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व्यंग्य : कथन की शैली बनाम साहित्य-विधा

अपने आदि रूप में व्यंग्य कथन की एक शैली रहा है जिसका प्रारंभिक उपयोग व्यक्तिगत दोष निवारण और तानाकशी के रूप में होता था। कथन की यह शैली सर्वदा वंदनीय है क्योंकि यह एक ऐसी शक्ति है जो पहली बार हथियार के रूप में दोषोद्घाटन के लिए प्रयोग की गई। व्यंग्य का मूल्य भी इसी में है कि वह हमारी कमजोरियों और सामयिक अपेक्षाओं से हमें अवगत कराए। पतित मनोवृत्तियों का विरोध करें और भ्रष्टाचार के विरूद्ध रचनात्मक विचार दें।

‘व्यंग्य’ शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है जो ‘अज्ज’ धातु में ‘वि’ उपसर्ग और ‘ण्यत्’ प्रत्यय के लगाने से बनता है। इस शब्द का मुख्यतः प्रयोग भारतीय काव्यशास्त्र में ‘शब्दशक्तियों’ के अन्तर्गत हुआ है। जहाँ हम साहित्य में शब्दशक्तियों की चर्चा करते है तो व्यंजना शक्ति के संदर्भ में ‘व्यंग्यार्थ’ के रूप में इस शब्द का प्रयोग होता है। सामान्य कथन में व्यंग्य को लोग ‘ताना’ या ‘चुटकी’ की भी संज्ञा देते है। इस शब्द का कोशगत अर्थ है “लगती हुई बात जिसका कोई गूढ़ अर्थ हो।” अति साधारण रूप में इसे ‘लगती हुई बात’ कहा गया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने व्यंग्य की परिभाषा देते हुए कहा र्है “व्यंग्य कथन की एक ऐसी शैली है जहाँ बोलने वाला अधरोष्ठों में मुस्करा रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठे।” यानी व्यंग्य तीखा व तेज-तर्रार कथन होता है जो हमेशा सोद्देश्य होता है और जिसका प्रभाव तिलमिला देने वाला होता है।

कालान्तर में व्यंग्य के साथ हास्य भी जुड़ गया और हास्य का पक्ष इतना प्रबल हो गया कि लोग इसे ‘हास्य-व्यंग्य’ कहने लगे। अंग्रेजी व्यंग्यकार इसे ‘सटायर’ और ‘ह्यूमर’ आदि नाम से पुकारने लगे। आज तो व्यंग्य अपनी लोकप्रियता के लिए अपने में हास्य को भी समेटने लगा। आज हास्य और व्यंग्य लगभग एकसाथ सन्निहित से हो गए हैं।

कोई भी साहित्यकार अपने मन्तव्य को पाठकों तक पहुँचाने के लिए साहित्य की विविध विधाओं को चुनता है। कविता, कहानी, नाटक, निबन्ध, उपन्यास आदि के रूप में वह अपने भाव एवं विचार को संप्रेषित करता है। लेकिन रचनाकार चाहे जिस विधा को चुने अपने कथ्य को संप्रेषित करने के लिए वह शैली अलग चुनता है। भाषा तो केवल उपादान है शैली एक अलग पहचान है। प्रसिद्ध विद्वान हाकेट के शब्दों में - ‘एक ही भाषा में एक ही बात को सम्प्रेषित करने के तरीके जो संरचना में अलग होते हैं उन्हें शैली कहते हैं।’ प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान बाणभट्ट ने एक बार कुछ विद्वानों से – ’आगे सूखा काठ पड़ा है’ का संस्कृत अनुवाद करने को कहा तो एक विद्वान ने कहा- ’शुष्कः काष्ठः तिष्ठति अग्रे’और दूसरे ने बताया- ’नीरसः तरूरिहि विलसति पुरतः।‘ दोनों अनुवाद सही हैं। लेकिन दोनों की भाषिक संरचना में अन्तर है और इस कारण दोनों के भाव_सौन्दर्य में बहुत अन्तर आ जाता है। यह अन्तर दोनों विद्वानों के भाव सम्प्रेषण की शैली में अन्तर के कारण प्रकट हुआ। यही कारण है कि व्यंग्य शैली में कही गयी बात ज्यादा धारदार और प्रभावकारी होती है।

प्रार्भ में कथन की एक शैली मात्र के रूप में जन्मा व्यंग्य आज साहित्य की सबसे उर्ज्वस्वित विधा का रूप ले चुका है। हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में विधा के रूप में व्यंग्य पर हम विचार करें तो व्यंग्य का सर्वप्रथम स्पष्ट प्रयोग सन्त कबीर की रचनाओं में मिलता है। कबीर ने बहुत पहले अपनी रचनाओं में धार्मिक आडम्बरों का विरोध करने के लिए व्यंग्य का प्रयोग किया है। अगर कबीर मुसलमानों के धार्मिक ढोंग का खण्डन करते हुए कहते हैं ‘मसजिद चढ़ क्यों बाग दे क्या बहरा हुआ खुदाय’ तो हिन्दुओं की मूर्तिपूजा एवं उनके अन्धविश्वासों पर व्यंग्य करते हुए कहते र्हैं ‘पाथर पूजै हरि मिलै तो मैं पुजूँ पहाड़।’            

कबीर ने दोनों सम्प्रदायों की कठोरता एवं क्रूरता पर व्यंग्य करते हुए लिखा र्हैं ‘वा करे जिबह वा झटका मारै आग दुऔ घर लागी।’

यानी कबीर के यहाँ तिलमिला देने वाला व्यंग्य मिलता है जो सच्चाई की ओर इशारा करता है। निर्गुण ज्ञानाश्रयी कवियों ने धार्मिक बाह्य आडम्बरों का विरोध करने के लिए व्यंग्य का एक शैली के रूप में प्रयोग किया है। यही व्यंग्य भारतेन्दु हरिश्चन्द तक आते-आते राष्ट्रीयता के साथ जुड़ जाता है और साहित्य विधा का रूप धारण करने लगता है। उनकी प्रसिद्व कृति ‘अन्धेर नगरी’ तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था पर एक करारा व्यंग्य है। क्रांतिकारी कवि निराला के यहाँ व्यंग्य एक प्रगतिशील दृष्टि बनकर आता है। निराला ने शोषकों का विरोध और शोषितों की पक्षधरता करने के लिए व्यंग्य को शैली के रूप में इस्तेमाल किया। उनकी ‘कुकुरमुत्ता’ कृति में व्यंग्य का पैनापन दिखाई पड़ता है। निराला शोषक एवं पूँजीपति वर्ग का विरोध करते हुए प्रतीकात्मक रूप में लिखते र्हैं

अबे! सुन बे गुलाब भूल मत जो तूने पाई खुशबू रंगोआब।

खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट डाल पर इठला रहा कैपिटलिस्ट।

निराला की तरह नागार्जुन ने भी व्यंग्य को शैली के रूप में इस्तेमाल किया है। नागार्जुन की कविता ‘प्रेत का बयान’ आजाद भारत में शिक्षक जीवन की विडम्बना का व्यंग्यात्मक चित्रण है जो देश की व्यवस्था से जुड़े तंत्र को तिलमिला देने के लिए लिखी गई है। मुक्तिबोध, धूमिल, दुष्यंत कुमार आदि के यहाँ आते-आते व्यंग्य व्यवस्था विरोध एवं बदलाव का कारगर हथियार बन जाता है। धूमिल की ‘संसद से सड़क तक’ की कविताएँ मुक्तिबोध की काव्यकृति ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ की कविता ‘अँधेरे में’ एवं दुष्यंत कुमार की गज़लों में व्यंग्य एक विधा बनने के साथ-साथ व्यवस्था बदलाव का एक असरदार माध्यम भी बन जाता है।

 ‘व्यंग्य’ का विधा के रूप में प्रयोग आज़ादी के बाद स्पष्ट रूप से हुआ। रामराज की परिकल्पना के आदर्श को लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति का जनान्दोलन आजादी के बाद व्यवस्था में मनोवांछित परिवर्तन न पाकर मोहभंग का रूप धारण करता है और व्यंग्य शैली को विधा का रूप धारण करने के लिए उर्वर जमीन प्रदान करता है। हरिशंकर परसाई की कृतियाँ -विकलांग श्रद्धा का दौर, सदाचार की ताबीज, भूत के पाँव पीछे, ठिठुरता हुआ गणतंत्र और श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास ‘राग दरबारी’ एवं अन्य रचनाकार शंकर पुणताम्बेकर गोपाल चतुर्वेदी, के. पी. सक्सेना, ज्ञान चतुर्वेदी, शरद जोशी आदि अनेक साहित्यकारों ने व्यंग्य को साहित्य की सशक्त विद्या के रूप में स्थापित किया है। इन रचनाकारों ने सामाजिक एवं राजनीतिक विसंगतियों पर चोट कर के उनमें बदलाव लाने की पहल की है। इन रचनाकारों के अतिरिक्त आज मंचीय कवियों ने हास्य मिश्रित व्यंग्य को आधार बनाकर इसकी लोकप्रियता के कारण व्यंग्य को लगभग आज के साहित्य की केन्द्रीय विधा बना दिया है।

वास्तव में जब तक समाज देश और राजनीति में भ्रष्टाचार विसंगतियॉं मूल्यहीनता एवं विद्रूपताएँ विद्यमान रहेगी इन पर चोट एवं इनका विरोध व्यंग्य द्वारा ही कारगर रूप से हो सकेगा। क्योंकि व्यंग्य ‘जो गलत है’ उस पर तल्ख चोट तो करता ही है ‘जो सही होना चाहिए’ इस सत्य की ओर इशारा भी करता है। अतः निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि कथन की एक शैली के रूप में जन्मा व्यंग्य आज साहित्य की सशक्त विधा बन गया है और भविष्य में साहित्य की केन्द्रीय विधा बनने की सारी संभावना इस में सन्निहित है।

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