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वो पल

कब आएगा वो पल
इस जीवन में,
जानूँ ना!
आएगा भी या नहीं?
जीवन ऐसे ही  रहेगा 
स्नेह  से रिक्त,
रेतीला, सूखा
नेह को तरसता.....


ये रिक्तता लील गयी
बचपन की हँसी को
खिलने से पहले 
मुरझा गया यौवन
समझ ना आई
तेरी ये लीला!
मेरे लिए ही 
रचा था क्या ये?
तुमको कोई और 
क्यो ना मिला?


कभी तो, कुछ  तो,
कहीं और भी
बाँट दिया होता!
कोई नेह की बूँद 
मेरे लिए भी
कभी बरसी होती?
कभी तो हँसी बैरन 
मेरे होंठों
पर भी सजी होती?.....

मैं हूँ तो 
तुम्हारी ही रचना,
फिर मुझसे ही
ये भेदभाव क्यों? 
मेरे लिए ही
येआँसू  क्यों?
तुम्हारे प्रेम का 
असीम सागर 
मेरे लिए ही
क्यों ख़ाली है? ......


ना देते ये जीवन!
तो क्या कोई 
कमी  रहती
तुम्हारे संसार में?
इस कँटीले जीवन 
से मन भर गया
लहुलुहान है 
रोम - रोम मेरा
रिसता है लहू 
इन नासूरों से
समय के पास भी 
मरहम नहीं
इन ज़ख़्मों का ...
कब आएगा वो पल
जानूँ ना........

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