अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

विजेता

"बाबा, खेलो न!"

"दोस्त, अब तुम जाओ। तुम्हारी माँ तुम्हें ढूँढ रही होगी।"

"माँ को पता है, मैं तुम्हारे पास हूँ। वह बिल्कुल परेशान नहीं होगी। पकड़म-पकड़ाई ही खेल लो न!"

"बेटा, तुम पड़ोस के बच्चों के साथ खेल लो। मुझे अपना खाना भी तो बनाना है।"

"मुझे नहीं खेलना उनके साथ। वे अपने खिलौने भी नहीं छूने देते," अगले ही क्षण कुछ सोचते हुए बोला, "मेरा खाना तो माँ बनाती है, तुम्हारी माँ कहाँ है?"

"मेरी माँ तो बहुत पहले ही मर गयी थी." नब्बे साल के बूढ़े ने मुस्कराकर कहा।

बच्चा उदास हो गया। बूढ़े के नज़दीक आकर उसका झुर्रियों भरा चेहरा अपने नन्हें हाथों में भर लिया, "अब तुम्हें अपना खाना बनाने की कोई ज़रूरत नहीं, मैं माँ से तुम्हारे लिए खाना ले आया करूँगा। अब तो खेल लो!"

"दोस्त!" बूढ़े ने बच्चे की आँखों में झाँकते हुए कहा, "अपना काम ख़ुद ही करना चाहिए. और फिर, अभी मैं बूढ़ा भी तो नहीं हुआ हूँ, है न!"

"और क्या, बूढ़े की तो कमर भी झुकी होती है।"

"तो ठीक है, अब दो जवान मिलकर खाना बनाएँगें," बूढ़े ने रसोई की ओर मार्च करते हुए कहा। बच्चा खिलखिलाकर हँसा और उसके पीछे-पीछे चल दिया।

कुकर में दाल-चावल चढ़ाकर वे फिर कमरे में आ गये। बच्चे ने बूढ़े को बैठने का आदेश दिया, फिर उसकी आँखों पर पट्टी बाँधने लगा। पट्टी बँधते ही उसका ध्यान अपनी आँखों की ओर चला गया। मोतियाबिन्द के आपरेशन के बाद एक आँख की रोशनी बिल्कुल ख़त्म हो गई थी। दूसरी आँख की ज्योति भी बहुत तेज़ी से क्षीण होती जा रही थी।

"बाबा, पकड़ो, पकड़ो!" बच्चा उसके चारों ओर घूमते हुए कह रहा था।

उसने बच्चे को हाथ पकड़ने के लिए हाथ फैलाए तो एक विचार उसके मस्तिक में कौंधा- जब दूसरी आँख से भी अंधा हो जाएगा, तब?... तब?... तब वह क्या करेगा? किसके पास रहेगा? बेटों के पास? नहीं-नहीं! बारी-बारी से सबके पास रहकर देख लिया। हर बार अपमानित होकर लौटा है। तो फिर?

"मैं यहाँ हूँ। मुझे पकड़ो!"

उसने दृढ़ निश्चय के साथ धीरे-से क़दम बढ़ाए। हाथ से टटोलकर देखा। मेज़, उस पर रखा गिलास, पानी का जग, यह मेरी कुर्सी और यह रही चारपाई...और...और...यह रहा बिजली का स्विच। लेकिन तब मुझ अंधे को इसकी क्या ज़रूरत होगी? ...होगी। तब भी रोशनी की ज़रूरत होगी...अपने लिए नहीं...दूसरों के लिए...मैंने कर लिया...मैं तब भी अपना काम ख़ुद कर लूँगा!

"बाबा, तुम मुझे नहीं पकड़ पाए। तुम हार गए...तुम हार गए!" बच्चा तालियाँ पीट रहा था।

बूढ़े की घनी सफ़ेद दाढ़ी के बीच होंठों पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कान थिरक रही थी।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

साहित्यिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं