अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

उसकी मौत

आज एक बार फिर हम सब दोस्त सोहन के घर एकत्रित हुये थे - मयपान के लिये नहीं अपितु उसकी शव-यात्रा में शामिल होकर उससे अंतिम विदा लेने के लिये!

उसके घर के बाहर गली में शोक सभा के लिये लगाये गये शामियाने के नीचे एक तरफ गली-मोहल्ले व रिश्ते की औरतें 'स्यापा' कर रही थीं और दूसरी तरफ कुछ शोकग्रस्त मर्द बैठे थे जिनमें से कुछ तो बिल्कुल ख़ामोश थे तो कुछ आपस में वार्तालाप कर रहे थे। हम चारों दोस्त भी अपने सिर झुकाये इस शोक सभा में शामिल थे!

सहसा, सभा में मौजूद एक सज्जन ने मौत का कारण जानते हुये भी अपने पास बैठे दूसरे सज्जन से औपचारिकतावश अपनी सहानुभूति दर्शाते हुये वार्तालाप शुरू किया, "वाकई ही बड़ा ज़ुल्म हुआ है भाई साहिब, इस परिवार के साथ... बेचारे के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, बड़ा शायद लड़का है और दूसरा बच्चा लड़की है, सोहन की उम्र भी कोई ख़ास नहीं थी, यही कोई बत्तीस-पैंतीस साल मुश्किल से ...पिछले हफ्ते ही मैं ख़ुद अपने सैक्टर की मार्किट में उनसे मिला हूँ, शाम का 'टाइम' था ... कोने में सब्जी वाले की दुकान के साथ वाली पान-सिगरेट की दुकान पर खड़े थे, शायद पान तैयार होने की इंतज़ार में थे... पान खाने का उन्हें बड़ा शौक था ...मैं ज़रा जल्दी में था, उनसे कोई ज़्यादा गल-बात तो नहीं कर पाया, पर मुझे क्या पता था कि यह मेरी अंतिम मुलाक़ात होगी... क्या भरोसा है ज़िंदगी का? है कोई, भला ...?" अविश्वास की मुद्रा में अपना सिर हिलाते हुए उन्होंने कहा।

उनके प्रत्युतर में वार्तालाप में उनके साथ लिप्त सज्जन जो रिश्ते में शायद सोहन के काफी नज़दीकी थे, आखिर फफक ही पड़े, "यही सुना है, कल रात अपने दोस्तों के साथ खाने-पीने के बाद अपने घर स्कूटर पर रवाना हुये हैं कि उस रिक्शे वाले चौंक पर, एक 'थ्री-व्हीलर' वाले के साथ टकराकर सिर के भार सड़क पे गिरे हैं कि बस वहीं पर दम तोड़ दिया ...!"

"हेल्मेट नहीं था डाला हुआ सोहन लाल जी ने ...?"

"ओह जी, यह सब बातें हैं ...हेल्मेट भी डाला हुआ था, पर सड़क पर गिरने के बाद हेल्मेट किधर का किधर जा गिरा, सर जाके उधर कंक्रीट से टकराया...बस जी.... बुरी घड़ी आई हुई थी...होनी को कौन टाल सकता है...?"

वार्तालाप को सुनकर हमें लगा जैसे हम चारों दोस्त ही अपने दोस्त की मौत के ज़िम्मेवार हैं और लोग हमें ही कोस रहे हैं क्योंकि घटना की शाम हर रोज़ की तरह हम सभी दोस्त मिलकर जशन मना रहे थे। उस दिन सोहन ने कुछ ज़्यादा ही पी ली थी और फिर वह नशे की हालत में घर जाने का हठ करने लगा था। उसकी हालत को देखकर हम सभी दोस्तों ने उसे स्कूटर चला कर घर न जाने का आग्रह भी किया था, लेकिन वह हमारी बात कब माना था।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ था, इससे पूर्व भी तो हममें से कोई न कोई नशे की हालत में घर जाता रहा था। ख़ुशक़िस्मती से हममें से किसी के साथ कोई बुरी घटना नहीं घटी थी। हमारे बीच ऐसी पार्टियाँ अक्सर होती रहती थीं, कभी सोहन के घर, कभी मोहन के घर, कभी मेरे यहाँ तो कभी हम किसी क्लब में जा धमकते थे। अब तो हम सब को मय की लत ऐसी लगी थी कि पीने के लिये हमें कोई बहाना भी नहीं चाहिए होता था, बस ऑफिस में ही तय हो जाता था कि कब और कहाँ शाम को मिल रहे हैं। ऑफिस में एक-दूसरे के साथ काम करने के इलावा हम चारों-पाँचों दोस्त लगभग एक उम्र के भी थे। ताश खेलने बैठते तो घर-वर सब भूल जाते।

लेकिन सोहन की अचानक मौत हम सबके लिये एक बहुत बड़ा सदमा थी। इस हादसे से सबक लेकर या फिर इसके डर से कुछ दिन तो हममें से किसी ने भी पीने का नाम नहीं लिया लेकिन पीने की यह लत अगर किसी को अगर एक बार लग जाये तो मय पीने वाले इन्सानों को अंत में बिना पिये कब छोड़ती है! हमारी यह लत "मैं कम्बल तो छोड़ता हूँ मगर कम्बल मुझे नहीं छोड़ता" कहावत जैसी कटु सच थी!

सोहन को छोडकर आज सभी दोस्त एक बार फिर पीने के लिये मोहन के घर एकत्रित हुए थे। सब कुछ वही था, मय की बोतल, पुराने दोस्त और खाने का सामान जो हमारे सामने 'टेबल' पर रखा था। अगर किसी चीज़ की कमी थी तो वह थी - हमारे दोस्त सोहन की! सोहन की अनुपस्थिति हम सबको बार-बार झँझोड़ रही थी, उसकी मौत रह-रहकर हमारी आत्मा को कचोट रही थी। आज फिर हमने पीने की कोशिश की मगर लाख यत्न करने के बाद भी पी न सके थे।

कहते हैं - सुबह का भूला अगर शाम को घर लौट आये तो उसे भूला नहीं कहते, हमारी हालत भी कुछ ऐसी ही थी। क्या ग़लत है और क्या ठीक है, संगत में रहकर हम शायद यह भूले हुये थे और भटक भी गए थे, लेकिन उसकी मौत ने हमारी आँखें खोल दी थीं!

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ललित निबन्ध

स्मृति लेख

लघुकथा

कहानी

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

हास्य-व्यंग्य कविता

पुस्तक समीक्षा

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं