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उफ्फ ये पति . . . और समोसा 

सलोनी की शादी के सब पीछे पड़े थे, समय से होनी चाहिए नहीं तो बड़ी मुसीबत, फिर 'अच्छा' पति मिलेगा नहीं . . . सोलह सोमवार के व्रत कर डालो, वैभव लक्ष्मी का ग्यारह शुक्रवार भी; शादी हो जाएगी। सलोनी ने सारे व्रत उपवास कर लिए। अब इंतज़ार था कि कोई राजकुमार आएगा और उसे घोड़े पर बिठा कर ले जाएगा और ज़िंदगी हो जाएगी सपने जैसी। प्रतीक्षा को विराम लगा, आ गए राजकुमार साहब . . . घोड़ा तो नहीं पर कार पर चढ़कर आ गए। 

. . . हाँ तो शादी के पहले का हाल भी बताना ज़रूरी है। सगाई के बाद ही सलोनी को यह राजकुमार साहब लगे फोन करने। घंटों-घंटों बतियाते, चिट्ठी भी लिखते-लिखाते। सलोनी के तो पौ बारह, पढ़ा-लिखा बाँका जवान मुंडा जो मिल गया था। . . . ख़ैर, शादी धूमधाम से हुई। सलोनी की मुस्कान रोके नहीं रुक रही थी। 

राजकुमार साहब भी शुरुआत में हीरो की माफ़िक रोमांटिक थे . . . पर पति बनते ही दिमाग़ चढ़ गया सातवें आसमान पर 'मैं पति हूँ'। सलोनी भी भौचक्का कि इन महानुभाव को हुआ क्या??? अभी तक तो बड़े सलीक़े से हँसते मुस्कुराते थे जनाब, लेकिन पति बनते ही नाक भौं सिकोड़ कर बैठ गए। 'प्रेम के महल में हुकुम की इंतहा' यह बात कुछ हज़म नहीं हुई पर शादी की है तो हज़म करना ही पड़ेगा; तो सलोनी ने अपना पूरा हाज़मा ठीक किया पर पति को यह कैसे बर्दाश्त कि पत्नी का हाज़मा सही हो रहा है। कुछ तो करना पड़ेगा वरना पति बनने का क्या फ़ायदा! "कपड़े क्यों नहीं फैलाए अभी तक मशीन में सड़ जाएँगे," पति महाशय ने अपना भोंपू फूँका। 

सलोनी ने सहम कर कहा "भूल गई थी "।

"कैसे भूल गई, फ़ेसबुक, व्हाट्सएप, किताबें याद रहती हैं . . . यह कैसे भूल गई ।"

'अब भूल गई तो भूल गई। भूल सुधार ली जाएगी,' सलोनी ने मन में कहा। 

"नहीं . . . भूलना कितनी बड़ी ग़लती है! जाओ! कोई काम मत करना मेरा, मैं ख़ुद कर लूँगा," पति महाशय ने ऐलान कर दिया।

'ठीक है जनाब कर लो बहुत अच्छा! ऐसे भी मुझे कपड़े फैलाने पसंद नहीं,' सलोनी ने मन में सोचा। पति महाशय ने मुँह फुला लिया, अब बात नहीं करेंगे। बात नहीं करेंगे तो वह भी कुछ घंटों नहीं बल्कि पूरे तीन-चार दिन बात नहीं करेंगे, इतनी बड़ी भूल जो कर दी सलोनी ने। अब सलोनी का हाज़मा कहाँ से ठीक हो। अब तो एसिडिटी होनी ही है फिर सर दर्द। 

एक बार सलोनी पति महाशय के ऑफ़इस के टूर पर साथ आई थी। पति महाशय ने रात को गेस्ट हाउस के कमरे में साबुन माँगा। सलोनी ने साबुनदानी पकड़ाई– पर यह क्या उसमें तो पिद्दी सा साबुन का टुकड़ा था। पति महाशय का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर, बस पूरा एक हफ़्ता बात नहीं की। ऑफ़िस के टूर में घूमने आई सलोनी की घुमाई गेस्ट हाउस में ही रह गई; इतनी बड़ी भूल जो कर दी थी। उसके बाद से सलोनी कभी साबुन ले जाना नहीं भूली। पति महाशय इसी में गर्व से सीना तान लिए कि सलोनी की इत्ती बड़ी ग़लती जो उन्होंने सुधार दी। सलोनी ने भी सोचा कि पति के इस तरह मुँह फुलाने की ग़लती को सुधारा जाये पर पति कहाँ सुधरने वाले। उनका मुँह गुब्बारे जैसा फूला तो जल्दी पिचकेगा नहीं, आख़िर पति हैं न!!

सलोनी एक बार घूमने गई थी बड़े शौक़ से। पति महाशय ने ऊँची एड़ी की सैंडल ख़रीदी। सलोनी सैंडल पहनकर ज्यों ही घूमने निकली ऊँची एड़ी की चप्पल गई टूट और पति महाशय गए रूठ! उस पर से ताना भी मार दिया, "कभी इतनी ऊँची एड़ी की चप्पल पहनी नहीं तो ख़रीदी क्यों? अब चलो बोरिया-बिस्तर समेट वापस चलो।" सलोनी हो गई हक्का-बक्का। इतनी सी बात पर इतना बवाल आख़िर चप्पल का ही तो था सवाल दूसरी ले लेंगे। नहीं तो नहीं, एक बार पति महाशय का मुँह तिकोना हो गया तो सीधा होने में समय लगता है पर सलोनी को भी ऐसे आड़े-तिरछे को सीधा करना ख़ूब आता है। 'सॉरी' बोल कर मामला रफ़ा-दफ़ा किया और पति महाशय को घुमा-घुमा के घुमा लिया। 

कभी-कभी पति महाशय का स्वर चाशनी में लिपटा होता है पर ऐसा बहुत कम ही होता है, हिटलर के नाती जो ठहरे। एक बार बड़े प्यार से सलोनी को जन्मदिन पर घुमाने का वायदा कर ऑफ़िस चले गए और लौटने पर सलोनी के तैयार होने में सिर्फ़ पाँच मिनट की देरी पर बिफर पड़े। नाक भौं सिकोड़ कर ले गए मॉल लेकिन मुँह से एक शब्द नहीं फूटा . . . सलोनी ने अपनी फूटी किस्मत को कोसा। ऐसे नमूने पति जो मिले थे उसे। 

सलोनी पति की प्रतीक्षा में थी कि पति दूर से लौटकर आयेंगे तो साथ में खाना खाएँगे। पति महाशय लौटे ग्यारह बजे, जैसे ही सुना कि सलोनी ने खाना नहीं खाया तो बस ज़ोर से डपट दिया और पूरी रात मुँह घुप्पा कर के लेटे रहे। सलोनी ने फ़िल्मों में कुछ और ही देखा था पर हक़ीक़त तो कुछ और ही थी। वह दिन और आज का दिन सलोनी ने पति की प्रतीक्षा किए बग़ैर ही खाने का नियम बना लिया। कौन भूखे पेट को लात मारे और भूखे रहकर कौन से उसे लड्डू मिलने वाले थे! 

कभी-कभी भ्रम का घंटा मनुष्य को अपने में लपेटे में ले ही लेता है। सलोनी को लगा कि पति महाशय का त्रिकोण अब सरल कोण में तब्दील होने लगा है। पर भरम तो भरम ही होता है सच कहाँ होता है। सलोनी को प्रतीत हुआ कि उसका इकलौता पति भी सलोना हो गया है; पर सूरत और सीरत में फ़र्क़ होता है न  . . . सूरत से सलोना और सीरत . . . व्यंग्य बाण चला दिया, "आजकल बस पढ़ती-लिखती ही रहती हो घर का काम भी मन से किया करो नहीं तो कोई ज़रूरत नहीं करने की….।"

"दिखता नहीं है कि मैं कितना काम करती हूँ!" सलोनी का स्वर भी तनिक तेज़ हो गया। इतना कहना था कि पति जनाब ने मुँह फुला लिया कि पढ़-लिख कर सलोनी का दिमाग़ ख़राब हो रहा है। सलोनी ने भी ठान लिया कि इस बार नहीं मनाएगी। पर हमेशा की तरह सलोनी ने ही मनाया। 'तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूँ…' ये गीत सलोनी की ज़िंदगी में लिंग बदल कर बज रहा था और धूम-धड़ाके से बजता आ रहा था। 

सलोनी ने एक दिन अपनी माता श्री से अपनी व्यथा कथा कह डाली, "माँ! पापा तो ऐसे हैं नहीं . . . !" 

माता श्री मुस्कराई, "बेटी तुम्हारे पापा बहुत अच्छे हैं, पर पति 'कैसे’ हैं? उसका दुखड़ा अब तुम्हें क्या बताऊँ . . . मेरी दुखती रग पर तुमने हाथ रख दिया . . . दरअसल ये पति नामक प्रजाति होती ही ऐसी है। इस प्रजाति में कोई भी जैविक विकास की अवधारणा लागू नहीं होती, इसलिए जो है, जैसा है, इन्हीं से उलझे रहो। ये कभी सुलझने वाले नहीं। लड़के, प्रेमी, भाई, मित्र, पिता सब रूप में अच्छे हैं पर पति बनते ही देवता इन पर सवार हो जाते हैं।"

सलोनी ने देवी चढ़ना सुना था पर देवता . . .? सलोनी को वो गाना याद आने लगा, 'भला है बुरा है जैसा भी है मेरा पति मेरा . . .'। 

"पर माता श्री! फिर स्त्री के अधिकारों का क्या और स्त्री विमर्श का प्रश्न??" सलोनी ने पूछा। 

"सलोनी बेटी! तुम्हारा पति त्रिकोण ही सही पर तिकोना समोसा खिलाता है न!!"

"हाँ! वो तो खिलता है . . ."

"बस फिर कोई बात नहीं, उसकी बातें एक कान से सुनो दूसरे से निकालो और अपना काम धीरे-धीरे करते चलो," माता श्री ने पति का मर्म समझा दिया। 

सलोनी ने एक ठंडी आह भरी और मुँह से निकला 'उफ्फ ये पति…'!!

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टिप्पणियाँ

Koshi sinha 2021/08/17 12:15 AM

पति नामक प्राणी पर बेहतरीन व्यंग्य

Anoosha 2021/08/16 11:58 PM

बहुत बढ़िया व्यंग्य

पाण्डेय सरिता 2021/08/16 09:08 PM

ख़ूब व्यंग्य

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