अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

वे नहीं करते हैं बहस


___________________

वे नहीं करते हैं बहस जलमग्न धरती
और धरती पुत्र की डूबती उन उम्मीदों पर 
जिनके डूबने से डूब उठती है धीरे-धीरे
उनके अन्तर की बची-खुची जिजीविषा
 
वे नहीं करते हैं बहस जब न जाने कितने 
धरती पुत्र अपने ख़ून-पसीने से अभिसिंचित फ़सल
बेचते हैं कौड़ियों के भाव
जिसको उगाने में डूब गए थे
गृहलक्ष्मी के गले और कानों में बची
उसके सौन्दर्य की आख़िरी निशानी
 
वे नहीं करते हैं बहस जब न जाने कितने अन्नदाता
कर्ज़ के चक्रव्यूह में फँस मौत को लगा लेते हैं गले
जिनके लिए सड़कें पंक्तिबद्ध होकर –
नहीं थामती हैं मोमबत्तियाँ
और चौराहे खड़े होकर –
नहीं रखते हैं दो मिनट का मौन
 
वे नहीं करते हैं बहस संसद से सड़क तक
तख्तियाँ थामे चीख़ते चिल्लाते उन हाथों पर
देश सेवा के लिए तत्पर उन कन्धों पर
जिन्हें ्ज़िम्मेदारियों के बोझ से नहीं
कुचल दिया जाता है सरे राह लाठियों के बोझ से
 
वे नहीं करते हैं बहस बर्फ़ के मुँह पर
कालिख मलती रात में ठिठुरते, हाथ फैलाए
उन फ़ुटपाथों की दुर्दशा पर
जिन्हें नहीं होती है मयस्सर
दो वक़्त की रोटी और ओढ़ने को एक कम्बल
 
वे नहीं करते हैं बहस अस्पताल के बिस्तर पर
घुट-घुटकर दम तोड़ती भविष्य की उन साँसों पर
जिन्हें ईश्वर नहीं
निगल जाती है व्यवस्था की बदहाली
वक़्त से ही पहले
 
वे नहीं करते हैं बहस कभी 
बदहाल और बदरंग दुनियाँ पर
आर्तनाद करते जनसामान्य की अन्तहीन वेदना पर
वे करते हैं बहस कि कैसे बचाई जा सके
सिर्फ़ और सिर्फ़ मुट्ठी भर रंगीन दुनियाँ।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं