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ऊर्जस्विता

शूल केवल फूलों के संग ही नहीं  उगते बल्कि ये हर समाज में शब्दों या अपशब्दों के रूप में अपने विषाक्त डेने फैलो चाहे अनचाहे अपनी परिधि में जकड़ कर अपने डंक चुभाते हैं जिसकी असहनीय  पीड़ा से व्यक्ति छटपटा कर रह जाता है अगर वह मरता नहीं तो मरणतुल्य जीवन जीने के लिए अभिशप्त अवश्य हो जाता है। उसकी आत्मा में एक नासूर अवश्य बन जाता है जो हर वक्त रिसता रहता है। समाज में उपेक्षित होकर जीने एवं आत्मग्लानि में मनुष्य का आत्मविश्वास एवं आत्मसम्मान सब कुछ चुक जाता है।

उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जनपद के  एक बहुत ही छोटे से गाँव "उमरी" में स्वयंप्रभा का जन्म हुआ था। इस गाँव की आबादी लगभग पाँच हजार होगी। स्वयंप्रभा के  जीवन कम की नींव इसी गाँव में रखी गई। एक भाई और एक बहिन में वह सबसे छोटी थी। इसलिए माता पिता की अधिक लाडली थी। उसके माता पिता ने बड़े ही प्यार दुलार से उसका पालन पोषण किया था।  गाँव के नैसर्गिक सौन्दय में उसके बचपन को जीवन का नया अर्थ मिला था। पीपल की छाँव में झूले झूलना बूढ़े बरगद के नीचे बने देवी के मंदिर के अहाते में लुका छिपी खेलना अमरूद के बगीचे से अमरूद चुरा कर तोड़ना खाना पत्थर मारकर कच्चे आम तोड़ना बेरी झरबेरी के बेर चुन कर खाना  तालाब में नहाना तैरना लहलहाते खेत और पास में  एक पोखर जिसमें सिगाड़े की बेल पड़ी रहती उसमे से वह कभी भी कच्चे सिगाड़े तोड़ कर  खाती।  खेतों में कैथा और इमली के पेड़ भी थे जब वे पक जाते तो वह बड़े चटकारे लेकर खाती और खेतों की मेडों पर छलाँग लगाती कभी ईख और कभी हरे चने के बूटे उखाड़ कर खाती।  बहुत ही मदमस्त जीवन था किसी अन्य सुख की चाह कभी नहीं हुयी।

गाँव में बालिकाओं के लिए एक छोटी सी पाठशाला थी। एक बाइजी पढ़ाती थी। जो पढ़ाती कम डाँटती मारती ज्यादा थी। इनकी भी बड़ी अजीब कहानी थी। सफेद साड़ी में लिपटी उनकी कंचन काया और युवावस्था का तेज़ मुख पर दमकता था वे देखने में त्याग की सजीव मूर्ति लगती थी। वे बाल विधवा थी। जन्म से ही एक नेत्रा थी।

पिता भाई के सुख से वंचित थीं। घर में केवल विधवा माँ थी।जीवन की गाड़ी चलाने के लिए ही नौकरी करती थीं। हर रोज पाँच मील पैदल चल कर आती जाती थी। पढ़ी लिखी ज्यादा नहीं थी लेकिन पता नहीं उन्हें नौकरी कैसे मिल गई थी।

जब स्वयंप्रभा पाँच बरस की हुई तो शुभ दिन देख कर पाटी पूजन कर उसका नाम इसी पाठशाला में लिखवा दिया गया। स्वयंप्रभा बहुत मेधावी किन्तु चंचल स्वाभाव  की थी। पढ़ाई तो वह पलक झपकते कर लेती और कक्षा में सबसे अव्बल रहती। इस तरह बाई जी के क्रोध का भाजन उसे कभी नहीं होना पड़ा लेकिन दूसरो को पिटता देख और हमेशा बाईजी के हाथ में छड़ी देख वह डरती अवश्य थी। उसे मार खाना बिल्कुल पसन्द नहीं था। उसके साथ उसकी सहेली मालिनी भी पढ़ती थी। वह  पढ़ने में कमजोर थी पर इसकी उससे  खूब बनती थी। एक दिन वह मालिनी के साथ खेलने उसके घर चली गई लेकिन मालिनी यह कह कर घर के अन्दर चली गई कि वह उसका बाहर इन्तजार करे वह अभी आती है। जब वह काफी देर तक नहीं आई तो उसने दरवाजे की आड़ से उसके घर में झाँक कर देखा कई औरतें बैठी बातें कर रही थीं। तभी एक औरत ने उसकी तरफ उँगली दिखा कर दूसरी से पूछा कि यह किसकी लड़की है।

दूसरी ने कहा, "तुम नहीं जानती यह तो उसी कुलटा पंडिताईन की बेटी है जो दूसरा खसम कर गई है।"

दूसरे ने आश्चर्य से हाँ में हाँ मिलाई।

यह बात सुनकर स्वयंप्रभा के तन बदन में आग लग गई किन्तु वह कुछ  बोल न सकी और चुपचाप अपमान का विष पीकर वहाँ से वापस घर आ गई।कई दिन तक वह बहुत उदास रही पर उसने किसी से कुछ नहीं कहा। यूँ तो सात बरस की आयु कोई अधिक तो नहीं होती लेकिन स्वयंप्रभा को यह बात अवश्य समझ में आ गई कि यह बात उसके माँ के लिए सम्मानजनक नहीं थी। उसके हृदय में यह अपमानित क्षण बहुत गहरे पैठ गया। उसके मन में समाज के ऐसे लोगों के प्रति क्षोभ और घृणा उत्पन्न हो गई और उसने मन में कोसते हुए कहा कि समाज के ऐसे लोग ही तो शब्दों की शूल चुभा चुभाकर जिस्म और आत्मा को लहूलुहान करते रहते हैं वह ऐसे शूल अपने को कभी चुभने नहीं देगी।

वह बहुत संवेदनशील थी और उसकी उम्र के हिसाब से उसके विचार परिपक्व एवं प्रगतिशील थे। इसलिए माँ के लिए ऐसे अपशब्द सुनकर भी माँ के प्रति उसकी श्रद्धा व सम्मान कम न होकर और भी बढ़ गया। उसकी माँ बाल विधवा थी अगर उसने शादी करके अपना जीवन निर्वाह करना चाहा तो इसमें गलत क्या है। फिर इसकी सजा उसके बच्चों को क्यों मिले।

जब उसकी माँ का कोई सहारा न था तब समाज के कई नर भेड़ियों ने उसका जीना दुश्वार कर दिया था हमेशा घात लगाए देखते रहते थे तब ये समाज के लोग कहाँ थे। सत्तरह  बरस की उम्र में ही तो वे  विधवा हो गई थी ऐसे में पूरी ज़िन्दगी बिना सहारे के गुजारना आसान नहीं था। ऐसी स्थिति में अगर उसकी माँ ने एक सुदृढ़ सहारा ढूँढकर शादी कर ली तो इसमें गुनाह कैसे हो गया। वह माँ के बारे में यह सब तें इसलिए जानती थी क्योंक कई बार माँ को रो-रोकर अपनी सहेली को बताते हुए सुना था जब भी वह माँ को रोते हुए देखती वह भी रोने लगती। उसके कोमल हृदय में माँ के लिए और भी प्यार उमड़ता और वह यही सोचती किवह ऐसा  कुछ न कुछ अवश्य करेगी जिससे उसकी माँ को खुशी मिले और वह समाज में गर्व से सिर उठाकर जी सके।

बस यही वो दृढ़ संकल्प था iज्से पूरा करने के लिए वह कटिबद्ध हो गई।  समाज को भी जवाब देने का इससे बढ़िया और कोई उपाय उसके पास नहीं था। उसने सोचा उसे और अधिक पढ़ाई करनी पड़ेगी तभी वह अपनी मंज़िल तक पहुँच पायेगी। जब उसने पाँचवीं कक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर ली तब उसके सामने समस्या यह थी कि गाँव में तो बस एक प्राईमरी स्कूल ही था आगे की पढ़ाई वह कैसे कर पायेगी। क्या उसके पिता उसे बाहर पढ़ने के लिए भेज पायेंगे। बहुत ऊहापोह में वह कई दिन तक रही फिर एक दिन हिम्मत करके वह अपने पिता जी से बोली मैं भी भैया की तरह आगे पढ़ना चाहती हूँ और उच्च शिक्षा प्राप्त करके कुछ बड़ा बनना चाहती हूँ। पहले तो पिता जी नहीं माने लेकिन बेटी की मेहनत और लगन देख कर हाँ कर दी  उसे कस्बे के स्कूल में दाखिल करवा दिया इस स्कूल में रहने की व्यवस्था भी थी। वह अपनी मनचाही मुराद पूरी करने के लिए जी-जान से जुट गई।

स्वयंप्रभा ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। पढ़ने के सिवा उसके जीवन का और कोई दूसरा लक्ष्य नहीं था। समय बीतता गया और वह डिग्रियाँ हासिल करती चली गई। तमाम प्रतियोगी परिक्षाओं से गुज़रती हुई आखिर एक दिन उसे उनमें सफलता मिल ही गई और उसकी प्रथम नियुक्ति उप जिलाधीश के पद पर हुई।माता पिता गर्व से फूले न समाते। उसके भाई ने ज्यादा पढ़ाई नहीं की बस एम.ए. कर कालेज में कॉर्मस के व्याख्याता बन गए। जीवन के गुजारे भर के लिए कमा लेते थे। बड़ी बहिन को पढ़ने में रुचि नहीं थी इसलिए पिता जी ने उसकी शादी जल्दी ही कर दी थी।

स्वयंप्रभा की कर्मठता एवं ईमानदारी के कारण उसकी पदोन्नति शीघ्र होती गई और एक दिन वह अपने ही जिले की कलक्टर बन गई। जब एक दिन वह सरकारी जीप में बैठ कर अपने गाँव गई तो उसे देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी सब झुक झुक कर उसके पाँव छूते और कहते, "धन्य हो बिटिया तुमने हमारा सिर गर्व से ऊँचा कर दिया है। अब हम शान से कह सकते हैं कि तुम इस गाँव की बेटी हो।"

स्वयंप्रभा ने समाज की उपेक्षा ही को तो अपनी आत्म शक्ति बनाया था और उसी आत्मविश्वास के बल पर ही तो उसने सब कुछ पाया था। मैं सोचती हूँ काश सभी लड़कियों की सोच उस जैसी होती और तब समाज की उपेक्षा को भी सकारात्मक कार्य करके वे अपनी प्रतिभा को सिद्ध कर पातीं। जीवन में चाहे कितना ही घना अंधेरा क्यों न हो उसकी सकारात्मक सोच  दृढ़ संकल्प और सच्ची लगन  हर बाधाओं से लड़ने की असीमित ऊर्जा देती है। रास्ते कंटकोपूर्ण हो सकते हैं लेकिन अगर पाँव लहुलुहान हो जाने पर भी चलने की क्षमता रखते हो तो उसको मंज़िल तक पहुँचने से कोई नहीं रोक सकता। संसार की हर महान बनने वाली महिलाओं के रास्ते भी तो आसान नहीं रहे होंगे लेकिन उन्होंने अपनी सूझ-बूझ एवं दम-खम से ही वो प्राप्त किया होगा जो उन्हें चाहिए था  और रास्ते तो कई हैं बस उन पर चलने की देर है। काश सभी स्वयंप्रभा जैसी ऊर्जस्विता बन सकें।

"चलो अब मैं चलती हूँ, मुझे उन महिलाओं से भी तो मिलना है जिन्होंने मुझे इतना काबिल बनाया है।

मालिनी के घर जाकर "कैसी है काकी जी, क्या आपने मुझे पहचाना। मैं पंडिताइन की बिटिया हूँ।"

"यह सुनकर वे पैरों पर गिर पड़ी और बोली बिटिया तुम्हें कौन नहीं जानता। हमें माफ कर दो।"

मेरी आँखों में प्रेम के आँसू छलछला आए। मैंने उन्हें उठा कर गले से लगा लिया। मन मैल तो कब का धुल चुका था।

 

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