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वाह जिंदगी : जीवन के इंद्रधनुषीय रंग लिए हुए

साहित्य इतिहास, समाज आदि के सत्य को प्रकाशवान कर भावात्मक-मनोरम धरातल प्रदान करता है। साहित्य समाज का दर्पण होने के साथ-साथ दिशा-दर्शक और प्रणेता भी है। साहित्य वर्तमान का चिंतन, विगत से प्रेरणा तथा भविष्य के प्रति कल्पना की नींव रखता है। मुझे हर्ष है कि भारतवर्ष की मिट्टी, संस्कृति, मूल्यों, गुरू कृपा आदि ने मुझे साहित्य सेवी बनाने के साथ-साथ अध्यापन का कार्य भी करने का सौभाग्य और अवसर दिया है। भारतवर्ष की पावन धरती पर शोध और अध्यापन कार्य करने के साथ-साथ मुझे दो वर्ष पहले पोलैंड में भी हिंदी अध्यापन, उसकी पताका लहराने, उसका प्रचार-प्रसार करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्रवास के समय पोलैंड में मुझे अमेरिका, कनाडा, डेनमार्क, लंदन, यूक्रेन, पोलैंड आदि के कई देशी-विदेशी और प्रवासी साहित्यकारों को पढ़ने का अवसर मिला और साथ ही उन पर अपनी लेखनी भी चलाई। इतना ही नहीं मुख्यतः भारतीय दो साहित्यकारों को पढ़ने का भी मौका मिला, इसमें श्री बी.एल. गौड़ जी और डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक जी हैं। डॉ. विवेक गौतम जी का हृदय से आभार प्रकट करना चाहता हूँ, जिन्होंने रमेश पोखरियाल जी का कहानी संग्रह वाह जिंदगी का पीडीएफ मुझे भेजा और उन्हीं के आग्रह पर मैंने उनकी 20 कहानियों को एक ही बैठक में पढ़ लिया। यह कहना भी अनुचित न होगा कि जिज्ञासा और रोमांच से भरी इन कहानियों को मैंने पढ़ा ही नहीं, एक-एक शब्द को अपने मानस में उकेरा। इस बात का अफ़सोस भी है कि पहले मैंने यह कहानी संग्रह या फिर इस साहित्यकार को क्यों नहीं पढ़ा? कारण कुछ भी हो सकते हैं। एक दुर्बलता मेरी भी है कि मैं कभी भी किसी के नाम से प्रभावित होकर किसी की समीक्षा या आलोचना नहीं लिखता हूँ। समीक्षा करते हुए समीक्षक का धर्म निभाना ही समीक्षक का कर्तव्य है। इसी से पुस्तक की तथा समीक्षक की सार्थकता सिद्ध होती है। वाह जिंदगी कहानी संग्रह को लेकर मैं बिना किसी लाग लपेट के, बिना किसी हिचक-झिझक के कह सकता हूँ कि कहानीकार रमेश पोखरियाल जी प्रेमचंद, विशंभरनाथ कौशिक, यशपाल, बी.एल. गौड़ आदि कहानीकारों की श्रेणी में आते हैं।

इनकी कहानियाँ मानव जीवन के हर रिश्ते को दिखाती, समझाती नज़र आती हैं। इनकी कहानियों पर इनकी भाषा, इनके स्वभाव अर्थात् व्यक्तित्व की छाया है। व्यक्तित्व की सादगी और ताज़गी की तरह बहुत ही सहज भाषा में, सहजता के साथ जीवन की तमाम उलझनों, संघर्षों और जीवन की जिजीविषा को जीवंतता के साथ अभिव्यक्त करते हैं। भाषायी बोध की क्लिष्टता इन्हें कहीं दूर से भी छू कर नहीं गई है। बहुत ही आसान छोटी सी लगने वाली कहानियाँ जीवन का सबक़ समझाते हुए, मानस पटल पर अंकित हो जाती हैं। भाषा की मंदाकिनी में जटिल समस्याओं, विमर्शों और भारतीयता, राष्ट्रीयता का भाव अनायास रूप से प्रभावित करता है। कहीं भी कहानीकार उपदेशक के रूप में या फिर किसी बोध को बलात् पूर्वक डालने का प्रयास करते नहीं नज़र आते हैं। किसी विचारधारा को थोपते भी नज़र नहीं आते हैं। जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं को लेकर जीवन जीने की कला सिखाते हैं। पाठक को भी ऐसे पात्र और घटनाएँ अपने आस-पास मिलेंगी। उसे अपने जीवन से जुड़ी बातों, घटनाओं पर विश्वास होता है और वे इन कहानियों के पात्रों को अपना पात्र, अपने लोग समझने लगते हैं। जीवन में संघर्ष है, संघर्ष से जूझ कर ही आनंद मिलता है, वही वास्तव में जीवन भी है।

कहानी संग्रह का नामकरण वाह जिंदगी ही उसकी सार्थकता को सिद्ध करता है। ईश्वर प्रदत्त जिंदगी बहुत ही ख़ूबसूरत, उम्दा है। अगर जीवन जीने का ढंग, तरीक़ा आता है, तो जीवन ख़ुशहाल हो जाता है। जीवन सुख-दुख, हार-जीत, उतार-चढ़ाव का नाम है। हर हाल में ख़ुश रहने वाले के लिए जिंदगी ख़ुशनुमा होती है, वे जीवन जीते हैं, काटते नहीं हैं। हमें एक सजग नागरिक के रूप में रहते हुए, परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों को भी भूलना नहीं चाहिए। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि इनकी कहानियाँ धर्म की सही व्याख्या करती हुई नज़र आती हैं। जो जिस जगह, जिस रूप में कार्यरत है, उस पद के अनुरूप ही कार्य करना धर्म कहलाता है। ये कहानियाँ अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यबोध को जगाती, प्रबोधित करती दिखती हैं। पाठक को बाँध कर रखती हैं और अनायास रूप से पाठकों को सोचने के लिए बाध्य भी करती हैं।

वाह जिंदगी: आत्मसंस्मरण शैली में रची यह कहानी लेखक के जीवन को दर्शाती ही नहीं है, अपितु हम सब के जीवन की तस्वीर है। अपने बचपन के संघर्षों के दिन गाँव से शिक्षा के लिए शहर आना और ईमानदारी, कर्तव्य निष्ठा से कार्य करते करते जीवन किस प्रकार गुज़र जाता है। दुख के आने पर, लोगों की साज़िश का शिकार होने पर बालकनी में बैठे लेखक को एक छाया सी महसूस होती है। वह छाया अपना नाम ज़िंदगी बताती है। यह लेखक की कल्पना, अपने आप से बातचीत या फिर स्वप्न सा भी हो सकता है। इस माध्यम से कहानीकार ने ज़िंदगी जीने का भाव जगाया है। हम भाग दौड़ की जिंदगी में ज़िंदगी की सबसे ख़ूबसूरत प्रकृति को भूल जाते हैं। “ऊँचे-ऊँचे पहाड़ नापने की कोशिश नहीं की? क्या कभी देखा इन पहाड़ों के बीच में बहने वाले झरनों को? कभी सुना इन झरनों का संगीत? छूकर देखा कितना निर्मल, कितना शीतल है इनका जल।“ (पेज-14-15) केवल भाग दौड़ में, पद की गरिमा के कारण अपनी पत्नी और बच्चों को भी समय नहीं दिया। बग़ीचे के पौधों, फूलों तक को नहीं देखा। “उस दिन जिंदगी का भाव समझने-मिलने पर पत्नी कृतिका के साथ गाड़ी से घूमना, बच्चों को पराँठे लाकर देना, रिश्तों में ताज़गी की ऊष्मा का आना, पौधों को पानी देते हुए भीग जाना, पिक्चर देखना, जिंदगी बहुत ख़ूबसूरत है, बस जरूरत है तो उसे इस नज़रिये से देखने की। वाह जिंदगी मैंने मन ही मन उस जिंदगी को धन्यवाद दिया, जो कल ही मेरे पास कुछ समय के लिए आकर मुझे जीना सिखा गई।“ (पेज-21)

बहुत सामान्य सी कहानी असाधारण सी बात को समझा गई। हम मशीन बनते जा रहे हैं, गधे की तरह तमाम चिंताओं को ढोते हुए, काम के बोझ के तले संजीवनी सी प्रकृति को भूलकर अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं। भौतिक सुखों और अपनी कार्यपद्धति के कारण हम अपनों से दूर, आनंद से दूर, ख़ुशियों से दूर होते जा रहे हैं। सीधी-सादी भाषा की सहजता और सरलता से सीधा जीवन जीना ही जीवन का उद्देश्य है, यह उद्देश्य सार्थक होना कहानी की सार्थकता को दर्शाता है। बहुत कम पात्रों के माध्यम से कहानी का कथानक सीधा-सपाट पाठकों को लुभाता है। यह अपने जीवन की कहानी लगने लगती है। प्रकृति का नज़ारा सूर्य का उदय और अस्त जीवन जीने की दिशा देता है, प्रकृति को देखकर सोचने और बदलने की और जीवन जीने की यह कहानी अद्भुत है। 

वापसी कहानी अपने नामकरण की सार्थकता को सिद्ध करने वाली ऐसी कहानी है, जो जीवन के आरोपों-प्रत्यारोपों, मन मुटाव को समय की, परिवेश की देन बताती है, इन सब पर मानवीय रिश्तों की गर्मी, ऊष्मा जब पड़ती है, तो घर की वापसी, सुबह का भूला शाम को घर आना जैसा लगता है। वास्तव में उसका स्वागत भी करना चाहिए। यही जीवन भी है। इंसान हालातों, ग़लतियों का पुतला है, उसे माफ़ कर देना, ग़लती मानने पर यही बड़प्पन भी है। कलावती अपने सास-ससुर के, अपने दूसरे पुत्र के पास जाने पर, पुत्र और पति की असमय मृत्यु पर पुत्र के साथ सफ़ाई का काम करते-करते आनंद पुत्र को पालती है। बड़ा हो जाने पर आनंद और अनुभा का विवाह होना, यद्यपि अनुभा आनंद से अधिक पढ़ी लिखी थी, फिर भी उसने अपनी मर्ज़ी से घरवालों को समझाकर आनंद से विवाह किया। दो वर्ष बाद अपनी आज़ादी, मर्ज़ी के कपड़े पहनने के वाद-विवाद में घर छोड़कर अपने मायके रहने आ जाती है। पिता की नासमझी, पिता का लड़की के प्रति अंधा मोह घर तोड़ने का काम करता है। अनुभा एक लड़की को जन्म देती है, मायके के भाई-भाभी का बदलता व्यवहार माँ की अच्छी सीख से अनुभा बेटी को लेकर अपने घर वापसी करती है। पूरा घर उसकी वापसी से आनंदित हो उठता है। क्रोध में, बहकावे में आने पर घर टूटते हैं। घर को बचाने के लिए क्षमा करना आना चाहिए, ऐसी सीख मामूली सी घटना के माध्यम से कहानीकार ने दी है। समाज परिवेश में रहकर अपनों की सुनो और समझो। यहाँ प्रेमचंद की बड़े घर की बेटी कहानी याद आ जाती है।

साक्षात्कार कहानी बहुत ही सामान्य सी दिखने वाली कहानी लगती है। आज के दौर में भाई-भतीजावाद, सिफ़ारिश के बल पर साक्षात्कार होते भी हैं। कहानीकार ने साक्षात्कार को अपनी संकल्पना से विशिष्ट बना दिया है। मानवता के साथ जीवन जीने वाला, दूसरों की मदद करने वाला, संवेदना से भरा व्यक्ति जीवन में सफलता अवश्य पाता है। कहानीकार ने सिफ़ारिश के ऊपर मानवतावादी दृष्टि को प्रभावशाली और सार्थक सिद्ध किया है। सम्पन्न परिवार का युवक शहरी चकाचौंध में गाँव से आकर रहना चाहता है। चाचा द्वारा मंत्री से सिफ़ारिश लगवाने पर भी मनोहर उस साक्षात्कार में मात्र इसलिए फ़ेल हो जाता है कि उसने घायल किये युवक और वृद्धा को अस्पताल नहीं भिजवाया, उसकी मदद नहीं की। इस घटनाक्रम को कम्पनी के एम.डी. साहब ने स्वयं देखा था। निश्चित रूप से कोई भी व्यक्ति ऐसे संवेदनहीन व्यक्ति को नौकरी नहीं देगा। यह कहानी प्रेमचंद की परीक्षा कहानी और 2019 का नोबल पुरस्कार विजेता की ओल्गा तोकाचुर्क (पोलैंड) की कमरे और अन्य कहानियाँ से मेल खाती है। आचरण को एक सड़क दुर्घटना के माध्यम से दर्शाया है, यह कहानीकार की नयी दृष्टि, नयी सोच को दर्शाती है।

रद्दी वाला कहानी ना केवल मार्मिक है अपितु मानव को छोटा ना समझने की सीख देती है। यहीं तक की बात होती तो भी कोई विशेष बात ना होती। आज के समय में शिक्षा के व्यापक अर्थ को व्याख्यायित करने वाली यह कहानी कर्म प्रधान भारतीय संस्कृति की ओर संकेत करती है। कोई भी काम छोटा बड़ा नहीं होता है। कर्म को पूजा मानकर व्यवसाय को अपनी रोज़ी-रोटी ही नहीं अपनी मेहनत से अर्जित साधना समझने वाले रद्दी वाले का बेटा आई.ए.एस. अधिकारी बन जाता है। फिर भी रद्दीवाला अपना काम नहीं छोड़ता है। भारतवर्ष अपने कर्म कौशल से जाना जाता था। भौतिकवादी सोच, अकर्मण्यता, स्वयं के काम को छोटा समझने का भाव, हमें बेरोज़गारी की ओर धकेल रहा है। कहानीकार मेघना के पिता को हैरानी में डाल देते हैं। जब उन्हें पता चलता है कि हर महीने रद्दी लेने आने वाला उनका समधी बनने जा रहा है। अपने आप को अपने काम से गौरवान्वित करने वाले का बेटा आई.ए.एस. अधिकारी है। फिर भी वह अपना काम करना नहीं छोड़ता है। भारतीय युवा बेरोज़गारी का शिकार शायद अधिक इसलिए भी हो रहा है, उन्होंने चकाचौंध के कारण अपने काम को बंद करके सरकारी सुविधाओं की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया। यह कहानी काम के प्रति ईमानदारी को भी दर्शाती है। “आपके घर की किसी रद्दी का दुरुपयोग नहीं हो सकता। पास में जो पेपर मिल है, उन्होंने अधिकृत किया है मुझे।“ (पेज-42) भाषा की सहजता और एक घटना में घटित कहानी निश्चित रूप से बेमिसाल है। बिन कुछ कहे सब कुछ कहने की कला में बेजोड़ कहानीकार हैं, रमेश पोखरियाल जी।

साक्षात् कहानी माँ सुरजी के लाड दुलार में बिगड़े बेटे जयदीप की है। माँ की तरफ़दारी, माँ का प्रेम, शिक्षकों से जयदीप के लिए लड़ना, जयदीप को चोर बना देता है। यह कहानी बड़ी ही सहजता से उन अभिभावकों को सूचित करती है, जो हमेशा पुत्र की तरफ़दारी, पुत्र का पक्ष लेकर समाज में शिक्षकों से लड़ते हैं। ऐसे अभिभावक बच्चों का भला नहीं करते हैं। वह उन्हें जयदीप जैसा बिगड़ा चोर बना देते हैं। साथ ही यह जयदीप के मंदिर में से भगवान पर चढ़े हार को चुराते समय आत्मा की आवाज़, भगवान की कृपा से क्षण भर में उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है। वह चोरी करना बंद करके वह सौ रुपया रोज़ के किराए पर रिक्शा लेकर सवारी के इंतज़ार में वही मंदिर के बाहर खड़ा था। आत्मा की आवाज़ सुनने पर भगवान पत्थर क्या कंकड़ में भी नज़र आते हैं। लालच में, क्रोध में, अहंकार में, हम अपनी आत्मा की आवाज़ को सुनकर भी अनसुना कर देते हैं। गुमराह होकर बुरे कामों में लग जाते हैं। मंदिर में श्रद्धा भाव से खड़े होने पर ईश्वर ही ईश्वर सब जगह नज़र आता है।

दंड कहानी विमल के महानगर दिल्ली में आकर सरकारी नौकरी से शुरू होती है। उस पहाड़ी हरियाली प्रकृति को छोड़कर महानगरों की चकाचौंध में फँसे सरकारी गबन के झूठे केस में फँसे अर्थहीन विमल और उनकी पत्नी सुगंध की कहानी है। पुत्र शांतनु के 15 वर्ष से ट्यूशन पढ़ाकर नौकरी करने की अथक कहानी है। पिता विमल की अकर्मण्यता, काम ना करने के भाव से पिता-पुत्र के जमे हिमखंड की कहानी है। पिता-पुत्र की संवाद हीनता विमल को जीते जी दंडित करने की कहानी है। पुत्र के बचपन छिन जाने, पढ़ाई में पिछड़ जाने का दर्द, पुत्र शांतनु को पिता के प्रति उपेक्षित दोषी समझने की कहानी है। पिता का दायित्व संतान के लिए सदा होता है। परेशानी या कारण स्वयं बनाकर काम ना करना सबसे बड़ा दर्द है, जो दर्द पूरी कहानी में विमल को परेशान करता है, दंडित करता है, पुत्र के सामने नज़र तक नहीं मिला पाने की पीड़ा को दर्शाया गया है, जो बहुत ही मार्मिक है। 

भाग्यचक्र कहानी भारत में पुत्र रत्न की कामना को सँजोए विचार को दर्शाती है। पुत्र-पुत्री के भेदभाव की विचारधारा को अपनाने के कारण परिवारों के विघटन की यह कहानी है। इस घर में अब एक पोता आ जाए तो मैं गंगा नहा लूँ सास का अब दिन में कम से कम दो बार तो यह ब्रह्म वाक्य हो ही गया था। (पेज-67) राजेश्वरी के जीवन में उसकी ननंद, सास और पति सुरेंद्र के द्वारा पुत्री होने पर तानों-बानों से बेहाल जिंदगी की कहानी है। पति द्वारा घर से निकाल देने की कहानी है। यह कहानी आज के भारत में होने वाले परिवारों की कहानी है। आज समय बदल भी रहा है। अभी और बदलने की आवश्यकता है। पुत्री को पुत्र से कम ना आँकना, जबकि दोनों एक समान हैं। पुत्री बेटे से बढ़कर माता-पिता का ध्यान रखती है। यह संदेश बहुत सुंदर तरीक़े से कहानीकार ने प्रस्तुत किया है। जिस बेटी श्रुति के कारण उसके पिता सुरेंद्र ने उसकी माँ राजेश्वरी को घर से बाहर निकाल दिया था। पुत्र की चाहत में पिता ने दूसरा विवाह किया, उसी पुत्र के कारण आज पिता न्यायालय में खड़ा दोषी के रूप में था। वह भी अपनी बेटी जज के सामने था।

कहानीकार का दूसरा संदेश यह भी है कि भाग्यचक्र घूमता रहता है। यही कारण है कि हमें हमारे कर्मों का फल यहीं मिल जाता है। जैसा कि सुरेंद्र को मिला, पुत्री जज बनने पर यह जानते हुए भी कि यह मेरे पिता हैं, इन्होंने मेरे साथ मेरी माँ के साथ ठीक नहीं किया। जज के धर्म को निभाते हुए कहती है, “जो गुनाह आपने नहीं किया उसकी सजा मैं आपको नहीं दे सकती थी, ऐसे संस्कार दिए हैं मेरी माँ ने मुझे और जो गुनाह बाप ने किया है, उसके लिए मेरी माँ बाप को वर्षों पूर्व माफ कर चुकी है फिर मैं सजा देने वाली कौन?” (पेज-75) रमेश पोखरियाल जी की शैली अद्भुत है। कहानी कहने लिखने का अंदाज़ निश्चित रूप से अनूठा है। यह कहानी यथार्थ की जीती जागती तस्वीर है। 

वक़्त की ठोकर कहानी भाग्यचक्र की तरह ही है। यह दो भाइयों की कहानी है, बड़े भाई सुरेंद्र और उसकी पत्नी के शोषण के कारण एक पैर से ख़राब रामलाल छोटे भाई की कहानी है। यह कहानी नसीहत देती है, “देख लिया नतीजा अपनों को ठोकर मारने का, जिंदगी ने स्वयं तुम को ठोकर मार दी। आइंदा ध्यान रखना इंसान की दी ठोकर से एक बार आदमी सँभल जाता है लेकिन वक़्त की ठोकर से सँभलना मुश्किल होता है।“ (पेज-84) 15 वर्ष बाद बड़े भाई सुरेंद्र को हालातों की मार के कारण छोटे भाई रामलाल के पास आना और छोटे भाई का पिछली बातों को भूलकर बड़े भाई को नौकरी पर लगवाना– टूटे रिश्तों को जोड़ने का काम है। कहानी यही शिक्षा नहीं देती है अपितु जीवन में आगे बढ़ने के लिए हिम्मत, ईमानदारी की ज़रूरत है। “साथ ही यह कभी ना समझे, यह मुझे मिला, यह मेरा अधिकार था, घनश्याम सेठ रामलाल से कहते हैं– तुम्हारी ठेली को जिस कार ने टक्कर मारी थी वह कार मेरी ही थी। मैंने जब तुम्हें पार्क में देखा तो पहचान लिया और तुम्हें काम दे दिया। लेकिन यह बात मैंने आज तक तुम्हें इसलिए नहीं बताई कि तुम मुझे अपराधी समझते और नौकरी को अपना हक फिर तुम मेहनत नहीं करते और इस मुकाम पर नहीं पहुँच पाते।“ (पेज-83) ईमानदारी, मेहनत के साथ जीने वाला व्यक्ति संघर्षों का सामना करता है। टूटता नहीं है, आगे बढ़ता है। ऐसी सीख युवाओं की सोच को बदलती है। रिश्तों की गरिमा समझाती है। 

बसंतो एक ईमानदार, मेहनती और साहसी औरत की कहानी है। 28 वर्षीय बसंती दो बच्चों, सास और अपाहिज पति का सहारा है। वह गाँव के बुज़ुर्ग के जरनल स्टोर पर काम करके अपनी लोकप्रियता से, गाँव के नेता के कहने पर पंचायत का चुनाव जीत जाती है। उसकी ईमानदारी और पति के साहसी मन के द्वारा वह जगदीश धोखेबाज़ नेता के चंगुल में नहीं फँसती है। वह यह मिथक तोड़ देती है कि चुनाव केवल पैसे के बल पर नहीं जीते जाते हैं। यह कहानी अच्छे लोगों को राजनीति में आगे आने को प्रेरित करती है।

सजा तो मिलेगी: काठ की हाँड़ी बार-बार नहीं चढ़ती है, यह बात इस कहानी के द्वारा सिद्ध होती है। रघुवीर और उसकी बेटी सीधे-साधे लड़के के परिवार को सगाई के बाद दहेज़ में फँसाने का काम करते हैं, इस कानून के तहत मुख्यतः लड़की वालों की सुनी जाती है। पुलिस-जेल के डर से श्यामलाल जी, उनका पुत्र विनय और उनकी पत्नी रुकमा जैसे लोग डर कर रघुवीर जैसे लोगों के सामने मकान बेच अपनी इज़्ज़त बचाते हैं। कहानीकार ने कहानी यहाँ ख़त्म नहीं की है। समाज को ऐसे दोषी लोगों को सजा दिलाने के लिए कहानी की चरम सीमा पर उसके बचपन के दोस्त सुंदर सिंह को लाकर खड़ा किया है। जिसके बेटे ने श्यामलाल जी का मकान ख़रीदा था। रघुवीर सिंह ने पहले सुंदर सिंह को इसी तरह फँसाया था, अबकी बार सुंदर सिंह ने इंटैलिजेंस को सूचित और विश्वास में लेकर रघुवीर सिंह को जेल और अपने दोस्त को बेघर होने से बचाया। समाज में दोषी लोगों को सज़ा दिलाने का काम भी समाज के लोगों के द्वारा जागरूक होकर किया जा सकता है। “इस तरह तेरा घर भी बच गया और उन बदमाश बाप-बेटी का पर्दाफ़ाश भी हो गया वरना इस तरह ना जाने कितने और घर बिकवा देते हैं।“ (पेज-102) 

आस्था जीत गई कहानी में आस्था की जीत की कहानी है। साथ ही ईश्वर के प्रति अगर आस्था सच्ची हो तो भगवान किसी ना किसी रूप में सहायता करने आते हैं। सतीश अपनी पत्नी साधना के साथ, बेटे आयुष के साथ दो किलोमीटर लंबे जाम में राजमार्ग में फँस जाता है। बेटे का बढ़ता बुखार, गर्मी का मौसम, जाम की किल्लत में थका हारा बेचैन सतीश कभी गाड़ी से बाहर निकाल कर जाम खुलने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। उसके मुख से निकले यह शब्द “इतने वाहनों की क़तार में कोई डॉक्टर भी तो हो सकता है। हाँ अगर इस व्यक्ति पर ईश्वर की कृपा हुई, तो ऐसा हो सकता है। क्यों न हम सब अपने कर्म से इस कृपा हो इस तरह पहुँचाने का जतन करें 30-35 वर्षीय एक युवक ने कहा और दो आगे की ओर बढ़े और दो पीछे की ओर डॉक्टर की तलाश में निकल पड़े।“ (पेज-105) डॉक्टर को ढूँढ़ कर लोगों ने सतीश के बच्चे की जान बचाई। यह कहानी आंदोलनों के कारण आए दिन जाम के दुष्परिणामों की ओर भी संकेत करती है। साथ ही साथ वीआईपी कल्चर के कारण ट्रैफ़िक जाम कर देना कहाँ की समझदारी है। ऐसे समय में फँसे लोग मर भी जाते हैं, परीक्षा अर्थात् आवश्यक अवसरों से चूक भी जाते हैं। कहानीकार ने इन सब को सामाजिक विद्रूपता समझा है। यह सत्य भी है। ऐसी सोच आज के समय की माँग भी है।

ठौर कहानी में अच्छे कर्मों का, ईमानदारी का, अपनों का और सबका हित सोचने वाले व्यक्ति को जीवन में उतार-चढ़ाव अवश्य देखना पड़ता है। किंतु उसको उसकी ज़िंदगी का एक ठौर मिल ही जाता है। ईश्वर, उतार-चढ़ाव को संघर्षों को माध्यम बनाकर उसकी परीक्षा अवश्य लेता है। फिर उसे ठौर भी वही देता है। जीवन जीने की कला सिखाती यह कहानी एक रघुवीर और सावित्री की नहीं है, हर अच्छे इंसान की इंसानियत की यह कहानी है। कहानीकार ने यथा नाम तथागुण या फिर यह कहीं भारतीय मिथकों के नाम रखे पात्रों के माध्यम से उनकी मानवतावादी सोच को दर्शाया है। यहाँ पर उन्होंने भारतीय संस्कृति के उदार रूपों को सामान्य ढंग से वर्णित करते हुए उन्हें विशिष्ट बना दिया है। नामी प्रसिद्ध बने साहित्यकारों की तरह मिथकीय पात्रों के माध्यम से भारतीय संस्कृति का उपहास नहीं उड़ाया है। वास्तव में ऐसे रचनाकार ही श्रेष्ठ होते हैं, जो कला को जीवन के लिए जरूरी मानते हैं। घर के सबसे छोटे पुत्र रघुवीर का अपनी पत्नी सावित्री के साथ शहर में नौकरी करते हुए अपने हिस्से की ज़मीन भी बड़े भाइयों के नाम लिखकर हमेशा भाइयों की मदद करता रहता है। बुरे वक़्त में उसके बड़े भाई-भाभी उसे ताने मारते हैं। कोई उसकी सहायता नहीं करता, मिल की नौकरी छूट जाने पर दाने-दाने को मोहताज़ हो जाता है। परिश्रमी रघुवीर बस अड्डे पर सामान ढोने वाले मज़दूर की तरह काम करने पहुँचता है। वहीं पर उसे एक सेठ मिल जाता है, जिसकी बेटी की जान रघुवीर ने बचाई थी। वह उसे अपने घर ले जाता है। अपने विद्यालय में उसे, उसकी पत्नी को नौकरी देता है और उसके बच्चे उसी विद्यालय में पढ़ने लग जाते हैं। “आखिर इतने बड़े संघर्ष के बाद उसकी जिंदगी को एक ठौर जो मिल गया था।“ (पेज-114) प्रेमचंद की तरह रमेश पोखरियाल जी की इस कहानी में सावित्री का व्यावहारिक ज्ञान धनिया की तरह दिखता है। वह अपने पति को बार-बार सचेत करती है। कहानी के तत्वों के आधार पर यह एक बेहतरीन कहानी है। 

हम हैं न साथ यह कहानी हँसी ख़ुशी संतोष सब चीज़ें आपके अंदर हैं, ईश्वर ने दी हैं, यह बताती है। हम अपने काम, क्रोध, लोभ, मोह के कारण इन से छूटते जाते हैं और दुखी रहते हैं। जीवन ज़िंदादिली का नाम है। यह भाव कहानीकार ने बेहतरीन ढंग से सिखाने का प्रयास किया है। इस कहानी के माध्यम से हँसमुख लाल जैसे पात्र हमारे जीवन में आते हैं। परंतु हम उन्हें पहचान कर भी उनसे कुछ सीखते नहीं हैं। ऐसे पात्र भाई-भतीजे बनकर भी आते हैं और मेरी ज़िंदगी में तो अवश्य ही आए। यही कारण है कि हँसमुखलाल एक पात्र न बनकर समाज के उन लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, जो ज़िंदादिली से जीते हैं। “जिंदगी के एक एक क्षण में एक एक घटना में ख़ुशियाँ छिपी हैं बस उन्हें ढूँढ़ कर जीने की जरूरत है।“ (पेज-118-119) हंसमुख लाल कमिश्नर ऑफ़िस के बाहर 15 वर्षों से ठेला लगाता है। “उसकी बातों में चुंबकीय शक्ति थी और शरीर में बिजली जैसी फुर्ती। उसके कुशल व्यवहार और हाजिर जवाबी से सब मंत्रमुग्ध रहते थे। चर्चा घरेलू हो या बाजार की, धार्मिक हो या राजनैतिक, वह हर चर्चा में हिस्सा लिया करता और अपने तर्क भी देता था। साथ ही व्यंग्य तथा चुटकुलों से उस विषय को रोचक बना देता।“ (पेज-116) दीन-दुखियों को बिना पैसा लिए बुलाकर वह चाय पिलाता। पूछने पर अपने को दो बच्चों को सेंट मैरी और बेटी को आंगनबाड़ी में जाने की कहता। पत्नी का पैर ख़राब होने के कारण घर पर लिफ़ाफ़े बनाने की बात करता और जीवन में “कोई भी टेंशन नहीं है। खुला खाते हैं, ऐश करते हैं, साहब।“ (पेज-118) वह शुक्रवार को केवल ठेली बंद करता। फेफड़े में कैंसर से ग्रस्त होने पर भी अपना दर्द घर और बाहर किसी को नहीं बताता। ठेली ना लगने पर शुक्ला जी और रामप्रसाद जी उसके घर पहुँचते तब उनको पता चलता है, वह दोनों उसी वक़्त सब इंतज़ाम करके दिल्ली ऑपरेशन के लिए भेजते हैं। “हँसमुख वह तो हतप्रभ था। लोगों का प्रेम देखकर आँखों से आँसू छलक आए उसके। शायद पहली बार किसी ने उसकी आँखों में देखे होंगे।“ (पेज-122) वास्तव में अगर आपका व्यवहार अच्छा है तो आपकी मदद करने वालों की कमी नहीं है। जीवन जीना आना चाहिए। आप कैसे जीते हैं, यह उम्दा कहानी बताती है। 

कफन कर्ज़ में ग़रीब मज़दूर दिहाड़ी वाले खदानों, रेत मिट्टी नदियों से निकालने वाले लोगों की कहानी है। सरकारी रोक अवैध धंधों के कारण यहाँ काम करने वाले मज़दूर मजबूरी में यहाँ काम करते हैं। मालिक की सुनें, मार खाएँ और जेल भी जाएँ। काम बंद होने पर गबरू जैसे मज़दूर को अपने बेटे की दवाई के लिए भी पैसे मालिक से नहीं मिल पाते हैं। मंजरी दवा ना मिलने के कारण अपने बेटे को खो देती है। सब जगह से निराश गबरू बेटे का इलाज नहीं करवा पाता, “जीते जी तो हम बिटवा की रक्षा ना कर पाए अब तो संस्कार करेंगे ही। वरना ऊपर जाकर बिटवा को क्या मुँह दिखाएँगे, जाओ बनिए के पास, मालिक के पास जाओ बोलो यह आखिरी कर्ज़ा है और बहुत ज़रूरी भी है।" गबरू एक बार फिर कफन के लिए कर्ज़ माँगने मालिक के द्वार पर खड़ा था। (पेज-129) ग़रीबी मजबूरी की यथार्थमयी मार्मिक कहानी प्रेमचंद की याद दिलाती है। पूस की रात की और फिर कफ़न की। 

टेढ़े मेढ़े रास्ते युवा वर्ग के भटकाव की कहानी है। टेढ़े मेढ़े रास्ते किसी भी प्रकार से जल्दी से पैसा कमाने की सोच, शॉर्टकट अपनाना, स्वयं को और परिवार को बदनाम करता है। मायाराम फ़ौजी का बेटा लाल सिंह अपने दोस्तों के साथ उनके बँगले को देख कर जल्द अमीर बनने की चाहत रखता है। दिल्ली में नौकरी और पार्ट टाइम करके गाँव में परिवार में माता-पिता को लंबी गाड़ी से हैरान करके प्रसन्न करता था। यह हैरानी दुख में बदल जाती है जब फोन द्वारा उसे सूचना मिलती है कि उसका बेटा 3 करोड़ की हीरोइन के चक्कर में विदेश की जेल में है। पैसों की भूख ने मुझे पथभ्रष्ट कर दिया था और सचमुच पैसों की भूख लाल सिंह जैसे युवाओं को पथभ्रष्ट कर देती है। अभिभावकों को ध्यान रखना चाहिए कि उनका बेटा इतना पैसा कहाँ से लाया? जीवन सीधे-साधे ढंग से जीना चाहिए ग़लत रास्ते ग़लत मंज़िल पर ले जाते हैं। यह कहानी सीधे ढंग से मेहनत करने को प्रेरित करती है।

उम्र कैद आत्मा की, धर्म की आवाज़ सबसे ऊपर होती है। कानून को धोखा दिया जा सकता है, धर्म को नहीं। यही कारण है आत्मा हमेशा पीछा करती है। यह कहानी आत्मा की आवाज़ को बेतहरीन ढंग से बयान करती है। नीहारिका कनाडा में पली, शिक्षित नारी है, जिसका विवाह भारत में रह रहे रईसजादे सुहास के साथ हो जाता है। सुहास जो एक लड़की की हत्या के जुर्म पर पैसे और पिता की ताक़त के बल पर छूट जाता है। नीहारिका सास-ससुर और घर के वातावरण और अख़बार में छपी ख़बर से कि पैसे और ताकत के बल पर रईसजादा हत्या और बलात्कार के जुर्म से मुक्त। (पेज-152) यह ख़बर और घर में पूजा के समय माँ कोकिला का अपने पुत्र सुहास से कहना “अब कोई ऐसा काम नहीं करना, जिससे इतना तनाव हो सबको। आई एम सॉरी मॉम, मेरी वजह से सबको इतनी परेशानी हुई। दरअसल, न सुनने की आदत न थी मुझे। वो मामूली से मास्टर की बेटी, इतना गुरूर था उसे अपनी सुंदरता पर कि मुझे न बोला, मुझे ! नाथ परिवार के इकलौते वारिस को। बस भूत सवार हो गया मुझ पर। उसे पाने का और मॉम-डैड, आपने भी तो कभी किसी चीज के लिए मना नहीं किया मुझे, जो माँगा, वह दिया।“ (पेज-156) नीहारिका की बेटी पीहू का पूछना रेप क्या होता है? शेफाली कह रही है कि मेरे पापा ने रेप किया है। एक औरत एक बेटी की सोच को दर्शाते हुए कहानीकार ने सुहास को तो बरी दिखा दिया। लेकिन नीहारिका उसका क्या? वह तो सभी कुछ जानते हुए एक दोषी के साथ उम्र भर की सजा भुगतने को विवश है। बहुत ही मार्मिकता और संवेदनशीलता से भरी यह कहानी है।

मेरा कसूर क्या बाल मनोविज्ञान से भरी अमन की यह कहानी है। मात्र 12 वर्षीय अमन के बाल मनोविज्ञान की यह कहानी है, उसके मस्तिष्क में उठने वाले सवालों और जवाबों की कहानी है। अपने भाई नीलेंद्र के द्वारा उसकी भाभी अर्थात् नीलेंद्र की पत्नी अरुणिमा का आए दिन पिटना, उसका चिल्लाना मत मारो मुझे, क्या बिगाड़ा है मैंने तुम्हारा? तुम तो सब जानते थे, मेरे परिवार के बारे में। (पेज-157) अमन का अपने माता-पिता से कहना पूछना क्यों भाई भाभी को मारते हैं। पूरे क्रियाकलाप में माता-पिता का मौन बने रहना, दर्द की पीड़ा को अनसुना कर देना। अरुणिमा की ग़रीबी, पिता की मजबूरी, दहेज़ ना लाना, दहेज़ के लोभियों की काली करतूतें हम आए दिन समाचारपत्रों में पढ़ते हैं। यह कहानी उसी दर्द की गाथा है। जला कर मार दी गई अरुणिमा और गवाही में सास-ससुर और नाबालिक अमन को भी जेल हो जाती है। बालमन से युवा हुआ अमन इस पीड़ा से इतना घायल होता है कि 8 साल बाद जेल से छूटने पर भी घर नहीं जाता। अपने माता-पिता और भाई के प्रति घृणा से भर जाता है, पर वह तो अपनी भाभी को प्यार करता था। हमेशा उन्हें हँसाता था, फिर उसका नाम कैसे लिखवा दिया गया, उसका आखिर क्या दोष था? समाज की ज्वलंत समस्या को बेहतरीन तरीक़े से बयान किया है। बच्चों को यह कहानी पढ़नी चाहिए। 

नई आशा वृद्ध विमर्श को दर्शाती यह कहानी युवा पीढ़ी को सोचने समझने को मजबूर करती है। अनूप की जिंदगी अपनी पत्नी आशा के साथ ठीक ठाक चल रही थी। सास-ससुर के बीमार पड़ने और एक बच्ची को जन्म देने पर घर के कामकाज के कारण वह बूढ़े माता-पिता को काटने दौड़ती है। अनूप उसे समझता है, देखो आशा माता-पिता अब बूढ़े हो गए हैं। कितने दिन और जीयेंगे, इसीलिए क्यों उनके प्रति अपना मन ख़राब करती है। (पेज-163) आशा को एक बात भी अनूप की ना भायी। वे बूढ़े माता-पिता अपने कारण बेटे की जिंदगी को ख़राब देखना नहीं चाहते थे। वे दोनों एक दिन घर से बाहर निकल गए। अनूप सारा दोष आशा को दिया तो वह अपनी बच्ची लेकर अपने मायके चली गई। समझदार पिता ने बहुत समझाया, पर ज़िद्दी आशा नहीं मानी तो पिता बिरादरी क्या कहेगी? शर्म से स्वयं को कमरे में बंद कर लिया। कमरा खुला वह मृत पाए गए। अनूप घर छोड़कर अपने माता-पिता की खोज में वृद्ध आश्रम खोजते खोजते माता पिता को खोज कर ख़ुशी-ख़ुशी घर लौटने लगा। उधर गाँव के दो लड़के अकेली जवान औरत को देखकर आशा के घर घुसे और पकड़े जाने पर आशा पर ही उन्होंने दोष मढ़ दिया गया कि आशा ने ही उन्हें बुलाया था। ऐसे बुरे समय में अब आशा को अपने पति और सास-ससुर की याद आई। वह बच्ची लेकर घर पहुँच गई, नई आशा के साथ। सब ख़ुशी-ख़ुशी रहने लगे। सकारात्मक सोच के साथ लड़की के पिता का कर्तव्य, सास ससुर का कर्तव्य, बेटे का कर्तव्य और बहू के कर्तव्य को बेहतरीन ढंग से बयान किया है। ग़लती होने पर ग़लती सुधारना बहुत बड़ी बात है। फिर किस से ग़लती नहीं होती है, आशा को उसके सास-ससुर और पति घर में देखकर ख़ुशी-ख़ुशी अपनाते हैं। 

फिर जीवन जीने के लिए यह कहानी हताशा, तनावग्रस्त टूटे मन के हारे व्यक्ति की है। यह मात्र गजेंद्र की नहीं अपितु उस समाज के लोगों की है, जो लोन लेकर बड़े-बड़े काम करते हैं। भविष्य की अनचाही काली परछाई उन्हें ध्वस्त कर देती है। घर में बंद करके जीवन ख़त्म करने वाले लोगों को दिशा देती है। “इस अपमान भरे जीवन से तो संसार त्याग देना बेहतर, उसके पीछे कुछ भी होता रहे उसे क्या पता चलेगा।“ (पेज-171) यह भाव गजेंद्र को निराश आत्महत्या की ओर ले जाने लगता है। केदारनाथ की प्रलय होटल पर बैंक का कर्ज़ा, सोना बिकना और अब इज़्ज़त का डर। अरे चोरी, बेईमानी, डकैती तो नहीं कि फिर किससे डर। “अगर जीना भी मुश्किल है और मरना भी, तो क्या जीने का विकल्प ज़्यादा बेहतर नहीं। उसने अपने आप से प्रश्न किया?” (पेज-176) यह विचार आते ही वह कई महीनों के बाद सो पाया, एक बार फिर जीवन जीने के लिए। 

डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक जी का कहानी संग्रह वाह जिंदगी कहानी के तत्वों के आधार पर खरा उतरता है। सभी कहानियाँ समसामयिक समस्याओं को लेकर लिखी गई हैं तथा कथानक की लघुता और सीधी चाल से चली, कही गई कहानियाँ अपने उद्देश्य को सीधे प्रकट करती हैं। कहानी में जिज्ञासा का भाव लगातार बना रहता है। जब तक कथानक चरम सीमा तक नहीं पहुँचता है। हर कहानी 3-4 पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है। ये अपनी ही कहानियाँ लगने लगती हैं। कहानियों में संवाद पात्रानुकूल, समयानुकूल, सरल वाक्य में संक्षिप्त रूप से लिखे गये हैं। इनकी भाषा पोखरियाल जी के व्यक्तित्व की भाँति सहज सरल हैं। कहीं भी भाषा की क्लिष्टता, संस्कृतनिष्ठ शैली का प्रयोग नहीं है। सीधे-साधे रास्तों पर चलकर जीवन जीने वाले कहानीकार का व्यक्तित्व इनकी कहानियों में झलकता है। इनकी चाहे वाह जिंदगी, वापसी, साक्षात्कार, रद्दी वाला, वक़्त की ठोकर, दुष्चक्र आदि कोई भी कहानी हो। वह जीवन जीने का संदेश देती हैं। इनके पात्र हमारे जीवन के लगते हैं। नई आशा कहानी में आशा पात्र हमारे घर की बहू की तरह ही है। कहानीकार ने अपने पात्रों को सँभाल कर भटकते समाज को दिशा दी है। मेरा कसूर क्या का पात्र निर्दोष अमन पाठक को अपना लगता है। रमेश पोखरियाल जी को ना पढ़ना, यह हमारा दोष हो सकता है कहानीकार का नहीं। यह कहानीकार प्रेमचंद, अज्ञेय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बी.एल. गौड़ आदि की तरह साधना में लीन होकर काम करते हैं, जो पढ़ता है उसे आनंद भी मिलता है। इनकी कहानियाँ नौवीं कक्षा से लेकर बी.ए. तक के छात्रों को पढ़नी-पढ़ानी चाहिए। इस तरह की कहानियाँ बहुत शिक्षाप्रद होती हैं। समाज के लिए, युवा वर्ग के लिए और मानवीय रिश्तों को उष्मा देने के लिए, संवेदनाओं की तासीर बनाए रखने के लिए इन्हें पढ़ना अच्छा होगा।

डॉ. सुधांशु कुमार शुक्ला
चेयर हिंदी,
आई.सी.सी.आर.
वार्सा यूनिवर्सिटी,
वार्सा पोलैंड
+48579125129


 

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