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वृद्धाश्रम

रामलाल को वृद्धाश्रम आए एक सप्ताह हो गया था, लेकिन अभी भी उसे अपने घर-परिवार की, रिश्तेदारों की याद सताती। याद सताती अपने पोते की, जो दिन भर उसकी गोद में चढ़ा रहता था। उसका मन होता कि एक बार जाकर सबसे मिल आए और अपने मन की व्यथा-कथा कह सुनाए।

उसके कमरे में रह रहे श्यामलाल ने उसे समझाते हुए कहा- "रामलाल... जितने भी लोग यहाँ रह रहे हैं, क्या वे सब अपनी मर्जी से यहाँ आए हैं? नहीं न! सभी को उनके अपनों ने, अपने से इसीलिए दूर कर दिया है कि उन्हें अब हमारी ज़रूरत नहीं रह गई। हम शायद उनके लिए बोझ बन गए थे। उनमें से एक तुम हो और मैं भी हूँ। इसीलिए कहता हूँ कि पागलपन छोड़ो और जो जीवन बचा है, उसे हँसते हुए पूरा करो।"

श्यामलाल की बातों ने रामलाल की आँखें खोल दीं। उसने अब मन ही मन प्रतिज्ञा कर ली थी कि अब कभी भी अपने को आहत नहीं करेगा।

वह सुबह उठ बैठता। झाड़ू उठाता और आसपास फैले कचरे को इकठ्ठा कर आग के हवाले कर देता। फिर कुदाल उठाता और ज़मीन समतल करने लग जाता। एक दिन नर्सरी जाकर वह कुछ पौधे खरीद लाया। उन्हें बागीचे में लगाकर सिंचाई करता और एक दिन ऐसा भी आया कि वहाँ देखते ही देखते एक अच्छे ख़ासा बागीचा तैयार हो गया था

ताज़े खिले पुष्पों से उठती सुगन्ध से चारों ओर का वातावरण सुरभिमय हो गया था। आश्रम में रह रहे लोग भी अब उसके साथ आ जुड़े थे।

अब वह आश्रम में रहने वाले लोगों को सुबह उठकर बागीचे में आने को कहता। जब सब इकठ्ठा हो जाते तो वह खुद भी एक्सरसाइज़ करता और लोगों को भी तदानुसार करने को कहता। शाम को कभी रामायण तो कभी भगवतगीता के श्लोकों को बाँचते हुए भक्तिभाव की गंगा बहाता। ऐसा करते हुए वह भूल जाता कि कभी उसके परिजनों ने उसे घर निकाला दे दिया था।

करीब दो साल बाद उसका बेटा आया और उससे घर चलने की ज़िद करने लगा। बेटे की सारी बातें सुन चुकने के बाद उसने कहा- "मैंने यहाँ एक प्यारा सा परिवार बसा लिया है और अब उसे छोड़कर मैं कहीं नहीं जाऊँगा।"

आश्रम में रह रहे अन्य लोगों ने भी समझाया कि उसे चले जाना चाहिए। उसने सबकी बातों को अनसुना करते हुए अपने बेटे को वहाँ से शीघ्र चले जाने को कहा।

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