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वैदिक साहित्य में तीर्थ भावना का उद्भव एवं विकास

ऋग्वेद तथा अन्य वैदिक संहिताओं के अनेक मंत्रों में तीर्थ शब्द का प्रयोग मिलता है।1 समुद्र या नदियों के अवतरण स्थान, घाट, यज्ञ-स्थल तथा यज्ञ-मार्ग तीर्थ कहलाते थे। इन तीर्थों के द्वारा यात्री एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते थे। तत्पश्चात आध्यात्मिक शुद्धि का स्थान जिसके द्वारा मनुष्य पापादि से मुक्त हो जाए अथवा संसार सागर से पार उतर जाए उसे तीर्थ कहा जाने लगा। तीर्थों के रूप में पवित्र जलीय स्थानों को ही अधिक महत्व दिया गया है। उत्तरकालीन वैदिक मंत्रों में भी इस परिवर्तित अर्थ का आभास मिलने लगता है। वर्तमान काल में यह देखा जाता है की विभिन्न संप्रदायों के लोग तीर्थों के जल को शीशी बोतल या किसी पात्र में भर कर लाते हैं और अपने घरों तथा मित्रों के यहाँ वितरण करते हैं। मुस्लिम यात्री जब हज्ज-यात्रा से लौटते हैं तो वे भी (आबे जम-जम) एक विशेष कूप का जल लाकर अपने भाई बंधुओं में उसे बाँटते हैं और बड़ी श्रद्धा से उसे पीते हैं। कुछ लोग तीर्थों का जल घरों, दुकानों तथा रोगियों के शरीर पर भी छिड़कते हैं।

पाप से बीमारी उत्पन्न होने की भावना भी संसार की विभिन्न जातियों में प्रचलित हैं कुछ कुएँ या स्रोतों के जल बीमारियों को हरण करने वाले प्रसिद्ध हैं। उदाहरणार्थ- वाराणसी में कीनाराम बावली, वृद्धकालकूप, लोलार्ककुण्ड, औघड़नाथकूप इत्यादि प्रसिद्ध हैं। कीनाराम बावली में स्नान कराने से बच्चों को सुखंडी रोग, वृद्धकालकूप का जल पीने से ज्वर तथा क्षयरोग इत्यादि, वृद्धकाल के अमृतकुंड में स्नान करने से कुष्ट रोग, लोलार्क कुण्ड में स्नान करने से स्त्रियों का बंध्यापन तथा औघड़नाथ कूप का जल पीने से क्षय तथ ज्वर रोग दूर हो जाने की प्रसिद्धि है। आदिकालीन मनुष्यों  में जल के द्वारा शरीर तथा वस्त्र की शुद्धि की भावना की नींव पड़ी। जिन-जिन ग्रन्थों में तीर्थ यात्राओं का वर्णन मिलता है वहाँ तीर्थों में जाना, उपवास करना, संयम से रहना तो बताया ही है, किन्तु स्नान को ही मुख्यता प्रदान की गयी है, अर्थात जल में दैविक शक्ति की भावना का ही समर्थन किया गया है। यहाँ तक कि दक्षिण भारत में यात्री मंदिरों में हथेली फैलाकर तीर्थ कहकर पवित्र जल माँगते हैं।

जल सम्बन्धी विविध भावनाएँ –

इसी प्रकार की जल सम्बन्धी अनेक भावनाएँ प्राचीन समय से ही चली आ रही हैं। दक्षिण अफ्रीका के मतबील लोग नए फल खाने के पहले किसी नदी मे स्नान करते थे। स्कीमों जाति के लोग भोजन परिवर्तन से पहले किसी नदी में स्नान करते थे। निवगिनी तथा भारत में योद्धाओं को घर लौटने के पहले स्नान करना आवश्यक था। जानवरों को बलि देने वाले तथा वध करने वालों को भी स्नान करना पड़ता था।2

अलौकिक शक्ति प्राप्ति के साधन में जल का प्रयोग प्राचीन तथा आधुनिक सभ्यताओं में भी अभी तक प्रचलित है। उदाहरणार्थ वेबिलोनियाँ तथा कुछ अन्य देशों में बीमारों पर मंत्र पढ़ कर जल छिड़कते थे।3 अभी तक अनेक धर्मों में जन्म, राजगद्दी, विवाह, यज्ञ, मृत्यु इत्यादि में भी स्नान करना आवश्यक माना जाता है।

उपर्युक्त देशों के आदिकालीन मनुष्यों के समान ऋग्वैदिक भारतीय जनता में भी जल के प्रति उपर्युक्त विशेष भावनाएँ थीं। जल केवल शारीरिक शुद्धि का साधन हीं नहीं था, अपितु सभी पापों से मुक्ति दिलाने का साधन था। जैसे कि “ता आपो देवीरिहु मामवन्तु”4 इस मंत्र का अर्थ है कि जल देवता मेरी रक्षा करें।

ऋ॰ ७/८९/६ में जल से पाप दूर करने के लिए प्रार्थना कि गयी है। पाप को बीमारी के समान शारीरिक प्रभाव वाला माना गया है। “अप्स्वंतरमृतमप्सु भेषजमापामुत प्रशस्तये देवा भवत वाजीनः5 । अप्सु मे सोमो अब्रविदंतर्विश्वानि भेषजा।6 आपः पृणीत  आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे मम ज्योक्च सूर्यं दृशे”।7इन तीन मंत्रों में जल में रोग निवारक भेषज का वर्णन मिलता है। ऋ॰ १०/३० में भी जल से प्रार्थना की गई है कि जल देवता सभी पापों से छुटकारा दिलावें तथा सही मार्ग प्रशस्त करें। अधोलिखित दोनों मंत्रों का भी यही आशय है :-

इदमाप प्रवहत यत्किं च दुरितं मयि।
यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वाशेप उतानृतम॥8 
इदमापप्रवहतावद्यं मलं यच्चाभिदुद्रोहानृतं यच्चाभीरूणम।
आपो मा तस्मादेनसः पवमानश्च मुंचतु॥9 
हिरण्यवर्णा: शुचय: पावकायासु जात: सविता या स्वग्नि:। 
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णस्ता न आपः शंस्योना भवन्तु ॥10

इस मंत्र में भी जल के प्रति उपर्युक्त गुणों का समर्थन किया गया है तथा जल से प्रार्थना कि गयी है कि वह प्रसन्नता प्रदान करें।

जल में देवताओं का वास –

जल में देवताओं के वास का विश्वास विभिन्न प्राचीन सभ्यताओं में पाया जाता है। प्राचीन काल में ट्रोजन लोग पवित्र नदी स्कैमेन्ड्रोस में मना का वास मानते थे और बलि के रूप में जीवित सांड तथा घोड़ों को नदी कि गहराई में फेंक देते थे। कालांतर में जब वे कुछ सभ्य हुए तो उन्होने देव मंदिर तथा बलिवेदी का निर्माण किया जिसपर सांड की बलि देते थे। बेविलोनिया वासियों ने सृष्टि को तीन भागों में बांटा था – आकाश, पृथ्वी तथा समुद्र। उनके प्रतीक क्रम से अनु, इनलिड तथा इया थे, किन्तु समुद्र के देवत्व की भावना को प्रधानता देते थे, क्योंकि समुद्र के जल से सभी वस्तुओं की उत्पत्ति हुई है ऐसा वह समझते थे। उनके मस्तिष्क में इयूफ़्रेटीज़, टाइस्रिस तथा ईरान की खाड़ी की रहस्यमय शक्ति की भावना व्याप्त थी, इसलिए उनकी पूजा करते थे। ‘इया’ का अर्थ जलभवन होता है। वर्षा के देवता भिन्न थे। अरब तथा फारस में तो यह भावना ११वीं शताब्दी तक पायी जाती है। अरब तथा फारस के लोगों को भारत के व्यापार का एकाधिपत्य था, इसलिए मुस्लिम संत समुद्र के रक्षक पुकारे जाने लगे। उनमें से एक ख्वाजा खिदिर जिलानी (१०७८-११६६) का शासन अरब सागर पर था तथा मामा सलमा का ईरान की खाड़ी पर। यूनानी लोग भी जल से सृष्टि मानते हैं। वे जल देवता को ‘नू’ की संज्ञा देते हैं। सुमेरिया में लगभग ढाई हजार वर्ष ईस्वी पूर्व अनु (आकाशदेवता), अनिल (प्रभजन), निनमह (धरतीमाता), तथा एँकी (जलदेवी) मानी जाती थी। जल से पिता आकाश और माता पृथ्वी की उत्पत्ति मानते थे। कृषि प्रधान देश मिश्र, वेविलोन, यूनान तथा भारत इत्यादि खेती के लिए जल की आवश्यकता के कारण जल देवता में अटूट विश्वास रखते थे। मिश्र में नील, रोम में टाइबर, भारत में गंगा तथा अन्य देशों की नदियों में भी प्राणदान, पशुबलि तथा नरबलि देने की प्रथा थी।

 ऋ॰ १०/९ में जल की महिमा का वर्णन किया गया हाई तथा उसमें देवता का वास माना गया है। जल दीर्घजीवन, औषधि तथा अमरत्व प्रदान करता है। ''आपो वै सर्वा देवता:'' के अनुसार सभी देवता जल में केन्द्रित हैं।

उपनिषदों में जल के आध्यात्मिक स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। पंचतत्वों में जल को ही सृष्टि का जन्मदाता माना गया है। सृष्टि के आरंभ में सर्वत्र जल ही जल होने की कल्पना वैदिक साहित्य में भी प्राप्य है।

नदी देवता –

ऋग्वेद के एक सूक्त में नदी देवता सिंधु की देवी रूप में प्रशंसा की गई है। दूसरे में विपाशा और शुतुद्री की प्रशंसा की गई है। सरस्वती का तो अनेक स्थलों पर गुणगान पाया जाता है। ऋग्वेद में देवी की भावना की प्रचुरता का नदियों से अविराम संबंध मिलता है। ऋग्वेद में लगभग २० नदियों की प्रार्थना की गई है।11 ऋग्वेद १०/६४/०९ में तीन बड़ी नदियाँ- सरस्वती, सरयू तथा सिंधु के लिए देवी रूप में माता के समान श्रद्धा प्रगट की गई है। ऋग्वेद में ‘सप्त सिंधवः’ का वर्णन अनेक स्थलों पर मिलता है।12

ऋग्वेद में सरस्वती नदी में देवत्व की भावना मुख्यतः तीन सूक्तों में मिलती है।13 ऋग्वेद में सरस्वती असुर्या (देवता-मूलवाली) कही गई है।14 दृषद्वती, आपया, तथा सरस्वती पर यज्ञ होते थे।15सरस्वती नदियों तथा दैवियों में सबसे बढ़कर कही गई है।16 अभी भी नम्नलिखित मंत्र स्नान करते समय पढ़ा जाता है –

इमं मे गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्री स्तोमं सचता परूष्ण्या।
असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयाजीकीये शृणुह्या सुषोमया॥ (ऋ॰ १०/७५/०५)

ऋग्वेद में इन्द्र से प्रार्थना की गई है की तुम्हारी आज्ञा से गंगा आदि जलरूप सात नदी देवता अत्यंत आनंद से पृथ्वी पर बहती हैं। असुरों (मेघों) के शरीर का भेदन करने वाले इन्द्र तुमने ही नदियों से समुद्र को बढ़ाया है :-

सप्तापो देवी: सुरणा अमृता। याभि: सिंधुमतर इन्द्र पूर्भित॥17 
अपां नपात सिंधव: सप्त पातन पातु नौ विष्णुरूत द्यौ:।18

ऋग्वेद में एक अरण्यानी (महाबन) की भी देवता रूप में प्रार्थना की गई है। ऋग्वेद तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में भी सरस्वती वाणी की देवी तथा विद्या-बुद्धि की देवी कही गई है।

आदिकालीन तीर्थ भावना –

वैबिलोनिया में प्राचीन समय से ही तीर्थयात्रा होती थी। देवताओं को जनता के दर्शनार्थ घूमाते थे। यह यात्रा नियत समय पर ही नदियों के मुहाने तक होती थी। केल्टिक मंदिरों की यात्राएँ इग्लैंड में ईशा के पूर्व से ही होती थीं। कैंटरबरी के महात्माओं (सेंट्स) की भी यात्राएँ होती थीं। आयरलैंड में पहाड़ियाँ, कूप, नदियां तथा सोतियां देवता प्रेत अथवा पारियों से देवत्वमय माने जाते थे। सेंट पैट्रिक के मंदिर में दर्शनार्थ जाते थे। ३०० ई॰ पूर्व से ही यरूशलम की यात्रा प्रसिद्ध थी। पूर्वजों से संबद्ध स्थान का प्रभाव व्यक्ति पर पड़ता है; ऐसा ईशाई लोग मानते हैं। हिब्रू तथा जैविश चैत्यों की तथा खुर्दिस्तान, मैसोपोटामिया, अल्जीरिया तथा मोरक्को के स्मारकों की यात्राएँ भी होती थीं। हिब्रू तथा यहूदी लोगों में भी उनके सेमईटिक जीवनकाल में तीर्थ-यात्रा की भावना का उद्भव प सकते हैं। आदिकाल में वे देवता को एक स्थानीय मानकर यात्रा करते थे। यूनान में सबसे प्रसिद्ध तीर्थ एकोपोलिस एथिअस पर था जहाँ प्रतिमास शहद रोटी पहुंचाते थे। तत्पश्चात मुसलमानों ने भी ईशाइयों के कुछ तीर्थ-स्थानों की यात्रा की तथा सम्पूर्ण एशिया में बौद्ध तीर्थ-यात्री तीर्थ-यात्रा करते रहे।19 शुक्लयजुर्वेद में रूद्र से प्रार्थना की गई है की जो अपने हाथों में तलवार और पिनाक धनुष धारण करते हैं और तीर्थों में भ्रमण करते हैं वे रूद्र हम पर अनुकूल रहें –

ये तीर्थानि प्रचरंती सृकाहस्ता निषंगिण:।
तेषां सहस्र योजने अवधन्वानि तन्मसि॥20

शुक्लयजुर्वेद में “नमस्तीर्थ्याय च कूल्याय च नमः”21 तीर्थ के संबंध में आया है। अथर्ववेद में यह प्रतिपादित किया गया है की जिस प्रकार यज्ञ करने वाले यजमान यज्ञादि द्वारा बड़ी-बड़ी आपत्तियों से मुक्त होकर पुण्य लोक की प्राप्ति करते हैं, इसी प्रकार तीर्थयात्री तीर्थादि द्वारा बड़े-बड़े भयंकर पापों और आपत्तियों से मुक्त होकर पुण्यलोक की प्राप्ति करते हैं –

तीर्थैस्तरन्ति प्रवतो महीरिति, यज्ञकृत: सुकृतो येन यंति।
अत्रादधुर्य: यजमानाय लोक, दिशौ भूतानि यदकल्पयंत॥22

महाभारत और पुराणों में भी यही भावना थोड़ी विकसित अवस्था में पहुँचती है तथा यज्ञों के स्थान पर तीर्थ संस्था की स्थापना में कुछ संदेह नहीं रह जाता। फल प्राप्ति में तो तीर्थ-फल को यज्ञों के फल से भी बढ़कर कहा गया है। ऋग्वेद खिलसूक्त में भी कुछ उदाहरण इसके संदर्भ में दिये गए हैं –

यत्र गंगा च यमुना च यत्र प्राची सरस्वती।
यत्र सोमेश्वरो देवस्तत्र माममृतं कृधिंद्रायेन्दो परिश्रव॥

हे! सोम जहाँ गंगा, यमुना तथा पूर्व दिशा की सरस्वती हैं और जहाँ सोमेश्वर देव हैं वहाँ तुम मुझे अमृत प्रदान करो।

सितासिते यत्र संगथे तत्राप्लुतासो दिवमुत्पतंति।
ये वै तन्वं विसृजन्ति धारास्ते जनासो अमृतत्वं भजन्ते॥23

जिस तीर्थ में गंगा और यमुना इन दोनों नदियों का संगम हुआ है, उसमें स्नान करने वाले प्राणी स्वर्ग को प्राप्त करते हैं और जो वहाँ शरीर का त्याग करते हैं वे अमृतत्व अर्थात मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि गंगा-यमुना-संगम कितना प्राचीन तीर्थ है। महाभारत और पुराणों में इसी भावना का विकास मिलता है।

ब्राह्मण ग्रन्थों में यज्ञ के लिए तीर्थ-यात्रा होने का स्पष्ट वर्णन प्राप्त होता है। यज्ञों के बाद नदियों में अवभृत स्नान भी होते थे। शतपथ ब्राह्मण १३/०५/०४/११ तथा एतरेय ब्राह्मण ०३/०९/०९ में दुष्यंत-पुत्र भरत की विजय तथा यज्ञ गंगा-यमुना पर वर्णित है।24

धर्मसूत्रों से भी पता चलता है की उत्तर वैदिक काल में भी यज्ञ, तप, जप, स्नान, श्राद्ध, तर्पण, दान, शुद्धि, प्रायश्चित्त इत्यादि कर्मकाण्डों के लिए भी तीर्थस्थानों को ही महत्व दिया गया। अभी तक स्मृतियों में भी यही भावना चली आ रही है। यज्ञ-कर्मकांड में वैदिककाल से ही दान का महत्व चला आ रहा है। तीर्थों में स्नान और दान करने के मूल में तीर्थों के याज्ञिक कर्मकाण्ड हीं हो सकते हैं।

शतपथ ब्राह्मण में पंच-महायज्ञ का विधान है। तीर्थों में तर्पण और श्राद्ध का मूल भी पितृ-महायज्ञ के विधान में ही पाया जाता है।

इस प्रकार यह प्रतिपादित होता है की संसार की आदिकालीन तथा वैदिककालीन भारतीय संस्कृति में तीर्थ के तत्व तथा तीर्थ-यात्रा के विविध अवसर उपस्थित था।

संदर्भ :

1.  ऋ॰ ८/४७/११ (तीर्थ=घाट), १/४६/८ (तीर्थ=घाट), १/१७३/११ (तीर्थ=यज्ञस्थल),१/१६९/६ (तीर्थ=यज्ञमार्ग), ८/७२/७ (स्वरे तीर्थे=घाट जहां मंत्र उच्चरित होते हों), १०/३१/३ (नदी=तट), ९/९७/५३ (यज्ञ), १०/११४/७८ (यज्ञस्थल), अथर्ववेद १८/४/७, यजुर्वेद ३०/१६, तैतिरीय ब्राह्मण ३/४/१/१२ 
2. इंक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स (वाटर)
3.  इंक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स (वाटर)
4.  ऋ॰ ७/४९/४ 
5.  ऋ॰ १/२३/१९
6.  ऋ॰ १/२३/२०
7.  ऋ॰ १/२३/२१
8.  ऋ॰ १०/९/८
9.  शु॰ य॰ ६/१७ 
10. अथर्व॰ १/३३/१/
11. ऋ॰ ०४/५२/१७, ऋ॰ १०/६४/०९, ऋ॰ १०/७५/०५-०६
12. ऋ॰ ०१/३२/१२, ऋ॰ ०१/३४/०८, ऋ॰ ०१/३५/०८, ऋ॰ ०२/१२/१२, ऋ॰ ०४/२८/०१, ऋ॰    ०८/२४/२७, ऋ॰ १०/४३/०३ 
13. ऋ॰ ०६/६१, ऋ॰ ०७/९५, ऋ॰ ०७/९६ 
14. ऋ॰ ०७/९६/०१
15. नित्वा दधे वर आ पृथिव्या इक्तायास्पदे सुदिनत्वे अहवाम।
 दृषद्वत्याम मानुष आपयायाम सरस्वत्याम रेवदग्ने दिदीहि॥ ऋ॰०३/२३/०४ 
16. अम्बितमे नदितमे देवितमे सरस्वती। ऋ॰ ०२/४९/१६
17. ऋ॰ १०/१०४/०८
18. अथर्व॰ ०६/०२/०१
19. इनसाइक्लोपीडिया (होली प्लेसेज तथा पिलिग्रिमेज)
20. शु॰ य॰ वे॰ १६/६१
21. शु॰ य॰ वे॰ १६/४२
22. अथर्व॰ १८/०४/०७
23. ऋ॰ खिलसुक्त १४/०१
24. पंचिका ०८ मंत्र २३ (एतरेय ब्राह्मण)

रामकेश्वर तिवारी
वरिष्ठ अनुसंधाता, व्याकरण विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी

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