उलझन
काव्य साहित्य | कविता खुशी1 Jun 2021 (अंक: 182, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
चाहती तो हूँ कि कह दूँ
पर कहूँ भी तो क्या तुम्हें।
ख़ुद ही उलझन में हूँ
अब बताऊँ भी तो क्या तुम्हें।
उलझन इस बात की है कि
ख़्यालों से क्यों नहीं जाते हो तुम?
सब भूल जाना चाहूँ
फिर भी क्यों याद आते हो तुम?
उलझन इस बात की है कि
क्या सच में मुझे प्यार है?
आख़िर किस बात का ये डर है
जो अब तक बरक़रार है?
उलझन इस बात की है कि
कुछ समझ क्यों नहीं पा रही मैं?
आख़िर कैसी ये उलझन है
जिसे सुलझा भी नहीं पा रही मैं?
परेशान हूँ,
ना जाने कैसी ये बेचैनी है
तुमसे बातें करने का दिल तो करता है
पर कुछ भी कहने से
न जाने क्यों ये डरता है।
सुनो,
अब तुम ही मदद कर दो ना।
कुछ संकेत तुमने भी तो दिए हैं
उसकी वज़ह भी बता दो ना।
क्या तुम्हें भी प्यार है मुझसे?
एक बार बता दो ना।
तुम्हारी जिन बातों को
प्यार का संकेत समझ बैठी हूँ,
उन ग़लतफ़हमियों को
तुम ही मिटा दो ना।
मेरी उलझन को सुलझा दो ना।
बस एक बार बता दो ना।
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Gourav 2021/06/01 09:22 PM
वाह खुशी जी बहुत ही सुन्दर रचना है। आप इसी तरह लिखती रहे।