वह (डॉ. आरती स्मित)
काव्य साहित्य | कविता डॉ. आरती स्मित15 Jun 2020
जब भी अवसर पाती है
वह बाँहें फैलाती है
भर लेती हैं अनंतता
आग़ोश में
घुल जाती हैं असीम में
समस्त राग-रंगों समेत
और
छिटक आती हैं इंद्रधनुषी आयाम लिए
धरती पर
प्रकृति बनकर!
कभी लतिका तो कभी
बनबेल-सी सरसराती
बढ़ जाती है बिना खाद-पानी के
कभी झील तो कभी नदी-सी
खिलखिलाती
शिलाओं पर विजय पाती
बढ़ती जाती है
यह बढ़त यह विस्तार
असीम में घुलकर असीम हो जाने
और
समो लेने अनंतता को
और रच देने को संसार
वह अवतरित है
असंख्य योनियों में
स्त्री बनकर!
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