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उनकी वापसी

लौट रहे हैं मज़दूर
इससे पहले वे नहीं हुए थे इतने मजबूर
अपनी मेहनत पर उन्हें भरोसा था 
दुनिया रचने वाले विश्वकर्माओं को
आज बेकारी की लपटों में झोंक दिया गया 
छिन गया उनका निवाला 
अपने टूटे बसेरों के टुकड़े सिर पर लादे
चले जा रहे हैं ख़ाली हाथ 
हज़ारों मील लंबा है सफ़र
कोई वाहन नहीं मिला
यदि है भी तो इन्हें मयस्सर नहीं
बस अपनी थकी-हारी टाँगों पर ही भऱोसा कर  
वे निकल पड़े हैं अपने गाँवों के लिए
इनका कारवाँ बढ़ा जा रहा है
भूखे - प्यासे रहकर भी चल रहे हैं
दोपहर की धूप में भी चलते हुए जल रहे हैं
कोई अपने बाल- बुतरू समेटे
घर वाली के साथ 
सबको देखता- सँभालता चल रहा है
तो कोई अकेला चलते हुए सोच रहा है
कि अगर दम टूट गया रास्ते में
तो कौन देखेगा?
और गाँव में कई जोड़ी आँखें
रास्ता देखती रह जायेंगी


अब कोरोना से क्या डरें ?
कितने-कितने डरों के बीच सयाने हुए हैं
चलना ही ज़िन्दगी है उनके लिए
आगे-आगे रोटी पीछे-पीछे वे
चलते रहे हैं इसी तरह 
खेलने-खाने  से दिनों से
वैसे दूसरों के लिए बचपन होता होगा 
खेलने- खाने का पर्याय
क्या होता है खेल ? 
और क्या होता है  खाना ? 
उन्होंने कभी नहीं जाना
सच तो यही है
कि सारी उम्र वे नापते रहे हैं ज़मीन
आज ज़िन्दगी के लिए 
ज़िन्दगी लगी है दाँव पर

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