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उलझन

उसकी ज़िंदगी में इतनी जल्दी-जल्दी घटनाएँ घटीं कि वह स्वयं हैरान रह जाती थी। वह औरों की ठहरी हुई क्रमबद्ध सहज ज़िंदगी देखती तो सोचती कि उसके लिये कुछ भी लिखते समय विधाता अक्कड़ बक्कड़ खेल कर लिखता रहा, या जब भी छीनना हो तो किससे छीने और चोर निकल कर उसी पर टिक कर भाग लेता। विधाता ने लिख दिया कि पैदा होते ही माँ को खा ले। एक साल शादी को होते न होते बेटी भी पैदा हो गई और एक साल में ही विधवा भी हो गई। महज़ 18 साल की थी जब उसके लिये पहला रिश्ता आया। रिश्ता भी ऐसा कि पिता चकरा गये। इतना सुंदर लड़का और शहर का नामी घराना। घराना नामी है तो इसका यह अर्थ नहीं कि बच्चे बिगड़े हुए होंगे ही नहीं। कहीं कोई बात तो नहीं इतना नामी घराना! बहुत सज्जन स्वभाव के सब लोग। नामी होना पैसे से ही नहीं होता। हर व्यक्ति की इज़्ज़त भी इंसान नहीं करता पर उस घराने का तो शहर में बेहद सम्मान है। ऐसे घर से जब मनिया नाई संबंध लेकर आया तो नन्ना के पिता मनिया का मुँह देखते रह गये। 

"मनिया दिमाग़ तो तेरा ठीक है कहाँ जीन वाले और कहाँ हम?"

"बाउजी अपनी नन्ना बिटिया भी तो लाखों में एक है। बीच वाले नरोत्तम बाबू का लड़का है। पढ़ा-लिखा और सुंदर, बाप के साथ ही काम कर रहा है। दो बेटे हैं बड़े का ब्याह हो गया है।" 

"मनिया नरोत्तम बाबू का काम क्या अलग है? मैं तो सोचता था वही गद्दी है।" 

"तीनों भाइयों का काम अलग-अलग है पर खर्च लालाजी करें, इब यह तो पता नहीं कि तीनों लालाजी को कुछ देते हैं या लालाजी की गद्दी से सब खर्च होता है। लालाजी का सर्राफे का काम है, लेन देन का ज्यादा है। आप तो जानते ही हो सर्राफे में गिरवी गांठे का काम ज्यादा होता है।"

सुनकर नन्ना के पिता सोच में पड़ गये, ’अभी तो घर बैठे इतना अच्छा रिश्ता आया है। साल दो साल में क्या फ़रक पड़ जायेगा, बाद में जूते घिसने पड़ेंगे। फिर यह तो इतना पहचाना ख़ानदान है। बिन माँ की बच्ची वैसे भी कैसे पार लगेगी’। 

"पर मनिया एक बात समझ में नहीं आई नन्ना के लिये ख़ुद कहा है ऐसा क्या?"

"ऐलो बाबूजी अपनी बिटिया कौन कम है; जहाँ खड़ी हो जाये उजाला हो जाये। धूप सी है देखा होगा कहीं।"

मनिया का आना-जाना जीन वाले घर में ख़ूब था। सारे नेग-टेले का काम वही करता था। बरतन भाजी भी वही बाँटता। उस परिवार में बच्चा होने पर तो मनिया नाई का काम बहुत बढ़ जाता। तब तो नाइन भी सब काम करने जाती जच्चा के तेल लगाना, बच्चे की मालिश करना, सोहर गाना सब उसका काम होता। बड़े भाई के बेटे के बेटा हुआ है तब ही तो नाइन से बीच वाली चाची ने कहा था, "कैलाशो बात चला के देखियो राम बाबू के मन में होय तौ बिटिया हमें देदें।"

जीन वाला इतना बड़ा घराना, उसके जैसे दस घर तो जीन वाले घर के बीच के हिस्से में बन जायें। हाथी की ऊँचाई वाला फाटक। ख़ूब बड़ा अहाता। दूसरी मंज़िल पर बने बड़े से गलियारे में बने बड़े-बड़े कमरे। पहले कभी उनके घर में हाथी पलते होंगे इसलिये पीलखाना था। चार घोड़ों की बग्घी थी। अब हाथी-घोड़े तो नहीं थे पर निशानियाँ तब भी पड़ी थीं। बिना घोड़ों की बग्घी और हाथी के झूल, मोटी मोटी जंजीरें और बड़ा सा खूँटा। कभी बड़ी लंबी सी शेवरलैट गाड़ी थी, जिसका आगे का हिस्सा ही इतना निकला था कि एक गाड़ी बन जाये। जब बड़े लालाजी की गाड़ी निकलती थी तो बाज़ार भर जाता। समय ने वह गाड़ी शोपीस कर दी थी। बाद में कबाड़े के भाव चली गई जिसका लालाजी को बड़ा दुःख था। बेकार बेच दी; देखने-दिखाने की चीज़ थी। बड़े-बड़े गोदाम बन गये थे जो किराये पर उठे थे। ख़ुद तीनों बेटों के काम और लालाजी की गद्दी थी। उस फाटक के खुलने बंद होने से जैसे शहर जागता सोता था। पचासियों मज़दूर व्यापारी उसके अंदर आते-जाते तो लगता एक शहर चल रहा है। 

राम बाबू ने एक बार तो टालने की सोची, "अरे औरतों की बातें हैं पता नहीं जीन वाले बाबू यह न कहें, ले मखमल में टाट का पैबन्द कहीं लगता है। साधारण दुकानदार और बिना माँ की बच्ची ऐसा क्या देखा है?" अपने घर के सामने से तो सैंकड़ों बच्चियों को देखते हैं। सभी तो अच्छी-अच्छी सी प्यारी-प्यारी सी होती हैं। बेटी भी न भगवान् कैसे गढ़ते हैं बेटियाँ कितनी सुंदर होती हैं। पर फिर बड़े भाई से सलाह कर ही बैठे। 

"भाई साहब! आप ही बताइये क्या करूँ? मनिया की कही बात है और फिर अभी अठारह की हुई है।" 

विशन बाबू की पत्नी निर्मला ने ही एक तरह से नन्ना को पाला इसलिये उस पर वो अपना अधिकार समझती थीं, बोलीं, "अठारह की है ब्याह लायक तौ है ही गई है साल दो साल में क्या फरक पड़ेगा? घर बैठे अच्छा रिश्ता आ रहा है उस घर से जुड़ने से समाज में अपनी भी इज्जत बढ़ेगी और बच्चों के भी ब्याह अच्छे घरों में हो जायेंगे।"

निर्मला की बात सुन दोनों भाइयों ने एक दूसरे की ओर देखा, "बात तो भाभी ठीक कह रही है," रामबाबू बोले। 

’भाभी ठीक तो कह रही है’ पर अभी अठारह की हुई है। विशन बाबू सोच में पड़ गये। 

"अठारह की तो हो गई न साल दो साल में क्या फरक पड़ेगा? कर दो देवरजी सब बहुत अच्छा है।" 

पर नियति शायद मुँह फेर कर ख़ूब हँसी होगी कि यही साल-दो-साल नन्ना की ज़िंदगी के निर्णायक साल होंगे। चट मँगनी पट ब्याह हुआ। नन्ना से अब असली नाम पर आ गई जिसे तब तक केवल स्कूल में सुना था नयना। शहनाई बजी और साल बीतते-बीतते ढोलक बज उठी। नयना माँ बन गई। रेशू साल भर की भी नहीं हुई कि नयना की ज़िंदगी धुल-पुछ गई। नयना की सास ने देवी माँ के दर्शन बोल रखे थे। जाना था, लौटते में गाड़ी पलटी सात प्राणी सवार थे पर नयना के पति का सिर शीशे से टकराया और वह देवी माँ के चरणों में पहुँच गया। 

सास ससुर नयना को देखते– आँखें गंगा-यमुना हो जातीं। इक्कीस साल की बहू किसके सहारे रहेगी। उनके बाद उसका क्या होगा। जवान बेटे की मौत ने असमय बूढ़ा कर दिया था, साथ ही जीने की कोई लालसा भी नहीं रही। मन भी बुझ गया बस अब चिंता थी तो नयना की। नरोत्तम बाबू ने एलान कर दिया नयना की शादी करेगें और वे ख़ुद कन्यादान करेंगे। नयना आँसू भरकर सास सावित्री के सामने खड़ी हुई, "माँ, माँ अब मैं कहीं नहीं जाऊँगी, रेशू है न।"

उसकी बात पूरी भी नहीं हुई कि सावित्री बोली, "नहीं बिटिया रेशू हमारी है, मेरे बेटे की अमानत।" 

"पर माँ मैं रेशू से अलग नहीं रहूँगी।"

"नहीं बिटिया, अभी तुम्हारे आगे पूरी ज़िंदगी पड़ी है, हम लोगों का क्या है आज हैं कल नहीं रहेंगे, रेशू हमारी है, हमारे पास रहेगी।"

"पर मैं . . . मैं उसके बिना . . . " अभी वह बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि नरोत्तम बाबू आ खड़े हुए। आते-आते उन्होंन नयना की बात सुनी और बोले, "और नयना बिटिया हमसे नहीं पूछोगी हम कैसे रहेंगे? हमारा तो बेटा भी गया और उसकी निशानी भी, नहीं रेशू में मुझे अपना धीरेन दिखता है।" 

"पर मैं भी कैसे जी पाऊँगी?"

सवित्री की आँख से आँसू लगातार बह रहे थे। उनकी हिचकी बँध गई। अपने रोने को रोकने की बहुत कोशिश कर रहीं थीं, अपना पल्ला उन्होंने मुँह में घुसा लिया, फिर पलट कर दौड़ती सी रोती रोती चल दीं, फिर दरवाज़े के पास रुक कर बोलीं, "मुँह से एक बार कह दे रेशू धीरेन की नहीं है मैं गोद में भी नहीं उठाऊँगी।" और सीधे निकल गईं। 

नयना ने मुँह नीचे कर लिया। 

"नयना ज़मीन पर आओ, रेशू अभी छोटी है, वो किसी को भी अपना लेगी पर बड़ी होकर उसका अलग होना मुश्किल होगा। रेशू अब सुनीता के पास रहेगी।"

नरोत्तम बाबू का बड़ा लड़का मुंबई रहता था। सात साल हो गये थे शादी हुए पर संतान नहीं थी। वैसे भी जब रेशू हुई थी तब ही नरोत्तम बाबू और सावित्री ने सोच लिया था कि छोटे की दूसरी संतान होगी तो बड़े बेटे वीरेन को दिलवा देंगे। इसके लिये बातों ही बातों में वो नयना से कह भी चुके थे। नयना की ज़मीन अच्छी है; नयना से कहेंगे कि एक बच्चा सुनीता की गोद में डाल दे। पर तब सब ख़तम हो गया "पर हम अपनी रेशू को पराये घर नहीं जाने देंगे, रेशू हमारी है हमारी रहेगी,"और सावित्री ’मेरा धीरेन’ कहती वहाँ से हट गई।

भारी हृदय से नैना पहले एक साल मायके रही, पिता ने ही रिश्ता ढूँढ़ा, फिर दूसरे साल पिता के घर से ही विदा हुई पर ज़िम्मेदारी नरोत्तम बाबू ने उठाई। नयना के विदा होते ही बिना पीछे मुड़े नरोत्तम बाबू चले आये थे। माँ तो वह तब भी थी पर अब वह पाँच साल के लड़के अर्णव की माँ भी थी। सुवंश की पत्नी भी एकाएक ही ख़त्म हो गई थी सिर में दर्द हुआ और चकरा कर गिर पड़ी थी। दो ऐसे प्राणी जिन्होंने अपना-अपना साथी खो दिया था विधाता ने एक दूसरे का दुःख बाँटने को एक कर दिये। रेशू को फिर नहीं देख पाई ’नहीं नयना अब ये तीन साल अपनी ज़िंदगी से निकाल दो, बिलकुल भूल जाओ’ नरोत्तम बाबू ने नैना को विदा करते हुए कहा था। 

"पर रेशू को . . . " अभी वह पूरी बात भी नहीं कह पाई थी कि सावित्री कठोर स्वर में बोलीं, "नयना कहा न भूल जाओ, सब कुछ भूलने की कोशिश करो तब ही सुखी रहोगी। एक दिन तुम ख़ुद ही कहोगी कि अच्छा हुआ रेशू को नहीं लाई। हमारी तो आत्मा है, हमारे आंगन का नगीना," कहते-कहते सावित्री का गला भर आया, "रेशू में मैं अपने धीरेन को देख लूँगी, उसे देख-देख जी लूँगी। मुझसे मेरा धीरेन मत छीनो।" 

विदाई में खड़े सब उदास तो थे ही पर सबकी आँखें जैसे बरसने लगीं। ख़ुद नयना की नई सास ने नयना से कहा, "नयना! बहनजी बिलकुल ठीक कह रही हैं, आज भावना में बह रही हो, कल उन्हें धन्यवाद दोगी। देवता लोग हैं, रेशू उनके पास ही रहेगी।"

रेशू को फिर कभी नहीं देखा न उसके विषय में सुना, क्योंकि उस दिन के बाद उस घर से विराम लग गया था। धीरे-धीरे नई गृहस्थी में नयना रम गई, फिर प्रशा गोद में आ गई। अब रेशू कभी-कभी ध्यान में आ जाती। कुछ देर सोचती फिर अपने नये वातावरण में रम जाती। उसे सोचने का समय ही नहीं मिलता था। मनुष्य रुकता है आगे-पीछे देखता है, पर समय नहीं रुकता, हर पल समय बदल जाता है और निकलता जाता है। उम्र समय की बढ़ती है मनुष्य की तो घटती है। बीस साल का समय क़दम दर क़दम निकलता चला गया। अर्णव बैंगलोर सर्विस करने लगा, प्रशा पूना पढ़ने चली गई। बैंगलोर में अर्णव अकेला रह रहा था ’अब उसकी शादी कर दी जाये’ सुवंश की इस बात पर नयना सहमत थी। 
"हाँ और क्या सर्विस कर ही रहा है अकेले दिक़्क़त हो रही होगी, शादी कर देनी चाहिये बात करो उससे," नयना सुवंश की हाँ में हाँ मिलाकर बोली। अर्णव पापा की बात सुनकर अचकचा गया, "पापा जल्दी क्या है? छुट्टी में घर आऊँगा बात करेंगे।" 

"बात करेंगे क्या मतलब? बात क्या करनी है? अब सैटल तो हो ही गये हो, बात क्या करनी है, रिश्ते आने शुरू हो गये हैं, बड़ी बुआ ने बताया है लड़की अच्छी है, पढ़ लिखी है और क्या चाहिये? अब बात क्या करनी है?"

पर जब हाँ-हाँ पापा, हाँ-हाँ पापा कहकर जब अर्णव बात उड़ा गया तो नयना का माथा ठनका। "लगता है कुछ चक्कर है," नयना बोली तो सुवंश उसका मुँह देखने लगा। 

"जिस ढंग से कह रहा है आऊँगा, आकर बात करूँगा, इसका मतलब है कुछ चक्कर है।" स्त्रियों की छठी इंद्रिय शीघ्र जाग्रत हो जाती है। 

"ठीक है अभी बुआजी से कुछ नहीं कहना। अब आ जाये, आगे तभी बात होगी–लगता है कुछ चक्कर है।"

"चक्कर . . . चक्कर क्या हो सकता है?" सुवंश ने जब उसकी ओर देख कर कहा तो उसने माथ ठोक लिया, "तुम्हारी कुछ समझ में ही नहीं आता है। ज़रूर कोई लड़की आ चुकी है उसके जीवन में।" और सच भी वही निकला। 

"यह रश्मि है माँ मेरे ऑफ़िस में ही है। माँ आप मिलोगी तो आपको अच्छा लगेगा," अपने मोबाइल में से पतली-दुबली सी लड़की की कई तस्वीरें दिखलाता बोला। 

"लग तो अच्छी रही है पर . . ." 

"पर क्या माँ?" उसे अटकता देखकर बोला, "एक बार मिल लेना।"

"अरे ठीक है, लड़की अच्छी होनी चाहिये। तुझे पसंद है बस, हमें क्या चाहिये, तू ख़ुश रहे," सुवंश ने बात को वहीं विराम देते हुए कहा। सुवंश जानते थे बच्चों से बहस करने या पूछताछ करने से कोई फ़ायदा नहीं है। माँ-बाप दुनियादारी देखते हैं तो बच्चे वर्तमान देखते हैं। "बस देख कोई बहुत अलग जाति तो नहीं है न ?"

"पापा किसी को किसी की ज़िंदगी से कोई मतलब नहीं होता है। अलग कास्ट होगी भी तो आजकल खान पान सब एक से हैं, फ़ैस्टीवल सब एक से हैं, कोई अलग है?"

"फिर भी . . . " सुवंश ने नयना का मन पढ़ने की कोशिश करते कहा। 

"पापा किसी को किसी की ज़िंदगी से कोई मतलब नहीं है, कौन सा रिश्तेदार है जिससे आप अपनी बात शेयर कर सकते हो? कोई है?" सच रिश्ते के नाम पर तो जैसे झाड़ू फिर गई है। एक बड़ी बहन है उसके बच्चे दोनों विदेश में हैं और तो कोई अब दिखता ही नहीं। मामाजी को देखे ही सालों हो गये। बस होली-दिवाली फोन पर बात हो जाती है। और तो कोई है ही नहीं। रिश्ते जोड़ने से जुड़ते हैं एक डोरी बँधी रहती है तो बँधे रहते हैं। नहीं तो परिवार की चरखी घूमती रहती है पतंगें उड़-उड़ कर न जाने कहाँ चली जाती हैं। वैसे भी हर चरखी के साथ एक पतंग की डोर ही बँधी रहती है। 

"रश्मि के पापा कल आयेंगे, पापा कल कह दूँ आने को? जाने का समय हो रहा है; परसों तो जाना है ही।"

"हाँ बुला लो; कल आ जायेगे?" प्रश्नवाचक दृष्टि से नयना की निगाह उठी तो अर्णव बोला, "माँ मैं तो मिल चुका हूँ आप लोगों से आगे बात करना चाह रहे हैं।"

"ठीक है तो रिवर गार्डन में बुला लो, वहीं ठीक रहेगा, घर में तो दिक़्क़त होगी।" नयना सोच कर ही घबरा गई कि कैसे कल ही सारा घर ठीक करे। खाने का इंतज़ाम भी अच्छा होना चाहिये। प्रभाव तो ठीक ही पड़ना चाहिये, ये न सोचें कैसे घर में बेटी जा रही है! अब इन सब झंझटों से मुक्ति चाहिये, यही अच्छा है कि रिसोर्ट में मिल लें– नयना ने सोचा। 

"हाँ माँ, वहीं रुक जायेंगे, मुंबई से आयेंगे। उनकी फ़्लाइट आठ बजे आ जायेगी, यहाँ दस बजे पहुँचेंगे। वहीं उनके ठहरने का इंतज़ाम करा देता हूँ लौटने की फ़्लइट शाम की है।"

 नयना कभी अर्णव का और कभी सुवंश का चेहरा देख रही थी। सारा कुछ इंतज़ाम तो पहले ही हो रखा है; वो न पूछते तब भी सब कुछ तय है। सोच रही थी रश्मि से बात कर ले पर क्या बात करेगी?

"रश्मि भी आ रही है क्या? वह भी बता दे वह भी तय है क्या?" अर्णव से हँसते हुए बोली। 

"नहीं, अभी नहीं माँ छुट्टी उसकी ज़्यादा हो जायेंगी न, अभी नहीं लेगी।"

रिवर गार्डन में बैठे रश्मि के माँ-बाप उन्हें आते देखकर आगे बढ़ आये लेकिन नयना के क़दम रुक गये, वह पसीना-पसीना हो उठी। जैसे अभी गिर पड़ेगी। बीस साल के अंतराल ने चेहरों पर अनेक बदलाव ला दिये थे। पर वे अमिट चेहरे एकदम सामने आ गये, "आओ नयना आओ," कहते रश्मि की माँ ने उसे पकड़ लिया। अर्णव और सुवंश चौंक उठे।

"माँ आप जानती हो?" अर्णव बोला उसके चेहरे पर आश्चर्य और उत्सुकता से भरे भाव तिर आये। नयना हाँ में सिर हिलाकर रह गई और कुर्सी के हत्थे को कसकर पकड़ कर बैठ गई। फिर धीरे से क़रीब फुसफुसाहट से ही बोली, "ये रेशू है भाभी।"

"हाँ नयना और कैसी हो?"

"अच्छी हूँ," नयना का सिर नीचे झुक गया। अपनी भरी आँखें वह छिपाना चाहती थी। धीरे से रुमाल से उन्हें पोंछा, पर कहीं अंतरतम से निकले भाव छिपते हैं। चेहरा कितना भी बदल लो पर असली चेहरा सामने आ झलक झलका जाता है। 

अर्णव हैरान सा दोनों को धीरे-धीरे बात करते देखता रहा फिर बोला, "माँ आप रश्मि को कैसे जानती हैं?"

"जब इन्हें जानती हूँ तो रश्मि को भी जानूँगी, नहीं बस यह मालूम है इनके एक बेटी है और कुछ नहीं, अच्छा अर्णव कुछ ठंडा गर्म तो मँगा। कहाँ हैं यहाँ वेटर तो दिख ही नहीं रहे," कहती नयना माहौल बदलने का प्रयास करने लगी। उसकी असली इच्छा वहाँ से अर्णव को हटाने की थी। अर्णव के साथ ही सुवंश भी देखने चले गये। मन में अलग ही चिंता होने लगी, ’कैसे होगा अब?’ अर्णव के जाने पर वह सुनीता से बोली तो वीरेन बोल उठे, "क्यों इसमें क्या परेशानी है, कोई नहीं इसमें सोचना कैसा? वह तो अब हमारी बेटी है तुम्हारा क्या मतलब?"

नयना कुछ बोलती इससे पहले ही वीरेन फिर बोले "ननन, नयना कुछ नहीं बिलकुल शांत रहो कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है," अर्णव को आते देख बोले, "हाँ बेटे जी मैं ज़रा कॉफ़ी पीना चाह रहा हूँ, मिलेगी क्या?"

"हाँ अंकल कॉफ़ी ही आ रही है।"

"ओह तो रश्मि ने यह भी बता दिया कि मुझे कॉफ़ी पसंद है। तुम लोग ये बातें करते हो," कहकर हो-हो कर हँस दिये पर नयना का मन चिंताग्रस्त था। जैसे वह चारों ओर की बातें सुन ही नहीं रही थी। उसके चेहरे पर मुसकान भी नहीं आई। तभी अर्णव का मोबाइल बज उठा, सबकी निगाहें उधर ही उठ गईं, "क्यों रश्मि ही है न? चैन नहीं पड़ रहा होगा, पता नहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं हो गई होगी?" सुनीता बोली, "बहुत डरती है। मेरे साथ सब कुछ गड़बड़ क्यों होता है सीधा-साधा कुछ नहीं होता, ज़रूर कुछ न कुछ पेच फँसेगा, मुझसे कह रही थी मम्मी सब ठीक है फिर भी देखना, इसलिये बेचैन होगी।" कहने के साथ ही सुनीता उलझन में पड़ गई। अगर नयना रश्मि को ले आती तब वह बहन-भाई के रिश्ते से बँधते वो तो लाई नहीं या लाने नहीं दिया। उसने गहरी साँस ली, सच ईश्वर जो भी करता है अच्छा ही करता है। 

"नहीं आंटी, प्रशा का फोन था कह रही थी मेरे बिना कोई काम नहीं होगा। भाभी पास मैं ही करूँगी।"

"आओ नयना ज़रा रिसोर्ट देखकर आयें यहाँ क्या क्या है?" रिसोर्ट में कुछ पिंजरे बने थे। बड़ा सा पहाड़ी कछुआ था जो अकेला ही धीरे-धीरे अपने दिन काट रहा था। शायद उसे यह भी नहीं मालूम होगा कि उसके भी जैसे और जीव हैं। अलग-अलग रंग के छोटे–बड़े खरगोश, एक पिंजरे में हिरन थे, बारहसिंगा था। चिड़ियाँ तो बहुत तरह की थीं। उन्हें देखते वे फव्वारे के किनारे पर बैठ गई। नयना के कान में दूसरी विदा के समय बोले बार-बार धीरेन की माँ के शब्द गूँज रहे थे, ’नयना आज के बाद हमारे संबंध ख़तम, न तुम हमसे मिलोगी न हम तुम से। कहना चाह रही थी याद भी मत करना, पर उस पर तो वश नहीं है तू भूल जाना ये ज़िंदगी के तीन साल हमारे साथ बिताये, उन्हें कभी मत गिनना’।

उसकी आँख से आँसू जैसे फूट पड़े, "भाभी ये कैसा बंधन दिया विधाता ने, क्या खेल किया है?" 

उसकी हिलती पीठ पर सुनीता हाथ रख कर बोली, "मत सोच नयना, ये बंधन जन्म जन्म के होते हैं।"

"कैसी हैं माँ?" वह बीते बीस साल जान लेना चाहती थी।

"तुम्हारी विदा के बाद मम्मीजी रेशू को छाती से लगा बिलख पड़ीं थीं। बहुत रोईं थीं उसके बाद उन्हें हँसते किसी ने नहीं देखा। पाँच साल और रहीं, सूखती चलीं गईं। ये तो हमेशा से ही बाहर रहे थे इसलिये कभी इनके होने का एहसास तो मम्मीजी को कभी था ही नहीं हाँ, छाती भरी रहती थी कि कोई तो है। बाबूजी और तीन साल रहे हमारे पास नहीं आये वहीं रहे थे। छोटे चाचा-चाची ने उनका ख़्याल रखा। मकान उनके लिये ही खोल दिया है एक कमरा किचन बंद कर रखी है। बाबूजी को छोटे चाचाजी से बहुत लगाव था, कुछ भी हो करते भी थे। आदमी ग़म की कुछ कहता नहीं है, पत्थर-सा सब सहता जाता है पर नीचे अंदर ही अंदर खोखला हो जाता है। मुंबई नहीं गये कि यहाँ तो सब ठीक है अब अपनी देहरी छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा। हर साल हम ही आ जाते थे छुट्टियों में। रेशू से ख़ूब बातें करते थे।"

सुन-सुन कर नयना के आँसू रुक ही नहीं रहे थे। कुछ देर में प्रकृतिस्थ होकर बोली, "भाभी क्या यह संबंध ठीक रहेगा?"

"नयना भावुकता से नहीं यथार्थ में आओ। रेशू तुम्हारी बेटी नहीं है; वो मेरी बेटी है," फिर कुछ रुककर बोली, ’नयना यहाँ मालूम है कि बेटी है तुम्हारे पास?"

"हाँ, यह तो सुवंशजी को मालूम है पर आप लोग वही हो, अभी यह नहीं मालूम। शायद जब बात आयेगी तब समझ जायेंगे यह तो संयोग है कि अर्णव और रेशू की मुलाक़ात हुई है। यह तो मैं भी नहीं समझ पाई थी रश्मि रेशू है।"

"तब एक बार भी मत सोचो नयना। भाग्यशाली हो तुम, तुम्हारी बेटी तुम्हारी गोद में वापस आ रही है। मैं भाग्यशाली हूँ कि माँ सी सास ही नहीं– माँ ही मिलेगी। एक बार ध्यान से गहराई से सोचो अर्णव के माँ-बाप अलग हैं और रेशू के माँ-बाप अलग हैं। जब कहीं जीन्स एक नहीं हैं तो बहन-भाई कैसे हुए? और इस बात को आगे लाओ भी नहीं। यहीं ख़तम करो, न मन में कोई मलाल रखो, अब रोना बंद करो और मुस्कुरा दो।" 

कुछ देर नयना का झुका सिर झुका ही रहा फिर झटके से उठ खड़ी हुई, "चलो भाभी।" कहते उसने फव्वारे के पानी से मुँह पर छींटे मारे। रुमाल से मुँह पोंछते हुए मुस्करा दी। 
 

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