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उजड़े चमन

बबली की ख़ूबसूरती व उच्च शिक्षा के ही कारण मोहन ने शादी की हामी भरी थी। विशाखपट्टणम की एक लिमिटेड सरकारी कंपनी में नौकरी लगते ही शादी के लिए रिश्तों की लड़ी लग गई थी। हो भी क्यों न, सभी पिताओं का सपना होता है कि दामाद हो तो सरकारी अफ़सर ही और दबी–दबी चाहत में हर लड़की का भी तो यही सपना होता है।

शादी के चंद साल ख़ुशनुमा गुज़रे। अंकुर व अखिल के आने से जीवन की बहार में चार चाँद लग गए। घर टाउनशिप में ही था। हरियाली से भरा टाउनशिप, पार्क, दुकानें, सारी सुख–सुविधाएँ  वहाँ मौजूद थीं। मोहन दफ़्तर से आने के बाद अक़्सर ही बबली व बच्चों के साथ पार्क चले जाते थे। तरह–तरह के झूलों से अंकुर व अखिल लालायित ही रहते, दौड़–दौड़ कर जब तक सभी झूलों पर वे झूल नहीं लेते उन्हें पार्क से निकालना टेढ़ी खीर ही थी। झूला झूलकर पार्क के किनारे नारियल पानी बेच रहे अप्पाराव के पास जाकर खड़े हो जाते। मजाल की कभी नारियल पानी पीये बगैर वहाँ से हिले हों। अप्पाराव भी दोनों बच्चों के हाथ में नारियल काटकर पकड़ा देता। छुट्टी के दिन की तो बात ही कुछ और होती थी। कभी समुद्र किनारे घूमना कभी मित्रों के संग दावत और नहीं तो लम्बी सैर।

केवल प्राकृतिक तूफ़ान ही चमन नहीं उजाड़ते। राजनीतिक उथल–पुथल भी कोई तूफ़ान से कम नहीं। कंपनी प्राइवेट कर दी गई। मज़ाक में मोहन ने बबली से कहा भी था कि अब तेरे पापा हमारा साथ छुड़वा तो नहीं देंगे ना क्योंकि उन्हें तो दामाद सरकारी अफ़सर ही चाहिए था और मेरी नौकरी तो अब प्राइवेट हो गई है। तब बबली हँसकर रह गई थी।

जब कंपनी प्राइवेट हो गई तो उससे क्या लगाव। जहाँ फ़ायदा दिखे व्यक्ति चला ही जाता है। मोहन ने भी कई कंपनियाँ बदलीं। कंपनी के काम का दबाव अप्रत्यक्ष रूप से मोहन को दीमक सा चाट रहा था। अब बबली व बच्चे भी साथ नहीं रहते थे कारण था अंकुर व अखिल की पढ़ाई और मोहन को अक़्सर ही कंपनी के काम से बाहर ही रहना पड़ता था, इसलिए बबली बच्चों के साथ ही अपने सास–ससुर के पास रहने लगी थी। अब तो महीने में भी मोहन का घर आना तय नहीं था। थके–माँदे शरीर में काम के साथ–साथ बबली व बच्चों की चिंता लगी ही रहती थी।

एक दिन कुर्सी पर बैठे–बैठे ही हाथ पाँव शिथिल हो गये। सुध–बुध खो दी। डॉक्टर ने बताया ब्रेनहेमरेज है। महीनों अस्पताल में पड़ा रहा। शारीरिक शक्ति के साथ–साथ याददाश्त भी चली गई। डॉक्टरों का कहना था कि समय के साथ धीरे–धीरे सब ठीक हो सकता है। कुछ दिन कंपनी का वरदहस्त रहा। जब कंपनी को मोहन से कुछ फ़ायदा नहीं मिल रहा था तो उसने भी एक प्रेमी की तरह उसे छोड़ दिया। सरकारी कंपनियाँ तो पति की तरह साथ देती हैं। युवावस्था से लेकर शिथिलावस्था तक भी साथ नहीं छोड़तीं।

कहते हैं न कि बैठकर खाया जाए तो नदी का बालू भी एक दिन ख़तम हो जाएगा। जितनी रक़म जमा थी मोहन के इलाज व अंकुर, अखिल की शिक्षा में ख़तम हो गई। भाइयों के सहारे से बड़ा बल मिला। वहीं पास में दो कमरे का मकान लेकर रहने लगे। भाइयों ने साथ रहने को कहा पर बबली किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती थी। पढ़ी–लिखी बबली पास के स्कूल में पढ़ाने लगी। सुबह ही खाना–नाश्ता बनाकर बिस्तर के पास रख देती ताकि मोहन आसानी से खा–पी सके। समयानुसार अंकुर, अखिल व बबली मोहन की देख–रेख करते रहते। माँ भी कभी–कभी साथ आकर रह लेती। धीरे–धीरे तो मोहन में थोड़ा–बहुत सुधार दिखने लगा पर गाड़ी पटरी पर कभी दौड़ भी पाएगी या नहीं कहना मुश्किल था।

एक दिन बबली को टेबल पर शादी का कार्ड पड़ा दिखा। बबली उलट–पलट कर खोलने लगी। विशाखपट्टणम में रहने वाली प्रिय सहेली की बेटी की शादी का कार्ड था, जो सदा सुख–दुख में साथ रही थी। जाना भी ज़रूरी लग रहा था पर मोहन की ऐसी स्थिति में कैसे जाती। मोहन ने अपने लड़खड़ाते स्वर में जाने को कहा। बच्चों ने भी कहा कि तुम्हें जाना चाहिए माँ। 

विशाखपट्टणम पहुँची। ऑटो रिक्शा लेकर सहेली के घर के लिए निकली। रास्ते में ही कंपनी का गेट दिखा। टूटा–फूटा जंग खाया देख मन विचलित हो गया। अंदर जाने की इच्छा होने लगी। ऑटोवाले से अंदर ले जाने के लिए कहा। 

ऑटोवाले ने कहा, "अंदर कुछ नहीं है, कंपनी बंद हो गई है।" 

बबली ने कहा, "बस तुम अंदर ले चलो।"

अंदर उसका क्या था वह उसे कैसे बता पाती। पास के पार्क के पास ही ऑटो रुकवाकर नीचे उतर गई। सभी झूले टूटे–फूटे लटक रहे थे। अंकुर व अखिल जैसे हज़ारों बच्चों को हँसाने वाले झूलों को भी कोई रोग लग गया था। चितियाये काले से जर्जर लग रहे थे। बबली उन्हें कैसे बताती कि वह भी जर्जर हो गई है। उसने अपने आँसू पोंछ लिये इस कारण गालों पर कोई निशान नहीं पड़ा। इन झूलों के तो आँसू कौन पोंछता इसी कारण आँसू सूखकर काले–काले चित्ती से दिख रहे हैं। नज़रें पार्क के किनारे दौड़ीं। अप्पाराव भी नहीं दिखा। पता नहीं अब वे लोग क्या कर रहे होंगे जिनकी रोज़ी–रोटी इस कंपनी से चल रही थी। बबली की निगाहें चारों ओर सब्ज़ीवाले, फलवाले, किरानेवाले, पानीपूरीवाला सभी को ढूँढ़ने लगीं पर कोई नहीं दिखा सबकी दुकानें टूट–फूट गई थीं। अंकुर व अखिल का दौड़–दौड़कर दुकान में जाना, चिप्स और चॉकलेट के लिए ज़िद करना याद आने लगा। वह ख़ुद भी तो रोज़ पानी-पूरी खाती ही थी और आखिरी में दो सूखे माँगती थी, एक मोहन को खिला देती और एक ख़ुद खा लेती थी। हालाँकि मोहन को पानी-पूरी पसंद नहीं थी पर जब बबली मुँह के सामने ले जाती तो मोहन खा ही लेता था। अब सालों हो गये खाए और खिलाए। डबडबाई आँखों की बूँदें गालों पर लुढ़क आर्इं। पैदल चलती हुई ही घर की तरफ़ जाने लगी। घर के चारों ओर जहाँ गेंदे, गुलाब और जास्मिन अपनी चहक और महक से सबको सराबोर करते थे वहाँ कँटीली झाड़ियों ने सबको कुचलकर अपना साम्राज्य खड़ा कर लिया था। बबली इन सभी झाड़ियों को डंडे से मारती हुई किनारे करने लगी। मन तो करता था उन उद्योगपतियों और राजनीतिज्ञों पर भी ऐसे ही डंडे चलाए जो अपने फ़ायदे के लिए अंधे हो जाते हैं। जिस दरवाज़े पर तोरण व रंग–बिरंगे परदे लटका करते थे वो तो था ही नहीं। सभी सामान जिसे निकाल कर ले जाया जा सकता था, पूरी तरह निकाल लिए गये थे। टूटी–फूटी दीवारें खंडहर सी लग रही थीं। जिस फ़र्श को बबली धो–पोंछकर चमकाती व चमकवाती रहती थी वो तो पूरी तरह से टूट–फूट गया था। अब तक बबली अपने को सँभाले खड़ी थी पर जैसे ही उसकी नज़र दीवार पर अंकुर व अखिल के परमानेंट मार्कर से बनायी धूमिल लकीरों पर पड़ी तो ढलमलाते हुए आँसुओं की बूँदें धार में बदल गईं।

लौटकर वह ऑटोवाले से चलने को कहते हुए ऑटो में बैठ गई। घर, टाउनशिप सब अपने जीवन सा लगने लगा। सामने से जुलूस आते देख उसने पूछा, "किस चीज़ के लिए जुलूस निकाला गया है।"

ऑटोवाले ने बताया, "स्टील प्लांट के प्राइवेट होने के ख़िलाफ़ जुलूस निकाला गया है। आजकल रोज़ धरना, रोज़ जुलूस; यही सब तो चल रहा है विशाखपट्टणम में।"

प्राइवेटाइज़ेशन के नाम से बबली की धड़कनें बढ़ गईं, डर सा लगने लगा। न जाने फिर कितनों के घर आबाद होंगे और कितनों के खंडहर बन जाएँगे। घुटन सी होने लगी राजनीतिज्ञों से, उद्योगपतियों से और अपने उजड़े चमन से।

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