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वे रचनाकुमारी को नहीं जानते


पुस्तक: वे रचनाकुमारी को नहीं जानते (व्यंग्य संग्रह)
लेखक:  शान्तिलाल जैन 
ई-मेल: niajls@gmail.com 
प्रकाशक: आईसेक्ट पब्लिकेशन, 25 ए, प्रेस काम्प्लेक्स, एम. पी. नगर, ज़ोन – 1 भोपाल – 462011, फोन न. 0755 – 4923952
मूल्य: 200/-

साहित्य में व्यंग्य का वही स्थान है जो स्थान शरीर में मस्तिष्क का है। मस्तिष्क जीवन को और व्यंग्य मस्तिष्क को संचालित करता है। व्यंग्य में पठन-पाठन के आनंद को ही रेखांकित करना व्यंग्य की उपयोगिता और महत्ता को कम कर के आंकना है और यह एक अलिखित और अदंडनीय अपराध है। व्यंग्य में आनंद के साथ साथ जो चिंतन है, जो चेतावनी है, जो मार्ग दर्शन है, जो आह्वान है, जो विवेचन है, जो असहमति है वह मुख्य है आनंद तो मात्र पैकिंग है मुख्य वस्तु नहीं।

आईसेक्ट पब्लिकेशन भोपाल से चर्चित व्यंग्यकार श्री शान्तिलाल लाल जैन का जो व्यंग्य संग्रह "वे रचनाकुमारी को नहीं जानते"  प्रकाशित हुआ है, उसे जब हम पृष्ठ दर पृष्ठ रचनाओं को पढ़ते चले जाते हैं तब संग्रह अचानक एलबम में तब्दील हो जाता है, शब्द दृश्य बन जाते हैं और हमारे इर्द-गिर्द एक ऐसा संसार निर्मित हो जाता है जिसमें व्यंग्यकार गाइड की तरह एक-एक विकृति से हमारा परिचय कराते जाता है। जो गड़बड़ियाँ पाठक को सामान्य आँखों से नज़र नहीं आतीं उसे रचनाकार ने व्यंग्य के चश्मे से दिखाया है।

शान्तिलाल जी का व्यंग्य लेखन पथरीली ज़मीन पर फूलों की खेती करने के समान है, पानी की धार से पत्थर को काटने जैसा काम है इनका व्यंग्य लेखन। इनकी शैली में इतनी कशिश है, इतना आकर्षण है कि एक रचना दूसरी रचना पढ़ने के लिये मजबूर कर देती है। शांत स्वर वाले शब्दों का इस्तेमाल करते हुए शांतिपूर्ण ढंग से शांतिलाल जी अपनी रचनाओं में कोहराम मचाते हैं, यह व्यंग्यकार पूरी कामयाबी के साथ शीशे से पत्थर को काटता है। 

संग्रह में 45 रचनाएँ शामिल हैं और हर रचना हालात के ख़िलाफ़ एक मुक़दमा है, शांत लहजे में किया गया कड़ा ऐतराज़ है। लेखन में जो सब से निरालापन है वह यह है कि लेखक सीधे आरोप नहीं लगाता, भाषण और उपदेश नहीं देता वह इशारे करता है, व्यंग्य समझने में इशारे की भाषा समझना बेहद ज़रूरी है। अज्ञानी पाठक व्यंग्य साहित्य के लिये धीमा ज़हर होता है। सभी 45 रचनाओं में एक बात सामान्य है कि शान्तिलाल जी जो कहना चाहते है उसको लिखते नहीं और जो जो बात लिखते नहीं वो वो बात स्पष्ट तरीके से कह जाते है यानि अजब बीज की निराली फ़सल का नाम है ‟ वे रचनाकुमारी को नहीं जानते ”।
पुस्तक पर चर्चा आगे बढ़े इससे पहले शान्तिलाल जी की रचनाओं की कुछ लाईनों को पढ़ा जाये ताकि उनकी बानगी और तेवर स्पष्ट हो जाये –

एक 

रफ्ता रफ्ता दोस्ताना इंसानों से सामानों में शिफ्ट होता जा रहा है।

दो 

अब मैं उनके बड़े से ड्राईंग कक्ष में सोफ़े पर धंसा हुआ था, मेजबान करप्शन की कमाई में धंसा हुआ हो तो मेहमान के धंसने लायक सोफ़े लगवा ही लेता है 

तीन 

यों तो हमारे देश में बारिश कभी भी हो सकती है और कहीं भी हो सकती है मगर वो तब कभी नहीं होती जब मौसम विभाग वालो ने कहा हो।

चार 

15 अगस्त 1947 को देश बँटा। कुछ महापुरुष उस ओर चले गये। जो बचे उन्हें राजनैतिक दलों ने बाँट लिया। इसमें एक बँटवारा राज्यवार भी हुआ। गांधी, नेहरु, पटेल केंद्र के हिस्से में आये। लोहिया, कृपलानी, पेरियार राज्यों के हिस्से में आये। अब जैसे पेरियार स्वामी है – वे बिहार में साधारण पुरुष है मगर तामिलनाडू में महापुरुष है। राम मनोहर लोहिया केरल में साधारण पुरुष है मगर उत्तरप्रदेश में महाजन। वही शरीर, वही आत्मा, वही विचार, वही देश, वही समर्पण, वही सरोकार मगर राज्य बदलते ही दर्जा बदल जाता है। महापुरुष न हुए सेलफ़ोन का नेटवर्क हो गये एयरटेल यहाँ नहीं चलता टाटा इंडिकाम वहाँ नहीं लगता।

पाँच

दफ़्तर में वे फिजिकली प्रेजेंट होते है मेंटली एब्सेंट। सेंटीमेंटली वाइफ़ के साथ होते है, इमोशनली अलका मैडम के साथ। आंफिशियली वे सिर्फ़ हमारे सेक्शन में होते है लेकिन अनआंफिशियली हर सेक्शन में मौजूद होते है, सिंसियरली कहीं नहीं होते। बिहेवियरली तो हर समय अलग–अलग। वे बड़ेसाब के साथ हमेशा पोलाइटली पेश आते है, मेमसाब के साथ बिनाइनली, अलका मैडम के साथ अफेक्शनेटली, रामदीन के साथ एनिग्रिली, कभी – कभी फ्युरियस्ली भी। वजह यह कि टेम्परेरीली रामदीन कभी उन्ही का छर्रा हुआ करता था, परमानेंटली बड़ेसाब का हो गया है। आँनेस्टली वे मानते है कि जो उनका लाँयली नहीं हुआ वो किसी का रियली नहीं हो सकता। फैक्टली तो रे श्रीमान कि वे ख़ुद भी बड़ेसाबो के सामने सारंडली रहते है।  

लोहे जैसे हालात पर चाँदी जैसी भाषा से सोने जैसी रचनाओ की प्रशंसा में जो तत्व शामिल है वे है विषय की विविधता, सूक्ष्म अध्ययन, लयात्मक एवं शालीन भाषा, तर्कसंगत हुज्जत। यह पद्य जैसा गद्य है जिसमें ज़रा भी अनावश्यक विस्तार नहीं है। स्वेटर की तरह बुनी गई एवं रंगोली की तरह सजाई गई  रचनाओं के जिस्म पर भाषा की जो नर्म खाल है उस पर कही भी जले कटे का निशान तो नहीं है बल्कि भाषा और शैली से जो चमक दमक पैदा हुई है उससे संग्रह के हुस्न में लगातार इजाफ़ा हुआ है।

आवरण निर्मला सिंह ने बनाया है जो ख़ास प्रभावशाली नहीं है, व्यंग्य संग्रह के मुख्य कवर पेज का अलग ही मिज़ाज होना चाहिये जो इसमें नहीं झलकता। कुछ रचनाओं में ऐसा लगता है कि शांतिलाल जी स्वयं के अंदाज़ को दोहरा रहे है हालांकि यह ज़रा भी बुरी बात नहीं है लेकिन चूँकि आप एक क़ाबिल रचनाकार है तो पाठक उम्मीद करता है कि हर विषय की तरह आपका अंदाज़ भी जुदा-जुदा होगा। 

वे रचनाकुमारी को नहीं जानते .... 45 कमरों की इस हवेली के मुख्य द्वार पर ज्ञान जी महत्वपूर्ण चर्चा के साथ मौजूद है जो पाठक को व्यंग्य से रूबरू होने के लिये प्रशिक्षित कर के उसे अंदर भेजते हैं क्योंकि अख़बार पढ़ने की तरह व्यंग्य पढ़ना नहीं होता। जैसे हर मकान में बाहर कॉल बेल लगी होती है उसे बजाये बिना अंदर दाख़िल नहीं हुआ जाता उसी तरह ज्ञान जी को पढ़े बिना संग्रह में दाख़िल हो जाना बेअदबी होगी जो हरगिज़ न की जाये।

अखतर अली 
निकट मेडी हेल्थ हास्पिटल 
आमानाका, रायपुर ( छत्तीसगढ़ ) मो. न. 9826126781

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