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विमर्श नहीं खरा-खरा सच  


समीक्ष्य उपन्यास: "बेनज़ीर- दरिया किनारे का ख़्वाब"
लेखक: प्रदीप श्रीवास्तव 
प्रकाशक : पुस्तक बाजार डॉट कॉम 
प्रथम संस्करण (डिजिटल): २०२० 
पृष्ठ : ५२६ 
मूल्य: तीन कनेडियन डॉलर 

किसी विमर्श से कोई सरोकार न रखते हुए लिखना प्रदीप श्रीवास्तव की विशेषता है। उनकी यह विशेषता कनाडा से प्रकाशित उनके दूसरे उपन्यास "बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख़्वाब" में भी मुखरित है। किसी विमर्श के प्रति कोई प्रतिबद्धता न होने के कारण उनके लेखन में एक ख़ास क़िस्म की रवानी होती है, जो कहीं और दुर्लभ है। 

उनकी लम्बी कहानियों की तरह यह उपन्यास भी बड़ा है। पाँच सौ छब्बीस पृष्ठों का होने के बावजूद पात्रानुकूल शब्दावली, सहज सरल भाषा, कसी हुई बुनावट, अपनी तरह का एक अछूता विषय, और विषय की पूरी गहराई में पैठ कर लिखे जाने के कारण उपन्यास की पठनीयता इतनी उत्कृष्ट है कि प्रारम्भ करने के बाद पाठक को इसे अधूरा छोड़ पाना बहुत ही मुश्किल होगा। उपन्यास एक ऐसे युवक-युवती पर केंद्रित है जो किसी के बनाये रास्ते पर न चल कर, स्व-निर्मित रास्तों पर अपनी मंज़िल पाने के लिए बढ़ते हैं।

एक लम्बे काल-खंड को समेटे यह उपन्यास न तो किसी स्थापित परंपरा, नियम-क़ानून से विद्रोह का आख्यान है, और न ही कोई कोई सन्देश देने की बात करता है।

यह अपने लिए स्वयं नई परम्पराएँ, नियम गढ़ते हुए अपने सपनों को पूरा करने वाले एक ऐसे साहसी युगल को सामने रखता है, जो अपने सपनों का महल तो बना लेते हैं, लेकिन बन जाने के बाद उन्हें यह अहसास होता है कि, इसमें वह बात नहीं है, जिसके लिए उन्होंने घर-परिवार, दुनिया, सब से अलग रास्ता पकड़ा। इस अहसास के साथ वह बड़ी गहराई से यह भी महसूस करते हैं कि, उनकी सबसे बड़ी सफलता ही, उनकी सबसे बड़ी असफलता है। हालाँकि पाठक उनकी सफलता को निश्चित ही उल्लेखनीय मानेगा, क्योंकि युगल ने सर्वथा विपरीत परिस्थितियों में शून्य से शिखर की जो यात्रा पूरी की वह दृढ़ इच्छाशक्ति, अनवरत प्रयास, कठिन श्रम के बिना सम्भव नहीं हो सकता। पूरा उपन्यास किसी सत्य घटना पर आधारित मालूम पड़ता है।

लीक से हट कर लिखे गए इस उत्कृष्ट उपन्यास के बारे में इसके प्रकाशक सुमन कुमार घई की टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि, "बेनज़ीर- दरिया किनारे का ख़्वाब" विपरीत परिस्थितियों के अन्धकार को चीर कर प्रकाश की ओर की यात्रा की कहानी है अगर जीवन साथी हमसफ़र हमक़दम हो तो कुछ भी असंभव नहीं।" 

वास्तव में बिना किसी भय और साहस से ही ऐसा उपन्यास लिखा जा सकता है। प्रदीप के पहले उपन्यास "मन्नू की वह एक रात" जो 2013 में प्रकाशित हुआ था, वह भी उनके साहसी लेखन की बानगी था। जिसे  आलोचक चंद्रेश्वर ने मनोवैज्ञानिक, मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास कहा था। सात वर्षों में इसके चार संस्करण आ चुके हैं, जो पाठकों के बीच इसके ख़ास स्थान को इंगित करते हैं। इनका यह नया उपन्यास भी पाठकों के बीच ख़ूब सराहा जा रहा है। शीघ्र ही प्रदीप जी का एक और उपन्यास "वह अब भी वहीं है" पुस्तक बाज़ार डॉट कॉम, कनाडा से ही प्रकाशित होने वाला है।

चौवन से अधिक कहानियाँ लिख चुके प्रदीप जी उन विरल लेखकों में हैं जो बिना किसी आलोचना, प्रचार की परवाह किए लिखते रहते हैं। ''बेनज़ीर- दरिया किनारे का ख़्वाब'' उपन्यास उनके इसी स्वभाव को रेखांकित कर रहा है।
 

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