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उत्तर आधुनिकता के आईने में दलित समाज का सामाजिक - आर्थिक चिंतन : एक नूतन मूल्यांकन

शोध संक्षेप

उत्तर आधुनिकता के युग में भी सामाजिक असमानता और अस्पृश्यता की समस्या दलित समाज के विकास के मार्ग में एक गंभीर समस्या बनी हुई है। दलित समाज आज भी सामाजिक और आर्थिक समानता प्राप्त नहीं कर पाया है लेकिन यह प्रमाणित होता है कि समय की माँग के अनुसार दलितों की दशा और दिशा में आमूल चूल परिवर्तन अवश्य हुआ है। केंद्र सरकार और राज्य सरकार ने दलित समाज में अभिशप्त गरीबी की समस्या के निराकरण के लिए विभिन्न सरकारी योजनाएँ क्रियान्वित की हैं लेकिन फिर भी दलित समाज सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त नहीं हो पाया है। डॉ. अंबेडकर ने दलित समाज में शिक्षा के प्रति चेतना उत्पन्न की जिससे हज़ारों वर्षों से शोषित दलित वर्ग अपना सामाजिक और आर्थिक विकास कर सके। इस शोध पत्र के द्वारा यह प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है कि दलित समाज के जनजीवन को गरीबी किस तरह प्रभावित कर रही है और वो कौन से कारक हैं कि दलित समाज एकजुट होने में नाकामयाब दिखाई पड़ता है? और क्या वर्तमान में दलित समुदाय के जनजीवन में सकारात्मक परिवर्तन हो पाया है या नहीं?

प्रस्तावना

भारत एक लोकतान्त्रिक देश है जिसमें ७५ प्रतिशत लोग गाँवो में निवास करते हैं। आज़ादी के ६७ वर्षों के पश्चात भी भारत में जाति अपनी जड़ जमाये हुए है। भारत दुनिया में भूखे लोगों वाले ७९ देशों की सूची में ७५वें नंबर पर है और गरीब देशों की सूची में १३५वें नंबर पर है। ऐसा माना जाता है कि भारत का लोकतंत्र बेजोड़ है जिसकी जड़ें बेहद मज़बूत हैं और यहाँ का शासन कानून-सम्मत है। लेकिन प्रश्न यह है कि आज़ादी के ६७ वर्षों के अंतराल के पश्चात भी एक विशेष समुदाय के साथ शोषण और उत्पीड़न की घटनाएँ क्यों घटित होती हैं? यह इस देश का दुर्भाग्य है कि डॉ. अंबेडकर के द्वारा बनाए गए संविधान के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। हम २१वीं सदीं में प्रवेश कर चुके हैं लेकिन दलित समाज के साथ शोषण और उत्पीड़न की घटनाओं में निरंतर वृद्धि हो रही है लेकिन कुछ शिक्षाविदों का वक्तव्य है कि समाज की मानसिकता में परिवर्तन अवश्य आया है। लेकिन यह बिल्कुल गलत है क्योंकि अगर परिवर्तन हुआ है तो दलित समाज की मानसिकता में परिवर्तन हुआ है। यह कहने में संकोच नहीं है कि जिस देश में इंटरनेट के युग में भी दलित वर्ग के अधिकारों का हनन किया जाता है, ऐसे देश का संयुक्त राष्ट्र संघ को बहिष्कार कर देना चाहिए। अभी महाराष्ट्र में एक पत्रकार ने अरविंद केजरीवाल से पूछा कि आप प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी और मायावती में से किसे सहयोग करेंगे। केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी का साथ देने की इच्छा जताई फिर आप कैसे कह सकते हैं कि भारतीय समाज की सोच में निरंतर परिवर्तन आ रहा है?

आज़ादी के ६७ वर्षों के बाद भी भारत अमेरिका की तुलना में ख़राब स्थिति में है आखिर क्यों? भारत को गरीब और अमेरिका को एक अमीर देश मानते हैं - जबकि दोनों का एक समान राजनैतिक ढांचा है, काम के मोर्चे पर समान उदार विचारधाराएँ और मान्यताएँ हैं और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि दोनों देशों में मेधावी और परिश्रमी मानव संसाधन के समृद्ध स्रोत हैं। लेकिन यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि ऐसा क्यों है कि भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) 500 अमेरिकी डॉलर है जबकि अमेरिका का करीब 40,000 डॉलर1? कुछ समय पूर्व भारत की स्थिति भी चीन के समान ही थी। लेकिन पिछले ६७ वर्षों में इन सभी देशों ने भारत को पीछे धकेल दिया है। यह स्वीकृत करने में परेशानी नहीं होनी चाहिए कि जब भी किसी देश में किसी विशेष वर्ग को हाशिये पर रखा गया है उस देश की आर्थिक व्यवस्था उतनी ही कमजोर हुई है। ऐसा बुद्धिजीवियों और राजनीतिज्ञों और नीति निर्धारकों का मानना है कि भारत 2020 में विकसित देश बन जाएगा। आंकड़ों के अनुसार बताया जाता है कि हम 10 पर्सेंट की ग्रोथ रेट हासिल कर लेंगे और चीन को पीछे छोड़ देंगे और जिससे देश में प्रति व्यक्ति आय बढ़कर दोगुनी हो जाएगी। मगर दूसरी तरफ यूएनडीपी की रिपोर्ट के अनुसार भारत में सबसे अधिक गरीब लोग रहते हैं। देश में कुल गरीबों की संख्या 42 करोड़ है, जो 26 अफ्रीकी देशों के गरीबों से एक करोड़ ज़्यादा है। यूएनडीपी की ह्यूमन डिवेलपमेंट रिपोर्ट के ताज़ा संस्करण में कहा गया है कि भारत के बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और राजस्थान में सबसे ज्यादा गरीबी है। उदाहरण के तौर पर 2009-10 के आधार पर 50 फीसदी कृषि मजदूर गरीबी रेखा से नीचे थे। 42 फीसदी अनुसूचित जाति और 47 फीसदी अनुसूचित जनजाति के लोग भी गरीबी रेखा से नीचे थे।

अगर विश्लेषण किया जाये तो यह सर्वविदित है कि भारत के शासन, प्रशासन, कार्मिक मंत्रालयों और विभागों पर उच्च वर्गों का ही प्रभुत्व रहा है लेकिन फिर भी हमारा देश गरीबी समस्या और जाति के अभिशाप से क्यों पीड़ित है? लेकिन इसका उत्तर सभी के पास है। अगर देश का विकास करना है तो दलित वर्ग को समानता का अधिकार देना ही होगा जिससे हज़ारों वर्षों से बहिष्कृत समाज देश की मुख्य धारा से जुड़कर जन कल्याण के कार्यों में अपना योगदान दे सकें। राज्य सरकार और केंद्र सरकार दलित वर्ग के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए विभिन्न सरकारी योजनाए क्रियान्वित कर रही है। चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के कुलपति वीसी गोयल ने एक सेमिनार में कहा कि नक्सलवाद के पीछे भी गरीबी, अशिक्षा और विकास की कमी है,2 जैसे विभिन्न प्रकार के कारण ज़िम्मेदार है। समापन सत्र के मुख्य वक्ता गोरखपुर विवि के डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि भारत जैसा देश, जहाँ विभिन्न समुदाय, वर्ग एवं अनेक धरमाओं के लोग निवास करते हों, वहाँ सबके साथ समानता का व्यवहार आत्मसात करके समस्याओं का निराकरण किया जा सकता है।

वी.सी. गोयल के अनुसार नक्सलवाद के पीछे गरीबी, अशिक्षा और विकास की कमी को ज़िम्मेदार मानते हैं लेकिन नक्सलवाद जो शब्द है वो तिरस्कार और कुचलन की ओर इंगित करता है। नक्सलवाद के लिए ज़िम्मेदार है मनुवादि सोच, जाति और असमानता। बुद्धिजीवी वर्ग भी वास्तविक तथ्यों की ओर संकेत क्यों नहीं करता है। यह कहने में किसी प्रमाण की ज़रूरत नहीं है कि बुद्धिजीवी खेमे में भी आमूल चूल परिवर्तन आया है। कुछ शिक्षाविद, राजनीतिज्ञ और नौकरशाह सर्व समाज के समुचित विकास के पहलुओं पर विचार विमर्श करते हैं लेकिन यहाँ ध्यान देने की आवश्यकता है कि हज़ारों वर्षो से वंचित वर्ग (दलित समाज) पर कि कैसे देश की मुख्यधारा से दलित समाज को जोड़ सकें? भारतीय राजनीतिज्ञों को सर्वप्रथम दलित समाज पर ध्यान देने की ओर ज़रूरत है क्योंकि इतिहास यह प्रमाणित करता है कि देश के आर्थिक विकास में दलित वर्ग ने महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई है।3

दलितों की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करने वाले कारक

दलित वर्ग का हज़ारों वर्षों से मनुवादि सोच के आधार पर दमन किया जाता रहा है चाहे वो बथानी टोला हत्याकांड हो, खैरलांजी हत्याकांड हो और चाहे मिर्चपुर हत्याकांड हो। दलित समाज के सामाजिक और आर्थिक विकास के मार्ग में विभिन्न बाधक तत्व हैं जिसके कारण दलित वर्ग पूर्ण रूप से विकास नहीं कर पाया है। दलित वर्ग के सामाजिक और आर्थिक जीवन को गरीबी, जाति क्षेत्रवाद, धर्म, भ्रष्टाचार, महंगाई, कुपोषण, अशिक्षा, जनसंख्या, प्राकृतिक आपदाय आदि मुख्य कारक प्रभावित कर रहे हैं। भूमंडलीकरण के युग में भी दलित वर्ग के विकास में गरीबी एक प्रमुख समस्या बनी हुई है। केंद्र सरकार और राज्य सरकार दलित वर्ग का विकास के लिए विभिन्न सरकारी योजनाएँ क्रियान्वित कर रही हैं लेकिन दलित समाज की आर्थिक दशा में आमूल चूल परिवर्तन ही दृष्टिगोचर होता है क्योंकि दलित समाज का भूमि और उत्पादन के संसाधनों पर एकाधिकार नहीं रहा है।

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहाकार परिषद् के अध्यक्ष सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति ने रिपोर्ट तैयार की, इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में 37.2%4 लोग गरीब हैं। यह आंकड़ा 2004-05 में किये गए 27.5% के सर्वेक्षण से करीब 10 फीसदी अधिक5 हैं। इसका मतलब है कि पिछले 11 वर्षो में अतिरिक्त 11 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। एक तरफ गरीबों की संख्या में इजाफा हो रहा है और दूसरी तरफ अरबपतियों की बढ़ती आर्थिक विषमता को दर्शाता है। उदाहरण के तौर पर भारत के तीस धनी परिवारों की संपत्ति भारत की सम्पदा की एक तिहाई है।

कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ चुनिंदा लोग बढ़ती अमीरी की गरीबी का कुरूप चेहरा छिपा लेते है। ऐसा प्रतीत होता है कि यदि अगर ये तीस परिवार अमेरिका और यूरोप की नागरिकता ग्रहण कर लें तो भारत की 7.9% विकास दर घटकर 6% रह जाएगी। योजना आयोग ने गरीबी को दूर करने के लिए एक नयी पद्धति प्रचलित की इसमें जीवनयापन से संबन्धित वस्तुओं को शामिल किया गया, जिसमें भोजन, ईंधन, बिजली, कपड़े और जूते शामिल हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि तेंदुलकर समिति ने बताया है कि 41.8% आबादी यानि करीब 45 करोड़ लोग प्रति माह प्रति व्यक्ति 447 रुपये पर गुज़ारा कर रहे हैं लेकिन मासिक आय के अलावा गरीबी अनुमान में मानव विकास सूचकांक को भी शामिल किया जाना चाहिए, जो संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने तैयार किया है। गरीबी के आकलन में स्वास्थ्य, शिक्षा के साथ-साथ पानी और शौचालय की उपलब्धता को भी शामिल किया जाना चाहिए।

दलित समाज के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए भारत सरकार विभिन्न प्रकार की सरकारी योजनाएँ चला रही हैं लेकिन भ्रष्टाचार के कारण सरकारी योजनाएँ भी असफल साबित हो रही हैं गरीबी को बढ़ाने में भष्टाचार का भी मुख्य योगदान रहा है। गरीब दलित वर्ग के बच्चों को शिक्षा और पोषाहार देने के लिए सरकार आंगनबाड़ी कार्यक्रम चला रही है मगर इसमें भी भ्रष्टाचार दिखाई पड़ता है। दलित समाज के बच्चों के पोषाहार को बेच दिया जाता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि भ्रष्टाचार प्रत्येक युग और समय में विद्यमान रहा है लेकिन वर्तमान में प्रत्येक कार्य बिना भ्रष्टाचार के नहीं हो रहा है। अगर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सरकारी विभागों के कार्यकलाप देखें जायें तो यह सत्य है कि पुलिस विभाग से लेकर न्यायपालिका में भी पारदर्शिता का अभाव दिखाई पड़ता है, तो ऐसे में दलित समाज को कैसे सामाजिक समता और न्याय मिल सकता है? वर्तमान में गरीबी चरम सीमा पर पहुँच गई है जिसके उत्थान में भ्रष्टाचार का महत्वपूर्ण योगदान है।

भारत में वर्ष 2010 में यूपीए की सरकार के दौरान कॉमनवेल्थ घोटाला, टूजीस्केम घोटाला, कोलस्केम आदि घटनाएँ दर्शाती है कि भूमंडलीकरण के युग में भी भ्रष्टाचार एक विकराल चुनौती बना हुआ है और यही कारण है कि दलित समाज आज भी हाशिये पर है। दलित वर्ग के बच्चों के लिए स्कूलों और कालेजों में छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की गयी है लेकिन यहाँ पारदर्शिता के अभाव के कारण दलित समाज सरकारी सहायता पाने में भी नाकामयाब ही दिखाई पड़ता है। दलित समाज के विकास में बालश्रम भी प्रमुख समस्या निहित है। दलित समाज में आज भी आर्थिक रूप से सशक्त नहीं है इसीलिए उनके बच्चे शिक्षा के स्थान पर मजदूरी करनी शुरू कर देते हैं। महंगाई इतनी बढ़ गई है कि दलित जीवनयापन करने में असहज दिखाई पड़ते हैं क्योंकि बहुसंख्यक दलित भूमिहीन है। देश में दलित समाज के लाखों बच्चे ऐसे हैं जो उचित व्यवस्था के अभाव में मानसिक शारीरिक शोषण का शिकार हो रहे हैं। ऐसा नहीं है कि देश में बाल अधिकारों की रक्षा से जुड़े कानून नहीं है लेकिन वे बाल अधिकारों को सुरक्षा नहीं दे पा रहे हैं क्योंकि सरकारी संस्थाएँ और गैर सरकारी संस्थाएँ ईमानदारी के साथ काम नहीं कर रही हैं और इस समस्या को समाप्त करने के लिए भारत के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी भागीदारी निभानी होगी। बालश्रम को समाप्त करने के लिए पूरी ईमानदारी के साथ लोगों को जागरूक करना होगा। हमें हर बच्चे को शिक्षा देने के लिए ज़ोर देना होगा।

दलित समाज में अभिशप्त भुखमरी एवं गरीबी के लिए अशिक्षा भी एक प्रमुख कारक है। यह सत्य है कि अशिक्षा के कारण दलित वर्ग परिवार नियोजन नहीं कर सकता। जिसके आय के प्रतिकूल बच्चे होंगे वो अपने बच्चों को कैसे पढ़ाएगा और क्या खिलायेगा? सरकार को परिवार नियोजन के महत्व को जनसम्पर्क, रैली और विज्ञापनों के द्वारा समझाना चाहिए। अगर दलित समाज की आर्थिक दशा स्वस्थ नहीं होगी तो वह देश के विकास में अपना योगदान नहीं दे सकेंगे। उदाहरण के तौर पर जिस तरह महात्मा गाँधी ने आन्दोलन चलाया था कि अंग्रेजी हुकुमत हटाओ ठीक उसी तर्ज पर आन्दोलन चलाना चाहिए और इसमें ‘दलितों की गरीबी और अशिक्षा हटाओ’ का नारा बुलंद किया जाना चाहिए। गाँधीजी ने कहा था कि राजनीतिक आज़ादी तो मिल गई है मगर आर्थिक आज़ादी नहीं मिली है। जिस तरह हमने अंग्रेज़ों को अपने देश से बाहर निकाला था उसी प्रकार गरीबी और अशिक्षा को भी दूर भगाना होगा तभी एक खुशहाल देश का सपना पूरा हो सकेगा। अंबेडकर द्वारा सुझाया गया तरीका ही सबसे उपयोगी है। ज़रूरत इस बात की है कि सभी राजनीतिक पार्टियाँ दलित समाज को सशक्त करने के लिए दलितों की सार्वभौमिक समस्याओं को अपना मुद्दा बनाएँ, जिससे दलित समाज को देश की मुख्यधारा से जोड़ा जा सके। भारतीय समाज में जाति व्यवस्था आज भी अपनी पकड़ बनाए हुए है। चुनावी सियासत 2014 के दौरान दलित वर्ग की अनदेखी की जा रही है। सभी राजनैतिक पार्टियाँ मुस्लिमों और पिछड़ों के धुर्विकरण और उनके विकास पर बल दे रही है दूसरी ओर दलितों वोट बैंक का दुरुपयोग किया जा रहा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि दलित समाज अपनी सामाजिक और आर्थिक दशा को उन्नत बनाने हेतु संघर्ष कर रहा है, लेकिन आज भी मनुवादि लोग उनकी बहन बेटियों की अस्मिता के साथ खेल रहे हैं। वर्तमान में भारत की जनसंख्या 1 अरब २५ करोड़ है जिसमें दलित समाज की जनसंख्या २५ करोड़ है। दलित समाज को मनुवादि शक्तियों से सावधान रहना होगा और प्रयास करना होगा शिक्षा को अपना हथियार बनाकर वंचित समाज के समाज के कार्यों और उद्देश्यों को पूरा करने में अपना योगदान दे सकें। दलित समाज को उनके गुरुमंत्रों को अपने जीवन में उतारना ही होगा जिससे दलित समाज समाज में सामाजिक समानता प्राप्त करने और देश के जनकल्याण के कार्यों में अपना योगदान दे सकें।

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवेचनों के आधार पर यह विदित होता है कि दलित समाज वर्तमान में भी अपने अधिकारों से वंचित है क्योंकि दलित समुदाय पूर्ण रूप से शिक्षा पर अपनी पकड़ नहीं बना पाया है। शिक्षा सर्व समाज के विकास की कुंजी है इसीलिए डॉ. अंबेडकर ने दलितों को शिक्षित बनो, संघर्ष करो और संगठित रहो का गुरुमंत्र दिया। दलित समाज गुरु मंत्र को अपनाने में नाकामयाब नज़र आता है। दलितों की दशा और दिशा में परिवर्तन अवश्य हुआ है, दलित समुदाय के लोग आज उच्च पदों पर आसीन हैं। लेकिन फिर भी दलित समाज सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ है। बाबा साहेब अंबेडकर के सपने को साकार करने में दलित समाज हर क्षेत्र में पकड़ बनाने के लिए प्रयास कर रहा है। यह दुर्भाग्य है इस देश का कि आज़ादी के ६७ वर्षों के पश्चात भी वर्ग को शोषण और हत्याकांडों की घटनाओं से प्रतिदिन गुज़रना पड़ता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि दलित समाज को सामाजिक समानता दिलाने में सभी वर्ग के लोगों को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होगी और भारत सरकार को भी दलित समाज के लोगों का विकास करने के लिए नई नीतियाँ बनानी होंगी, जिससे दलित समाज देश के विकास में ईमानदारी के साथ अपना योगदान दे सकें।

नानक चन्द (शोधार्थी),
इतिहास और सभ्यता विभाग,
मानविकी और सामाजिक विज्ञान संकाय,
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय,
ग्रेटर नोएडा, उत्तर प्रदेश
मो॰- 9717186209
nanak.chand85@gmail.com

संदर्भ सूची

1. www.azadi.me
2. गरीबी और अशिक्षा सबसे बड़ी चुनौती, जागरण जोश, २३ अप्रैल, २०१२
3. शर्मा, रामनाथ, भारत में सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक समस्याएँ, नई दिल्ली: एटलांटिक प्रकाशक, १९९६
4. राम लखन मीणा, गरीबी एक अभिशाप है, नवभारत टाइम्स, ८ अप्रैल, २०११
5. Ibid, p-१

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