विश्व दीपक ’तन्हा’ - त्रिवेणी - 1
काव्य साहित्य | कविता-मुक्तक विश्व दीपक 'तन्हा'24 Feb 2008
१.
अपनी हथेली से मेरा चेहरा यूँ थामते थे तुम,
जैसे बूँदी के लड्डू गढ़ रहा हो कोई हलवाई।
तुमने हाथ जो हटाया तो बिखर गए टुकड़े॥
२
शीशे के तेरे वादे जो गढ़े थे मेरे वास्ते,
आह! तूने ही अपने हाथों उन्हें तोड़ डाला।
'फेविक्विक' डाला पर जोड़ अब भी चुभते हैं॥
३.
यूँ फ़ुर्सत से जीया कि अख़्तियार ना रहा,
कब ज़िंदगी मुस्कुराहटों की सौतन हो गई।
आदतन अब भी मुझे दोनों से इश्क़ है॥
४
आँखों से, आइनों से कभी गुफ़्तगू न करना,
कमबख़्त सच कहने की इन्हें आदत-सी पड़ी है।
अपना-सा मुँह लेकर लौटोगे तो जानोगे॥
५.
ईमान का एक घाव जो सीने में हो चला ,
हाकिम ने मर्ज़ कहकर दफ़्तर से छुट्टी दे दी।
रिसता है अब मवाद साँसों के रास्ते मे॥
६.
अंदर हीं अंदर गम को उबालता हूँ ताकि
जीने के हौसले को उफ़ान मिल सके।
"बिग बैंग" से दुनिया निकली थी इस तरह ही॥
७.
अब आता-जाता दिन है इस भाँति मेरे घर में,
मानो मदरसे में कोई "अलिफ-बे" रट रहा हो।
बस वक़्त काटने को झुकता है, उठ जाता है॥
८.
कभी रात ढले आसमां का रंग देखना,
दिन भर तो रौशनी के ढकोसले होते हैं।
पानी-सा रंग लिए वो पानी-पानी मिलेगा।
९.
मेरी जिस बात पर बिगड़ जाती है ज़िंदगी,
जी लेने को मैं फिर वो बात मोड़ देता हूँ।
हूँ जानता "यू टर्न" पर ही फैसले होते हैं।
१०.
तुझे कुछ न भाता मेरा, मुझे कुछ न भाता तेरा,
यही खासियत थी जोड़े हम दोनों को सारी उम्र।
मैं मौत माँगता रहा और तूने ज़िंदगी दे दी॥
११.
मक़बूल जो हुए वो, ख़ुद को ही खो दिए,
दर से जुदा हुए थे, अब रिश्तों से भी गए।
है पेचीदा दास्तां कितनी इंसां के नाम की॥
१२.
हों आज से जुदा-जुदा दोनों के रास्ते,
कहकर चले गए वो मंज़िल समेटकर।
जायेंगे वो कहाँ, दुनिया तो गोल है॥
१३.
पहले तो एक अदा से पत्थर बना दिया,
फिर दिल के उसने, करोड़ों टुकड़े कर दिए ।
एक और सोमनाथ! कहाँ गए बुत-परस्त ?
१४.
अपने हाथों से बुनकर दिया था जो स्वेटर,
सुना है उससे तुम अब पाँव पोंछते हो।
दिल से धूल का सफ़र पेशे-ख़िदमत है॥
१५.
एक दुकान हो जहाँ हो शर्म की ख़रीद-फ़रोख़्त,
सेर- सवा सेर ख़रीदकर उन्हें उपहार दूँ ।
दिल लिया जो शेर-दिल ने तो टुकड़े कर दिया॥
१६
कुदरत इन्हें यूँ हीं हँसता-मुस्कुराता छोड़ दे,
कि क्या पता कब ज़िंदगी के ख़्वाब ना रहें ।
नीम-नींद में हँसते हुए बच्चे हैं ये सारे॥
१७.
उन्हें मेरे इश्क की इन्तहां मालूम है,
तड़पाकर हँसते हैं, मेरी आँखों के सामने वो।
हबीब और रक़ीब में बस इतना हीं फ़र्क है॥
१८.
मौत की ताबीज बाँटते फिरे हैं तेरे बंदे,
ज़िंदगी की एक फूँक बस मार दे, ऐ खुदा!
चुप रहा तो एक फूँक हीं काफ़ी है तेरे लिए॥
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