ति कर्म ही पूजा तथा राष्ट्रप्रेम का मूर्त रूप है। जिसका दर्शन करने का अवसर जून १९९३ में प्राप्त हुआ। 

जून के अन्तिम सप्ताह में जापान के ताने-बाने बुनते हम एयर इण्डिया के जहाज़ से नरिता एयरपोर्ट पहुँचे। मेरे पति की कान्फ्रेंस योकोहामा नामक नगर में थी जो टोक्यो, जापान की राजधानी, से २९ किलोमीटर पर था। हम लिमोज़िन वातानुकूलित बस से योकोहामा गये। टोक्यो के बाद यह जापान का दूसरा बड़ा शहर था। 

योकोहामा प्रशांत महासागर के तट पर बसा है। जहाँ विश्व भर से जहाज़ आ कर लंगर डालते हैं। १८वीं शताब्दी में कोमोडोर पैरी ने इसी तट पर लंगर डाला था। १८५४ ई॰ में संयुक्त राष्ट्रसंघ और जापान में कई उदारवादी संधियाँ हो गईं। जापान और अन्तरराष्ट्रीय इतिहास की यह एक युगांतकारी घटना थी। जापान में इसके बाद जो परिवर्तन हुए वह युगांतकारी सिद्ध हुए। उन्होंने जापान को २०वीं शताब्दी में अन्तरराष्ट्रीय राष्ट्रों के परिवार का प्रमुख सदस्य बना दिया। यूरोपियन तकनीकी व विज्ञान को अपना कर जापान निरंतर नये नये कीर्तिमान स्थापित करने लगा। योकोहामा प्रांत इन्हीं उपलब्धियों का जीता-जागता उदाहरण बन गया। यहाँ पर १०६ मीटर ऊँचा मैरीन टॉवर बना, जो शायद किसी बंदरगाह पर बना संसार का सबसे ऊँचा टॉवर था। यह एक प्रकाश स्तम्भ था। 

योकोहामा की खाड़ी पर ५० मीटर ऊँचा ब्रिज बना जो उस समय का सबसे ऊँचा उल्लेखनीय ब्रिज था। योकोहामा में एक हज़ार से अधिक तकनीकी केन्द्र थे। बाद में वहाँ एक संसार की सबसे ऊँची बिल्डिंग का निर्माण हुआ। 

योकोहामा से हम मियो विश्वविद्यालय गये। मियो विश्वविद्यालय जापान के नागोया प्रान्त के त्सू ज़िले में स्थित है। मियो विश्वविद्यालय आधुनिकतम सुविधाओं से युक्त, समुद्र के तट पर स्थित है। वहाँ के तकनीकी / इन्जिनीयरिंग विभागों से विचार-विमर्श का कार्य पूरा करने के बाद हमें बायो इन्जीनियरिंग के प्रोफ़ेसर “होकी” घुमाने ले गये। 

वह हमें शिन्टोइज्म के प्राचीन मन्दिर दिखाने ले गये थे। उस समय वातानुकूलित कार बड़ी बात थी। जबकि वहाँ यह आम बात थी। हम कार से २ बजे मियो विश्वविद्यालय से चले। जून का महीना जापान में भारी वर्षा का मास था। धुआँधार बरसात में १२० किमी की रफ़्तार पर कार घुमावदार सड़कों पर कार फिसलती चली गई। मार्ग का दृश्य बहुत सुहावना था। 

पहाड़ी गाँव, जंगलों, नदी, नालों को निहारते तेज़ी से बढ़े जा रहे थे। रास्ते में कभी अल्मोड़ा तो कभी मनाली की याद आ जाती थी। भारत और जापान की सड़कों में बड़ा अंतर यह था कि वहाँ पहाड़ी इलाक़े और जंगलों में पक्की सड़क बनी हुई थीं। पहाड़ तक पहुँचने के लिये बिजली की पूरी व्यवस्था थी। खेत छोटे-छोटे थे पर छोटे-छोटे ट्रैक्टर वग़ैरा से सम्पन्न थे। जापान की वैज्ञानिक खेती का उत्कृष्ट नमूना प्रस्तुत कर रही थीं। ज़मीन पर पॉलीथीन जैसा कुछ बिछा था, जिसमें से बराबर दूरी पर गोला काट कर पौधों को रोपा गया था। (अमेरिका में यह आम बात है) बड़े पेड़ों व बाग़ानों के चारों और अर्धचन्द्राकार घेरा बनाया हुआ था। फलों से बोझिल डालों को सहारा देने के लिये बराबर दूरी पर डंडे लगाये हुए थे। कुछ फलों के वृक्षों की डाल को टेप से बाँध रखा था। कुछ खेत पॉलीथीन की चादर से ढके थे। हरे संतरों से पेड़ लदे थे। सब तरफ़ हरियाली ही हरियाली थी। मेज़बान वैज्ञानिक ने बताया कि पिछले सालों में जापान में इतने पेड़ लगाये कि जापान हरा-भरा हो गया। सड़कों के किनारे पहाड़ों को रोकने के लिये जो बंध लगाये गये थे, उनकी दीवार को इस तरह बनाया गया था कि वह फूल वाली लता से ऐसे ढँक गई थी; पत्थर कहीं-कहीं दिखाई देता था। गाँवों में स्कूल, अस्पताल, बिजली, पीने के पानी, सिंचाई व परिवहन की समुचित व्यवस्था दिखाई दे रही थी। पहाड़ों को काट कर जो टनल बनाई गई थी, जब कार उसमें से गुज़री तो उसमें रंगीन प्रकाश की अद्भुत व्यवस्था चकित कर रही थी। इस तरह २ घटें का सफ़र करने के बाद हम मन्दिर पहुँच गये। मन्दिर के नीचे पहाड़ी नदी बहती थी। जिसके किनारे जापानी कला के बग़ीचे बने हुए थे। नदी के ऊपर लकड़ी का पुल था। पुल पार कर हम जंगल के रास्ते मंदिर की ओर चलने लगे। इस जंगल में लकड़ी काटना मना था। पेड़ों की ऊँचाई व मोटे तने, उनकी आयु बता रहे थे। जंगल में बजरी डाल कर (गुनगुनाता) रास्ता बनाया गया था। बरसात में भी कई व्यक्ति बजरी को पलटने व समतल करने का काम कर रहे थे। ४-५ मिनट चल कर हम मंदिर पहुँच गये। 

मंदिर के बाहर बाड़ लगी थी, उसके बाद चादर बिछी थी। जापानी उस पर धन चढ़ा रहे थे। उनकी पूजा का ढंग भी बड़ा निराला था। जूते पहने हुए ही वह आँख बंद कर सीधे खड़े हो जाते और फिर दो तालियाँ बजा कर हाथ जोड़ लेते थे। कुछ पाठ सा करते थे। बहुत सीधा सरल पूजा का तरीक़ा था। लेकिन विशिष्ट पूजा के लिये लिख कर प्रार्थना पत्र देना पड़ता था। उसकी अलग फ़ीस थी। तब पुजारी पूजा करने वाले को अलग मंडप में ले जाता था। इस मंदिर की विशेषता यह थी कि इसमें कोई प्रतिमा न थी। मंदिर का प्रारूप प्रति दस वर्षों में वहीं के जंगलों के वृक्षों की लकड़ी से बनाया जाता था। मंदिर जाने का रास्ता व पुल भी नया बनाया जाता था। लेकिन डिज़ाइन पुराना ही रहता था। यह मंदिर जापानी व्यक्तियों के आत्म बलिदान की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता था। उन्होंने बताता कि शिन्तो धर्म का उपदेश है कि देवताओं का सम्मान करो तथा अपने देश से प्रेम करो। मैंने वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर से पूछा कि क्या आप अपने धर्म में विश्वास करते हैं? उन्होंने बड़े शांत भाव से कहा कि यह उनकी सांस्कृतिक धरोहर है। एक दूसरे तकनीकी विशेषज्ञ ने बताया कि वह वर्ष में एक या दो बार यहाँ आते हैं। उन्हें यहाँ आकर बहुत शान्ति मिलती है। इतने रमणीय शांत प्राकृतिक वातावरण में शान्ति ही शान्ति थी। न वहाँ शान्ति भंग करने वाले भिखारी थे न कहीं गंदगी। जापानी परिपाटी के चाय-घर व जलपान-गृह सन्नाटे में आगंतुकों का गर्मजोशी से स्वागत कर रहे थे। जंगलों में जंगली जानवरों का कोई भय नहीं था। पक्षी बहुत कम थे। कौवे की काँव काँव ही कभी सुनाई पड़ जाती थी। इस तरह शिन्तो धर्म के मुख्य मंदिर का दर्शन कर के रात होने से पहले ही वापस होटल पहुँच गये। 

नगोया से रात्रि की बस लेकर हम टोक्यो पहुँचे। वहाँ रेल स्टेशन के प्लेटफ़ार्म पर लॉकर में बंद सामान से कपड़े वग़ैरा निकाल कर वहीं के स्नानघर में स्नान कर तैयार हुए। रविवार ५ तारीख़ को ट्रेन से फ्यूजिसावा के लिये चल दिये। रविवार का दिन होने के कारण बच्चे अपने माता-पिता व स्कूल के शिक्षकों के साथ घूमने निकले थे। ट्रेन से सड़क तक बच्चे आते- जाते दिखाई दे रहे थे। बच्चे बड़े खुश व उमंग में थे। फ्यूजिसावा के एक क़स्बे में जापानी परिवार के साथ एक दिन व एक रात बिताने का निमन्त्रण मिला था। 

स्टेशन पहुँच कर, जैसा नियत हुआ था, श्री केन को फोन किया। वह १० मिनट में साइकिल से हमें लेने स्टेशन पहुँच गये। सामान ले जाने के लिये साइकिल ले आये थे। यह एक छोटा क़स्बा था। इसकी सड़कें छोटी व घुमावदार थीं। पर सड़क पर पैदल व साइकिल के लिये मार्ग निर्धारित थे। गलियों के मोड़ पर बड़े शीशे लगे थे। स्टेशन से केन का घर १० मिनट की दूरी पर था। इस बीच २ अस्पताल १ पुस्तकालय को हमने पार किया। जापानी घर देखने का पहला मौक़ा था। भारत के पहाड़ी घरों जैसा घर था। जो पेड़ों व फूलों से घिरा था। घर का मुख्य द्वार खोलने पर जूते उतारने का कमरा था। वहीं घर में पहनने वाली चप्पलें रखी थीं। बहुत से छाते भी रखे थे। मख़मली हल्की-फुल्की स्लीपर पहन हम घर में प्रविष्ट हुए। श्री केन २२ बार भारत आ चुके थे। वह जापान व भारत की एक इनडोर-जापानी संघ के निदेशक थे। उनके घर की साज-सज्जा उनके भारत से गहरे सम्बन्ध की परिचायक थी। बंदनवार से ले कर गणेश लक्ष्मी, शिव जी, हाथी, घोड़ों की मूर्तियाँ वहाँ सजी थीं। बहुत से चित्र भी लगे थे। गुजराती कढ़ाई के कुशन कवर, मेज़पोश,राजस्थानी चादर व सजावट का सामान जापानी सादगी को आभूषण पहना रहा था। 

जापानी घर में फ़र्श लकड़ी का था। जिस पर चटाई बिछी थी। बैठने के लिये बिना टाँग की गद्दी वाली कुर्सी थी। सामने चौकानुमा मेज़ थी। जिसके नीचे हीटर लगा था (फ़ायर प्लेस), सर्दी में कमरा गर्म करने के लिये। दरवाज़ों के पल्ले सरकने वाले थे। शायद घर में जगह बढ़ाने के लिये किया गया होगा। घर में रसोईघर व स्नान घर तथा शौचालय भी था। रसोईघर में एक तरफ़ कपड़े धोने की मशीन तथा खाने की मेज़ थी।खाना खाने की मेज़ देख कर लगता था कि वह यदा-कदा ही प्रयोग में लाई जाती होगी। चौकीनुमा मेज़ ही खाना खाने, पढ़ने या अन्य काम में प्रयुक्त होती होगी। हमारे पूर्णतः शाकाहारी होने के कारण श्री केन ने हमारे लिये भारतीय चाय, ब्रेड, दही, मक्खन तथा फल का प्रबंध किया था। यहाँ हमने पहली बार जापान यात्रा में नाश्ता व दोपहर का भोजन किया था। अब समुद्र देखने एवं कामाकुरा, बुद्ध की प्रतिमा देखने का प्रोग्राम बना। कामाकुरा केवल १६ किलो मीटर दूर था, परन्तु रविवार की छुट्टी के कारण सड़क पर इतनी भीड़ थी कि १ किमी जाने में एक घंटा लग गया। अत: कार छोड़ कर ट्रेन से जाने का निर्णय किया। ट्रेन से हम कामाकुरा पहुँच गये। जापान में की अच्छी सड़कों व कारों के बाद भी लोग ट्रेन में क्यों सफ़र करते हैं, इसका कारण – ट्रैफ़िक का अधिक होना समझ में आया। 

कामाकुरा बौद्ध धर्म का केन्द्र है। यहाँ गौतम बुद्ध की बहुत बड़ी प्रतिमा है। ऐसा कहा जाता है कि यह मंदिर संत टोकूडो ने Tenpyo/ तेनपेयो वर्ष (AD 736) में स्थापित किया। यह Eastern Canon, पूरब के धर्म सिद्धांत का चौथा पवित्र स्थान है। 

यहाँ ग्यारह शीश वाला बोद्धिसत्व का रूप है। जिसके दाँये हाथ में कमल का फूल है। यह प्रतिमा लकड़ी की बनी है जिसकी ऊँचाई ९.१८ मीटर है। जापान में लकड़ी की बनी यह सबसे ऊँचा इमारत है। इसके चारों तरफ़ बुद्ध के रूपों की प्रतिमाएँ हैं। इसमें एक Treasure Home, संग्रहालय में पूरे वर्ष बुद्ध से संबंधित वस्तुओं की प्रदर्शनी होती है। मंदिर में लगी घंटी और बौद्धिसत्व की प्रतिमा उनकी विशेष सांस्कृतिक विरासत है। वहाँ जो टूरिस्ट नोट मिला वह इस प्रकार था :

इस मूर्ति को अंदर से देखने के लिये गुफा बनी हुई थी। जिसमें सीढ़ियों के द्वारा बुद्ध की आँखों तक पहुँच सकते हैं। कुछ अन्य बौद्ध विहारों के दर्शन कर के शाम तक हम अपने मेज़बान दम्पति के घर पहुँच गये। 

श्री केन के पास भारतीय मसाले व आटा था। उन्होंने भारतीय खाने में अपनी रुचि बताई। हमने २०० रुपये के आधा किलो आलू, १/२ किलो टमाटर और एक छोटी फूलगोभी ख़रीदी। रात का भोजन उनको सिखाते हुए बनाया। उन्हें आलू के पराँठे बहुत पसंद थे। उनके कहने पर अगले दिन के लिये भी कुछ पराँठे बना दिये। इस यात्रा में पहली बार भारतीय खाना खाया वह भी आलू के पराँठे। 

सोमवार ६ जून को भारी बारिश की चेतावनी थी। रात भर पानी बरसता रहा था। टॉयलेट में फ़्लश टैंक के ऊपर ही वाशबेसिन बना हुआ था। जापान में पानी का बहुत किफ़ायत से प्रयोग किया जाता है। यह प्रयोग बहुत अच्छा व नया लगा। ८ बजे तक नाश्ता कर के ट्रेन पकड़ने के लिये निकल पड़े। किसी रेलवे ट्रैक पर पानी भर जाने के कारण कई ट्रेन स्थगित कर दी गई थीं। प्लेटफ़ॉर्म व्यक्तियों से खचाखच भरा था। परन्तु पटरी की तरफ़ जाने वाली सीढ़ी बंद थीं। भीड़ इतनी थी कि कंधे से कंधा मिला था पर न तो कोई चीख़ न चिल्लाहट न ही बेसब्री थी। औरतों या लड़कियों पर कोई फ़ब्तियाँ भी नहीं कर रहा था न कोई छेड़खानी कर रहा था। भीड़ का लाभ उठा कर लुटेरों ने किसी का पर्स मारने, पैसे चुराने, चैन उड़ाने की कोशिश नहीं की। कुछ देर बाद कुछ लोगों को एक तरफ़ जाने दिया गया। सब शान्ति से आगे बढ़ने लगे। अपना नम्बर आने पर हम भी ट्रेन में चढ़ गये। शीघ्र ही हम टोक्यो पहुँच गये। ट्रेन की सीट आगे पिछले घूम सकती थी। Revolving seats in fast train हमारा लिये किसी जादू से कम न था। टोक्यो के प्लेटफ़ॉर्म के लॉकर में तीन दिन से हमारा सामान बंद था। टोक्यो पहुँच कर हमने टोक्यो टॉवर देखने का निश्चय किया, जो स्टेशन से काफ़ी पास था। लिफ़्ट ने हमें टोक्यो टॉवर की ७ वीं मंज़िल पर पहुँचा दिया। वहाँ से पूरा टोक्यो दिखता था परन्तु बरसात व बादल के कारण ऐसी धुँध छाई थी कि हम साफ़-साफ़ कुछ भी नहीं देख सके। यूँ तो थोड़ी-थोड़ी दूर पर दूरबीन लगी थीं जिनमें पैसे डाल कर १० मिनट तक नज़ारा देख सकते थे। 

टोक्यो टॉवर में बाज़ार, खेल, तमाशे, आदि थे। उसमें घूमते व फ़ोटो खींचने की धुन में कैमरे का कवर कहीं गिर गया। किसी व्यक्ति ने उठा कर उसे किसी दुकान पर दे दिया। पाँच मिनट बाद जब मेरा ध्यान गया तो मैंने अपने पति को बताया। तब मुझे याद आया कि उस दुकान वाले को किसी को कवर देते देखा था। जब हम ने उस दुकान पर पूछने गये तो उसने १५ मिनट बाद बताया कि हम अपना कवर नीचे रिसेप्शन से जा कर ले सकते थे। जब हम लिफ़्ट से नीचे पहुँचे दो रिसेप्शनिस्ट ने लिफ़्ट के गेट पर हमारा स्वागत किया। वह अपने आफ़िसर के पास ले गये। उन्होंने असुविधा के लिये माफ़ी माँगी। हमारा नाम, पता एक काग़ज़ पर लिखा कर वापस करते समय तीन बार झुक कर अभिवादन किया। जापान के व्यक्तियों की ईमानदारी व कर्तव्य निष्ठा का यह छोटा सा नमूना था। रात को हमें नरिता हवाई अड्डे से वापसी के लिये प्रस्थान करना था। रात का कुछ समय हवाई अड्डे पर बिता कर हम जापान एयरलाइंस के विमान में बैठे। विमान की सीटों पर गाना सुनने के साथ-साथ टीवी देखने की भी सुविधा थी। जहाज़ में हमने इतने दिन की यात्रा में आख़िरी बार भारतीय शाकाहारी खाना, स्वादिष्ट खीर व फलों के साथ खाया। 

वापसी की यात्रा के समय जापानी जीवन की झलकियाँ रह-रह कर अपनी झलक दिखा रहे थे। कभी जापानियों की सहृदयता व सहायता करने के प्रयास का ध्यान आता। हमें एक दिन देहली फोन करना था, हमारा कार्ड काम नहीं कर रहा था, तब एक जापानी ने १/२ घंटा अपना समय लगा कर अपने टेलिफोन कार्ड से, सार्वजनिक बूथ से फोन करवाने में सहायता की। हम बरसात में सड़क पार कर रहे थे, तभी पीछे एक महिला दौड़ती हुई आई और अपनी छतरी हमें दे कर वापस लौट गई। हम ने शायद ऐसी सहायता पहले नहीं देखी थी। 

हमने वहाँ वेंडिंग मशीन देखीं जिसमें उस समय ठंडे खाने के साथ-साथ कुछ मशीनों में चावल व बींज़ मिल सकतीं थीं। 

ट्रेन से यात्रा करते समय ट्रेन के कंडक्टर से कुछ पूछा तो उसने अपनी ड्यूटी दूसरे को दे कर हमारी सहायता की। 

पहली बार ट्रेन का टिकट अपने-आप काटा। प्लेटफ़ार्म पर जाने के लिये मैकेनिकल द्वार देखा। जापान के सबवे, अंडर ग्राउंड प्लेटफ़ॉर्म देखा। इस समय जाने क्यों कलकत्ता का अंडरग्राउंड प्लेटफ़ॉर्म याद आ गया जहाँ बरसात में पानी भर जाता था। देहली, बम्बई आदि शहरों के सब वे बहुत असुरक्षित थे। अचानक होने वाली छिनैति, छुरा-चाकू चलने की घटनाओं के कारण आम आदमी उसमें जाने से घबराता था। पर जापान के सब-वे बहुत सामान्य तरीक़े से काम कर रहे थे। हमने तेज़ गति से चलने वाली बुलेट ट्रेन में भी यात्रा की। 

जापानी बहुत औपचारिक लगे। वह सदैव कोट, पैंट, टाई में ही दिखाई दिये। महिलायें भी सुबह से रात तक औपचारिक ड्रेस में ही बाहर दिखीं। घर, ऑफ़िस, होटल सब अंदर से बाहर तक ऐसे धुले-पुछे थे जैसे आज ही बन कर तैयार हुए हैं। क्रेन की सहायता से काँच के खिड़की दरवाज़ों की सफ़ाई हो रही थी। 

रास्ते में छतरी, माइक्रोवेव, ओवन, कारें, ट्रेन, सड़क के किनारे झाड़ियों में धकेले दिखे। मन ने कहा यहाँ कबाड़ का धंधा करने का बहुत स्कोप है। 

जापान का टोक्यो टॉवर अत्याधुनिक था। उसका उल्लेख किसी अन्य लेख में करने करूँगी। संक्षेप में वह डिज़्ने-वर्ल्ड से भी अधिक रोमांचक था। 

जापान की महँगाई रह-रह कर चुभ रही थी। जिसके कारण ट्रेन, बस, लॉकर, दर्शनीय स्थलों का टिकट व किराया देते-देते ही जेब ख़ाली हो गई। सबसे सस्ते होटल का किराया भी १५ हज़ार येन अथवा ५ हज़ार रुपये एक दिन का था। उस समय हम भारत में इतने रुपये में बड़े होटल में रह सकते थे। तो हमने एक रात वाईएमसीए के कमरे में बिताई। वहाँ केवल शाम ५ बजे से सुबह १० बजे तक रह सकते थे। हमें व पति को अलग-अलग कमरे में बंक बैंड मिला। स्नान घर का समय निश्चित था। महिलाओं व पुरुषों के लिये अलग-अलग समय था। स्नानघर में कपड़ा पहन कर नहीं जा सकते थे। आपके नहाते समय अन्य महिला भी बाथ टब में प्रवेश कर सकती थीं। बहुत उलझन हुई पर कोई उपाय भी न था।

जापान में यूँ तो जनसुविधाएँ औपचारिकता की सीमाओं तक साफ़-सुथरे थे, परंतु फ्युजिसावा के शौचालय व दीवारों पर अश्लील चित्र, फ्बतियाँ, फोन नम्बर आदि, सब लिखा दिखा। अनुशासन व औपचारिकता की अभेद दीवारों को भेद कर मानव की कु-प्रवृत्तियाँ अपना रंग दिखाने में पीछे नहीं रहीं। टिफ़िन टॉप नैनीताल की चढ़ाई पूरी करके, प्रकृति के सुंदर दृश्यों के आनंद से अभिभूत जब वह एक बैंच पर बैठने लगे तो वहाँ “तेरी” लिखा देखा। शायद अज्ञेय जी ने अपनी कहानी “टिफ़िन ऑप” में इसका उल्लेख किया है। 

जापान यात्रा के अविस्मरणीय क्षणों को मन में संजोये, जापान एयर लाइन के विमान से हम वापस अपने देश भारत आ गये।

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