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व्यवस्था को झकझोरने का प्रयास: गधे ने जब मुँह खोला

गधे ने जब मुँह खोला
लेखक: अशोक गौतम
प्रकाशन: वनिका पब्लिकेशंस, दिल्ली-100018
पन्ने: 144
मूल्य: 250 रु.

"गधे ने जब मुँह खोला" अशोक गौतम का "लट्ठमेव जयते" के बाद दूसरा प्रकाशित व्यंग्य संग्रह है। अशोक गौतम पिछले लगभग 26 वर्षों से सृजनात्मक साहित्य के क्षेत्र में डटे हुए हैं। कविता और कहानी विधाओं से प्रारंभ करके जब अशोक गौतम व्यंग्य लेखन की ओर मुड़े तो इन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। व्यंग्य लेखन में इनकी सक्रियता और प्रभाव व्यापक है। अब तक 2000 अधिक व्यंग्य विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। इनके इस दूसरे व्यंग्य संग्रह में उन्हीं व्यंग्यों को स्थान मिला है जो पिछले दो वर्षों के भीतर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। अशोक गौतम ने इस व्यंग्य संग्रह को अपने समय की विसंगतियों को ही समर्पित किया है। व्यंग्य विधा वैसे भी अतीत से अधिक वर्तमान पर ही नज़र रखती है, इसीलिए ये विधा पाठक वर्ग में सबसे अधिक लोकप्रिय है। और जब बात अशोक गौतम की आती है तो सारे उत्तर भारत में इनके व्यंग्य-लेखों का पाठक वर्ग को इंतज़ार रहता है। अब तो वेब-पत्रिकाओं के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इन्होंने ने अपनी प्रभावपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करवाई है।

व्यंग्य विधा कोई हँसी-ठिठोली नहीं है बल्कि इस विधा के माध्यम से एक संवेदनशील कलाकार, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक क्षेत्र से जुड़े उन धुरंधरों को, जिन पर देश की सामान्य जनता की आकांक्षाओं को पूर्ण करने का दायित्व है, उन्हें लगातार सचेत करता है कि कोई है जो उन्हें देख रहा है और इसलिए वे बेलगाम नहीं हो सकते। अशोक गौतम पाठकों को लगातार झकझोरते हैं क्योंकि विसंगतियाँ, अव्यवस्था अथवा अराजकता सिस्टम में व्यक्तिगत और सामूहिक स्वार्थों द्वारा ही पोषित होती हैं। व्यंग्यकार सहज रूप में ही जीवन की उन विसंगतियों की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास करता है जिनको हम अक्सर इग्नोर कर देते हैं। समास व्यंग्य-शैली अशोक गौतम को खूब रास आती है। इनकी प्रस्तुति इतनी रोचक और सहज होती है कि कहीं कोई बनावट नहीं। इनकी लेखनी व्यंग्य के मार्ग पर सरपट और अबाध दौड़ती है।

"गधे ने जब मुँह खोला" शीर्षक व्यंग्य-संग्रह का गधा, गधों की गणना करवाने के लिए जब मुँह खोलता है तो व्यंग्यकार कार्यशील, कर्मठ और ईमानदार लोगों को जागरूक होने का सन्देश देते हैं क्योंकि लोकतंत्र में चुनाव और इसलिए संख्याबल बहुत महत्वपूर्ण है अन्यथा ईमानदारी तो गधे की तरह बोझ ढोते-ढोते ही परलोक सिधार जाती है। किन्तु ऐसे कर्मठ और ईमानदार लोगों में एक असमंजस और डर अभी भी व्याप्त है क्योंकि जिस लाला की हवेली का रेत धोया जा रहा है उसको देख गधा कह उठता है , "लादो जल्दी मेरी पीठ पर रेत"। व्यंग्यकार की दृष्टि जहाँ एक ओर शोषित के पक्ष में खड़ी है वहीं वह ऐसे लोगों की मक्कारी देख कर भी हतप्रभ है जो सरकारी नौकरी अथवा किसी और तरीक़े से सरकारी संरक्षण प्राप्त कर या करने के लिए स्पाइनलेस हो जाते हैं। संग्रह के अधिकतर व्यंग्य इस द्विविध विडम्बना को ही संबोधित हैं। विडम्बना यह भी है कि पूरी राजनीतिक-लोकतान्त्रिक व्यवस्था आम आदमी बल्कि कहना चाहिए वोटर को मुँह-बंद, अपने पक्ष में या फिर स्पाइनलेस ही देखना चाहती है क्योंकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था के बावजू़द राजतंत्र वाली चाटुकारिता की अभी भी बड़ी माँग है बल्कि उसकी माँग बढ़ती जा रही है।

"जै राम जी की" व्यंग्य में राजनेता की दबंगई क़ायम है। पढ़े-लिखे लोग तो केवल फ़ाइल लिखने वाले बाबू ही बन सकते हैं। वे अगर चाहें भी तो नेता नहीं बन सकते क्योंकि दबंग नेता एक पीएच. डी. प्रत्याशी को धमकी देने के बाद जाते-जाते कह जाता है, "सच कहूँ तुम पढ़े-लिखे किसी क़ाबिल हो ही नहीं। न ठीक कर सकते हो न ग़लत। ठीक करने से पहले भी बीस बार सोचते हो और ग़लत करने से पहले तीस बार"। "ले यार लड्डू खा, ढोल बजा" व्यंग्य में जहाँ लोकतंत्र के प्रहरियों की कारगुज़ारियों पर प्रश्न-चिह्न लगाया गया है वहीं विधानसभा सत्र से सकुशल लौटने की ख़ुशी में लड्डू बाँट रहे विधायक जब यह कहते है, "पगले जब बुरे दिन आते हैं तो जगत के दुःख हरने वाली देवी-स्वरूपा राधे माँ तक को मज़ारों, गुरुद्वारों में अपनी रक्षा के लिए गुहार लगानी पड़ती है" तो हमारे समाज का एक बहुत बड़ा यथार्थ उघाड़ कर रख देते हैं। समग्रतः देखा जाए तो संकेत शायद यह भी है कि धर्म के ठेकेदार भी वास्तव में उल्लू की सवारी को ही महत्त्व दे रहे हैं। सरस्वती की क्षमता तो पूरी तरह से पानी भरने, बोझा ढोने, नेताओं की मुर्गियाँ, भैंसें या बकरियाँ खोजने के काम में ही लगाई जा रही हैं। इसी तरह अन्य व्यंग्यों में भी अशोक गौतम ने व्यवस्था को झकझोरने का सफल प्रयास किया है।

व्यंग्यकार के इस व्यंग्य संग्रह के व्यंग्यों की सबसे बड़ी विशेषता है उनकी प्रस्तुति में आत्मीयता "गधे ने जब मुँह खोला" व्यंग्य में वे गधे के मालिक के रूप में उपस्थित हैं, "चुनावी सीज़न और उनका मसालेदार विज़न" में वे नेता जी और उनके चमचे की ख़ुराफ़ातों को बड़े समीप से निहार रहे हैं। "हे प्याज तुझे सलाम" में वे स्वयं भुक्तभोगी हैं, सरकारी कार्यालयों और शिक्षा विभाग की कारगुज़ारियों को तो वे वर्षों से देख ही रह हैं।

संग्रह में व्यवस्था के भीतर मौजूद प्रदर्शन-प्रियता, राजनीतिक उठा-पटक, जोड़-तोड़, महँगाई, स्वार्थ-वृत्ति पर अनेकशः कटाक्ष किए गए हैं। स्कूलों में शिक्षामित्र रखने की योजना, परीक्षा में नक़ल की प्रवृत्ति, शिक्षकों की कामचलाऊ प्रवृत्ति, नौकरियों में भाई-भतीजावाद, व्यापम घोटाला, व्यापारिक आपाधापी, बुज़ुर्गों की उपेक्षा, लेखकों द्वारा पुरस्कार प्राप्ति के लिए अपनाये जाने वाले हथकंडे, कुर्सी-पूजा, चापलूसी और हर मुद्दे पर राजनीति, ये सब विषय व्यंग्यकार की क़लम से निसृत हुए हैं। पूरा संग्रह पठनीय और प्रशंसनीय ही नहीं चिंतनीय और मननीय भी है। संकल्प कदाचित यही कि बुरा यदि अपनी बुराई नहीं छोड़ता तो अच्छा भी अपनी अच्छाई न छोड़े किन्तु बिना मुँह खोले अब बात नहीं बनेगी। तभी तो कुछ निराशावादी लोग जब यह कहते हैं कि यह देश राम भरोसे चल रहा है, परन्तु इसमें थोड़ा परिवर्तित करके सभी को कहना चाहिए कि यह देश उन लोगों के भरोसे चल रहा है जो राम (इसे ईश्वर पढ़ा जाए या वह जिस नाम के प्रति हमारी आस्था हो) पर भरोसा करते हुए ईमानदारी से अपने-अपने क्षेत्र में कार्यरत हैं चाहे कोई उन्हें गधा ही क्यों न कहे।

डॉ राजेंद्र वर्मा,
एसोशिएट प्रोफेसर,
राजीव गांधी राजकीय महाविद्यालय,
चौड़ा मैदान, शिमला-171001 हि.प्र.

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