वे नहीं करते हैं बहस
काव्य साहित्य | कविता अरविन्द यादव15 Dec 2020 (अंक: 171, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
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वे नहीं करते हैं बहस जलमग्न धरती
और धरती पुत्र की डूबती उन उम्मीदों पर
जिनके डूबने से डूब उठती है धीरे-धीरे
उनके अन्तर की बची-खुची जिजीविषा
वे नहीं करते हैं बहस जब न जाने कितने
धरती पुत्र अपने ख़ून-पसीने से अभिसिंचित फ़सल
बेचते हैं कौड़ियों के भाव
जिसको उगाने में डूब गए थे
गृहलक्ष्मी के गले और कानों में बची
उसके सौन्दर्य की आख़िरी निशानी
वे नहीं करते हैं बहस जब न जाने कितने अन्नदाता
कर्ज़ के चक्रव्यूह में फँस मौत को लगा लेते हैं गले
जिनके लिए सड़कें पंक्तिबद्ध होकर –
नहीं थामती हैं मोमबत्तियाँ
और चौराहे खड़े होकर –
नहीं रखते हैं दो मिनट का मौन
वे नहीं करते हैं बहस संसद से सड़क तक
तख्तियाँ थामे चीख़ते चिल्लाते उन हाथों पर
देश सेवा के लिए तत्पर उन कन्धों पर
जिन्हें ्ज़िम्मेदारियों के बोझ से नहीं
कुचल दिया जाता है सरे राह लाठियों के बोझ से
वे नहीं करते हैं बहस बर्फ़ के मुँह पर
कालिख मलती रात में ठिठुरते, हाथ फैलाए
उन फ़ुटपाथों की दुर्दशा पर
जिन्हें नहीं होती है मयस्सर
दो वक़्त की रोटी और ओढ़ने को एक कम्बल
वे नहीं करते हैं बहस अस्पताल के बिस्तर पर
घुट-घुटकर दम तोड़ती भविष्य की उन साँसों पर
जिन्हें ईश्वर नहीं
निगल जाती है व्यवस्था की बदहाली
वक़्त से ही पहले
वे नहीं करते हैं बहस कभी
बदहाल और बदरंग दुनियाँ पर
आर्तनाद करते जनसामान्य की अन्तहीन वेदना पर
वे करते हैं बहस कि कैसे बचाई जा सके
सिर्फ़ और सिर्फ़ मुट्ठी भर रंगीन दुनियाँ।
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