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वसन्त के तीन रूप

1.
प्रकृति को सजाने को
देखो बसंत आया है
हाथों में शृंगारदान लाया है
मल मल बना दी स्वर्णिम काया
लाल पीले फूलों से है फिर सजाना
प्रकृति को प्यार देने
देखो बसंत आया है
इत्रों की सौगात लाया है
बौरों और फूलों से सजाया है तन
मदमाती गंध से उकसाया है मन
प्रकृति का सर देने
देखो बसंत आया है
पतझड़ का उदहारण लाया है
मृत्यु का उत्सव नवजीवन का स्वागत
ज़िंदगी का है सच ज़िंदगी का है सच

2.
धरती तैयार है
आसमान को छूने
शहरी हवाओं में
हाय रे, समय तूने क्या काम किया
सबने मुँह फेर लिया
जंगल बन गए मैदान
निजता को सरे आम किया
नदियों को भी ज्ञान दिया
गरीब अमीर का विवेक भर दिया
सुख गई वो अब गरीबों के घर पास
सूरज का भी कान भर दिया
क्रोधित रहता हम पर
तप तप जब तब क्रोधित होता
पहाड़ो तुम भी हटते जा रहे हो
तुम तो स्थिर कहलाते थे
कैसे तुम घुलते जाते हो

3.
कहाँ गुम हो गए हो बसंत
छोड़ चुके हो पहाड़ों ओर जंगलों को
स्थायी हो गए हो बड़े बड़े बंगलों में
अब तो शीताको में ही साँस लेते हो
तुम तो सबके थे
अब तो महलों में ही रहते हो
सूरज की तरह सबके बनो
जरा धुप में भी तो आओ
आओ धरती की भी तो सुनो
तितलियों यहाँ भी महक है
फूल नहीं हुए तो क्या हुआ
मेहनत की चमक है
पसीने का पानी है
पसीने की गमक है

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