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वो तिब्बती लड़की

मैं जब एक पहाड़ी को पार करके अल्मोड़ा की एक खुली सड़क पर पहुँचा, तो बारिश थम चुकी थी। हालाँकि मेरे पास छाता तो था, फिर भी मैं लगभग भीग ही चुका था। लेकिन, मुझे इस भीग जाने का ज़रा भी दुख नहीं था, इसका कारण था आँखों के सामाने स्वर्ग-सी दिखती धरा, जिससे मन ऐसा प्रसन्न हो उठा कि जैसे मैं बिल्कुल पास के बादलों के ऊपर बैठकर सवारी कर रहा हूँ। अभी मैं दो-चार क़दम ही चला था कि एक लड़की बड़ी तेज़ी से मेरे सामने आकर रुकी और मैं ठिठक कर खड़ा हो गया। फिर वह लड़की बड़ी तेज़ी से ही अपनी टोकरी में से कुछ निकालकर मुझे देते हुए टूटी-फूटी-सी हिन्दी में बोली- "इस मौसम मे मौथ ऑर्गन बजाइये भौत अच्चा लगेगा आप पर... बस दाम च इसका पच्चास रूप्या।" कहते हुए वह ख़ुद बजाकर दिखाने लगी। निश्चित वह लड़की जितनी अच्छी धुन निकाल रही थी उससे भी कहीं अधिक ख़ूबसूरत थी वह। मैं उसके नैन-नक़्श से जान तो गया था कि वह लड़की तिब्बती है, फिर भी मैं उस पर मुग्ध-सा हो उठा था। अब इसका कारण उसकी शालीन विनती थी या ख़ूबसूरती या फिर उसकी इठलाती-सी-चंचलता, जो उस समय एकदम मेरी समझ से परे था। मैंने उसको रुपया देते देर न लगाई। 

"इसे बजाऊँ कैसे?… मुझे इसे बजाना नहीं आता," मैंने माउथ ऑर्गन हाथ में लेकर कहा। 

"ओह! आपको तो भौत अच्चा हिन्दी आता हे," वह मेरी तरफ़ देखकर बोली।

मैंने मुस्कुराकर कहा, "जी आपको भी… आप भी बहुत अच्छा हिन्दी बोलती हैं।"

"मुझे थोरा-थोरा हिन्दी, थोरा-थोरा तिब्बती आता हे। पर, कुमाऊँनी भौत अच्चा से आता हे। आपको आता हे?” उसने थोड़ा संकुचाते-सा मुस्कुराकर पूछा। 

मैंने हँसते हुए जवाब दिया, "मुझे बहुत सारी आती है... बोलिये।" 

वह एकदम से खिल-खिलाकर हँसते हुए ही फिर आज़माने के लहजे से बोली, "अछिया तुमर नौ के छू?" 

मैंने एक क्षण रुककर फिर तपाक से उत्तर दिया, "म्यर नाम निलय छू।" 

वह उसी तरह हँस पड़ी और फिर मेरे साथ खड़ी होकर बात करने लगी। बातों-बातों में उसने बताया कि वह तिब्बती शरणार्थी है। उसके पिता यहाँ ऊपर लाला बाज़ार में फ़ुटपाथ पर कॉस्मेटिक की दुकान लगाते हैं। उसकी माँ नहीं है। उसका एक भाई है, जो देहरादून में धर्मगुरू दलाई लामा के स्कूल में रहकर पढ़़ रहा है। आगे मेरे पूछने पर कि क्या उसका यहाँ अपना घर है, उसने बताया कि नहीं वह पिता के साथ किराये के एक छोटे से कमरे में रहती है। बोलते हुए एकाएक न जाने क्यों उसकी आँखें ताल-सी छलकर बह उठीं, मैं सन्न रह गया और कुछ देर तक ना वह बोली, न ही मैं। सच कहूँ तो मैं इस एकाएक के परिवर्तन से बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था। फिर वह धीरे से बोली, "मेरा पिता मेरी शादी करना चाहता हे, उमर मे भौत बरे आदमी के साथ। मे जानती हूँ उसे, पैले लीसा खोपता था इन चीड़ के पेड़ों मे...अब इसी लीसा का ठिकेदार हे।" 

अब इस पर मैं, कर और बोल भी क्या सकता था। अतः मैंने बात को घुमाने की दृष्टि से उसे ग़ौर से देखकर पूछा, "अच्छा... आज आपके पिता कहाँ हैं?"

"आज कारतिक पूरनीमा हे ना, तो गरनाथ गये हें...शिव के मन्दिर...मेला मे दूकान लगाने। भौत बरा मेला लगता हे वाआँ। आप गये हो कभी वाआँ?" उसने फिर एकदम पहले जैसा सामान्य होकर उत्तर दिया। 

"जायेंगे कभी… फ़िलहाल तो मैं यहाँ एक किराये के कमरे की तलाश में हूँ और इस समय बहुत ज़ोरों की भूख लगी है… एक होटल की तलाश में हूँ।" मैंने थकान की मुद्रा में कहा।

वह एक क्षण रुकी और फिर मेरे चेहरे की तरफ़ देखकर बोली, "ऊपर नन्दा देवी के पास भौत अच्चा-अच्चा होटल हे। वाआँ भौत कमरा भी हे किराये का। हम भी वयीं कमरा मे रहते हें… ययीं आगे मोर से भौत सार्ट रास्ता हे जाने का। आप चलो साथ मे, मे जा री हूँ।" 

मैंने अपनी ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए, सिर को चलने की सहमति देते हुए हिलाया। 

अभी हम उस मोड़ के पास पहुँचे ही थे, कि मुझे एक छोले-समोसे की दुकान दिख गयी...भूख ज़ोरों की थी अतः मैंने उधर लपकते देर न लगाई। उससे पूछने पर वह बहुत तो नहीं, हाँ थोड़ा बहुत संकुचाकर बोली- "नइ मे नइ खाऊँगी… में खाना खाया हे।" दोपहर होने को थी, मैंने एक समोसा अन्दर से लाकर उसकी तरफ़ बढ़ाया तो वह उसने थाम लिया।

जब हम मोड़ से ऊपर चढ़ने को हुए, तो मैंने देखा कि उसमें लम्बे-छोटे कई घुमावदार रास्ते के साथ, उससे जुड़ी कई अनगिनत सीधी खड़ी सीढ़ियाँ भी हैं। एक पल मन में ख़्याल आया, कि ये तो कितना भी चढ़ लेंगे ख़त्म ही नहीं होंगी। पर, फिर भी बहुत अच्छा लग रहा था। वह समोसे को अब धीरे-धीरे मुँह से काटकर खाते हुए चल रही थी। तभी मैंने अपना माउथ ऑर्गन उसकी ओर यह कहते हुए बढ़ा दिया कि वह उसे अपने ही पास रख ले। मैं क्या करूँगा बेकार में इसे रखकर, बजाना तो आता नहीं मुझे। भले ही इसके पैसे न लौटाओ आप। मगर, वह एक झलक मेरी ओर देख, फिर मुस्कुराकर बोली, "नइ। अब ये आपका हे...मे इसे वापिस नइ रख सकती। आप इसे जेब मे रख लीजिए।" और समोसा चबाते हुए आगे बढ़ गयी। 

उसकी उस कोमल मुस्कुराहट में सरलता और निश्छलता की बड़ी गहरी स्पष्ट छाप उभर आयी थी। मैं चलते-चलते, बीच-बीच में थक-सा जा रहा था, परन्तु उसमें ऐसी कोई बात नज़र नहीं आ रही थी। वह मुझसे कुछ आगे थी। उसके पैर बराबर चंचलता से उछल-कूद-सा करते आगे बढ़ रहे थे, जिन्हें उसे जानबूझकर मेरे लिए रोकना पड़ रहा था। उन खड़ी विकट सीढ़ियों को चढ़ते-चढ़ते, एकाएक मुझे बहुत तेज़ प्यास लग आई। मेरा गला एकदम जैसे सूख-सा गया। मैंने उससे थोड़ा पानी पीने की इच्छा प्रकट की, वह मुझे पास ही के एक नौले की तरफ़ ले गयी और उसने अपनी टोकरी से एक विचित्र प्रकार का छोटा-सा बर्तन निकालकर नौले में डुबोया। इतना ठण्डा था उस नौले का पानी कि मैंने अपनी अंजुलि से दो घूँट गटकते ही छोड़ दिया। फिर उसके थोड़ा रुक-रुककर पीने की सलाह पर ही, मैं वो पानी पी सका। नौले से लौटते समय उसके पूछने पर मैंने उसे बताया कि “हाँ मैं यहाँ नौकरी के सिलसिले में ही आया हूँ। मुझे स्कूल में बच्चों को छः महीने का कम्प्यूटर प्रोग्राम सिखाना है, इसलिए मुझे यहाँ एक कमरे की ज़रूरत है।”

उससे नाम पूछने पर उसने मुझे अपना नाम- ‘हंची‘ बताया और इसका अर्थ भी कई वाक्यों में बताया- सबसे सुन्दर, भौत ख़ूबसूरत, अप्सरा-सी रूपवान। फिर एकाएक हँसकर बोली, “और क्या बताऊँ मे...”

"नहीं... अब मत बताइये... सामने दिख ही रहा है," मैंने भी हँसकर कहा।

"आप बिल्कुल पहारी जैसा नइ दिखते। पर, जो भी हो आप भौत अच्छा हे… इस उमर मे आप जैसा हर इन्सान नइ होता," उसने मेरी ओर बड़े ग़ौर से देखकर कहा। 

मैं मुस्कुरा दिया और सिवाय शान्त रहने के और बोल भी क्या सकता था? मैंने हाथ से आगे बढ़ने का उसकी ओर इशारा किया और कब हम बातों-बातों में वो विकट, दुर्गम-सी खड़ी सीढ़ियों को पार करके लाला बाज़ार आ गये, पता ही नहीं चला। वह मुझे उस सुन्दर बाज़ार से लगी एक गली की ओर ले गयी। अभी मैं मुश्किल से चालीस-पचास मीटर ही चला हूँगा, कि वह लड़की एक बडे़ से मकान का गेट खोलकर उसके आँगन में दाख़िल हो गयी और अपनी तिब्बती भाषा में अन्दर की ओर उसने किसी को आवाज़ दी। मैं गेट पर ही खड़ा रहा। अन्दर से कोई प्रत्युत्तर न मिलने पर, वह गेट से मुझे यह कहकर ले गयी, कि- “ऊपर एक कमरा हे...देख लीजिए...पसन नहीं होगा तो दूसरा कहीं और ढूँढ़ देंगे।”

सच कहूँ तो मुझे उसकी ऐसी मदद करने पर भी, मन में कहीं से कोई ख़्याल नहीं आया कि ये आख़िर मेरे लिए ये सब क्यों कर रही है। शायद उसी के जैसी परोपकारी भावना मुझमें भी वास करती होगी या फिर पता नहीं क्यों...।

उस मकान का आँगन बहुत बड़ा था और उसमें चकोर बड़े-बड़े स्लेट से पत्थर बिछे थे। किनारों की तरफ़ बनी सुन्दर क्यारियों में तरह-तरह के फूल चहक रहे थे। मैंने मकान के ऊपर की ओर नज़र घुमाई तो उसके दो मंज़िले की बालकनी लकड़ी से निर्मित थी और उसकी छत बड़ी ढालूदार बनी थी। रेलिंग पर लगी लकड़ियों पर महीन सुन्दर काष्ठ नक्काशी देखने लायक़ थी और उसमें कुछ-कुछ दूरी पर रखे गमलों में खिले फूलों की बेलें-सी नीचे को लटक रही थीं। वह लड़की जिस ख़ूबसूरत जगह में रह रही थी, शायद उसके और उसके व्यवहार में भी वैसी ही ख़ूबसूरती बस गयी थी। वह मुझे आने को कहकर, किनारे की तरफ़ बनी लकड़ी के सुन्दर घुमावदार जीने की तरफ़ बढ़ गयी और मैं भी उसी के पीछे चल दिया। मैं जब बालकनी में पहुँचा, तो उसने दाहिने तरफ़ मुँह करके किसी को दो-तीन आवाज़ें दीं- "नानी...नानी...…"

तभी थोड़ी दूर किनारे के एक मकान से, जिसकी बालकनी का एक कोना इस बालकनी से लगा हुआ था और शायद वहाँ से आपसी रास्ता भी था, एक बहुत बुजुर्ग औरत हाथ में हुक्का लिए दरवाज़ा खोलकर बालकनी में आ खड़ी हुई। मुझे उसके चेहरे की झुर्रियों से उसकी आँखें नहीं दिखायी दे रही थीं। वह इधर आने को हुई तो उस लड़की ने उसे यह कहकर मना कर दिया- "नानी तू बैठ, मे इनको एक कमरा दिखाकर आती हूँ" और दरवाज़ा खोलकर अन्दर चली गयी। फिर एक क्षण बाद कमरे की लाइट जलाकर, मुझे अन्दर आकर पानी पीने के लिए बोली। 

"नहीं… ठीक है… अब प्यास नहीं लगी है... कमरा दिखाइये तो मैं जाऊँ," मैंने बालकनी से ही खड़े होकर कहा।

वह दरवाज़े पर आ गयी और बोली, "हाँ...बस....अभी मकान मालिक नइ हें, जरा उन्हें आने दीजिए। तब तक आप बाहर काँ खड़े रहेंगे...अन्दर आकर बैठिये...पानी पीजिए।" 

फिर वह, मुझे अपनी जगह से हिलता न देख मेरे पास आ गयी और मेरे हाथ की दो-तीन उँगलियों को पकड़कर, बड़े आग्रह के साथ खींच कर बोली, "बैठ जाइये...शरमाइये मत।" 

मैं अब उसके इस आग्रह को टाल न सका और चल दिया। उसका वह कमरा छोटा कहीं से नहीं था। मैं दरवाज़े के पास एक ख़ाली पड़ा स्टूल देखकर उसी पर बैठ गया। वह पीतल के बड़े से गिलास में पानी लेकर आयी और बोली, "ये जो बीच मे फोटो लगी हे ना वो हमारे धर्मगुरू जी हें। हमे इनसे बहुत बरी उम्मीद हे, कि ये एक दिन हमारे देश तिब्ब्त को चीन से मुक्त करेंगे।" 

फोटो के आगे चिमनी के अन्दर एक दीया जल रहा था और पूरा कमरा सुगन्ध से गमक रहा था। शायद वह कोई ख़ुश्बूदार धूपबत्ती की ही सुगन्ध थी। हालाँकि कमरे में बहुत सामान तो नहीं था। पर, ज़रूरत का सामान्य सामान सब दिख रहा था। एक कोने की तरफ़ फर्श पर कास्मेटिक्स की दो-तीन बड़ी अधखुली-सी पोटलियाँ दिख रही थीं। लेकिन कमरा बहुत साफ़ और साज-सज्जा से परिपूर्ण था। धर्मगुरू के माथे पर तरह-तरह के रंगीन कपड़ों से बना छत्तर कभी-कभी खिड़की से आती हवा के झोंकों से नृत्य-सा करता लहरा रहा था। कुल मिलाकर, कमरे का वातावरण मुझे बड़ा सुखमय लग रहा था।

वह गिलास के साथ, मेरे हाथ में एक तिब्बती मिठाई रखकर, बैठने के लिए कुछ ढूँढ़ने लगी और फिर एक मोढ़ा खिसकाकर मेरे पास ही बैठ गयी। मुझे वह मिठाई देखने में बिल्कुल भी अच्छी नहीं लग रही थी, अब खाना भी मजबूरी बन गया था। लेकिन, जब खाया तो उसका स्वाद बहुत अच्छा लगा। उसके और दूँ कहने पर मैंने सिर हिलाकर ना में जवाब दे दिया। 

हम दोनों शान्त थे। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या बात करूँ? अतः मैंने शान्ति अधिक बढ़ती देख एकाएक पूछा, "कितना किराया है इसका?" 

"बारा सौ रूप्या… इसके बगल वाला कमरा भी ऐसा ही हे, उसका भी बारा सौ रूप्या हे," उसने उत्तर दिया और शान्त हो गयी।

"क्या पढ़ाई की है आपने?" मैंने फिर पूछा।

उसने मुस्कुराकर जवाब दिया, "पढ़ने का भौत शौक था, पर मेरे सिर मे तो बज्जर गिरा था… कक्षा आठ मे जैसे ही गयी, तैसे ही पिता का सीढ़ी से फिसलकर पाँव टूट गया। मुझे दूकान सम्भालनी पड़ी। सामान बेचना तो पता नइ था कुछ...सारा घाटा हो ग्या। ऐसे मे उसी ठिकेदार ने हमारी भौत मदद की। लेकिन, जब उस ठिकेदार की पत्नी अचानक मरी, तो पिता ने मदद का कर्जा चुकाने के लिए उससे मेरी शादी करा देने की बात कह दी।" यह कहते ही उसकी आँखे भर आयीं। वह अपनी आँखें पोंछते हुए आगे बोली, "मे भौत-भौत रोई, फिर पिता को भी अपनी गलती मालूम हुई तो बोले- जब कभी वह तराई-भॉभर मे लीसे के चक्कर मे दो-चार दिन के लिए जायेगा, तब हम याँ से कहीं दूर चले जायेंगे।” अभी वह आगे कुछ और बोलती-बताती, तभी वह बुज़ुर्ग औरत, बिना कोई आहट किये दरवाज़े में अन्दर चुड़ैल-सी डरवानी रूप में मुंडी घुसाकर… कुमाँऊनी में बोली, "अरे! नातड़ी, मकान मालिक तो सत्यनारायण कात मे ज रीन। अब रात मे ही आयेंगे।" और हुक्का गुड़गुड़ाकर उसने धुआँ अन्दर की ओर छोड़ दिया। उसे अचानक इस तरह देखकर, हम दोनों ही एकपल काँपकर झटके से खड़े हो गये। 

“अरे! नानी...पैले क्यों नी बताया...ये इन्तजार तो नइ करते," वह लड़की हल्की-सी झुँझलाकर बोली। 

"में अस्सी बरस की बुढ़िया का दिमाग, अब क्या तुम्हारे जैसा काम करता हे। मे तो तुम लोगों को देखने आयी थी कि क्या कर रे हो अन्दर...तभी याद आ गया," वह बुज़ुर्ग औरत अपने पोपले गालों को भींचते से बोली और फिर पलटकर चली गयी। 

मैंने उस लड़की की ओर धीरे से देखा, तो उसने अपनी नज़रें झुका लीं। 

"मैं अब लौटूँगा," कहकर बाहर निकल आया। 

वह- ’कल ज़रूर आइयेगा’ कहकर, मुझे बहुत दूर तक छोड़ने भी आयी। 

पर अगले रोज़ तो क्या...मैं पाँच-छह दिन काम में ऐसा उलझा कि बता नहीं सकता। आख़िर फ़ुर्सत पाकर जब मैं वहाँ के लिए निकला, तो माउथ ऑर्गन जेब में यह सोचकर बडे़ याद से रख लिया कि आज इसे दे ही दूँगा… ये मेरे किस काम का! और रास्ते भर नज़र उसे ही ढूँढ रही थी कि कहीं तो मिलेगी। पर, पीछे मायूसी ही मिलती जा रही थी। वो दुर्गम चढ़ान तो अकेले मानो, एवरेस्ट चोटी-सी ही लग रही थी। सच कहूँ तो मन में उसके दिख जाने की आशा लगातार बनी ही रही।

मैं जब उसके गेट पर पहुँचा, तो कुछ देर तक अन्दर को कई आवाजें देते खड़ा रहा। फिर किसी के न निकलने पर गेट खोल आँगन में आ गया और उसी तरह कई आवाजें देकर फिर इन्तज़ार करने लगा। लेकिन, सब कुछ उसी तरह देख, अब मैं जीने से ऊपर की ओर बढ़ गया। अभी मैं कुछ जीने ही चढ़ा था कि उसके दरवाज़े पर कुंडी चढ़ी दिखायी दी। मैं ये सोचकर मन-ही-मन प्रसन्न हो उठा कि चलो कहीं बाहर नहीं, यहीं-कहीं आस-पास में ही है। मैं बालकनी में जाकर पहले दिन की ही तरह खड़ा हो गया और एक आवाज़- कोई है के साथ, फिर उसका नाम- हंची लेकर- दो, तीन आवाज़ें रुक-रुककर दीं। तभी उसी बुज़ुर्ग औरत ने हुक्का गुड़गुड़ाते हुए, अपने दरवाज़े का एक पल्ला धीरे से खोला और दाहिने हाथ को माथे पर रख, महीन-सा झाँककर कहा- "अरे तू जो कोई भी हे...क्या चिल्ला रा। अब वो याँ नी रहते। छोड़ दिया उन्होंने कमरा।" 

मैंने अधीर होकर… एक नज़र दरवाज़े की ओर घुमाकर फिर तेज़ी से पूछा- "कब?...अब कहाँ रहते हैं वो लोग?"

उसने एक हाथ से इशारा करके जवाब दिया- "न मालमू राणीखेत गये हें...न मालूम धारचुला गये हें।" कहते हुए वह अन्दर की ओर मुड़ी और उसने पल्ला बन्द कर दिया। 

मुझे एक पल ऐसा लगा- मैं अब बिल्कुल अकेला हो गया हूँ और जेब से माउथ ऑर्गन निकालकर उसे ध्यान से देखने लगा। उसे देखते-देखते मेरी आँखें भर आयीं और आँसू की कुछ बूँदें उस पर टपक पड़ीं। एक क्षण बाद मैंने आँसू पोछते हुए माउथ ऑर्गन को शर्ट की जेब में रख लिया और एक विश्वास से दरवाजे़ की ओर यह सोचकर बढ़ गया कि- कहीं ये सब झूठ तो नहीं। मगर, दरवाज़ा खोलकर अन्दर झाँका, तो वह बिल्कुल सच था। उजाड़ पड़े उस कमरे में भयानक सन्नाटा पसरा था। मैं अब बहुत उदास था। मैंने वापस धीरे से कुंडी यह सोचकर चढ़ा दी- कि अब क्या मैं यहाँ पर रहा सकता हूँ…?

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