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यात्रा

स्मरण नहीं लेकिन
असंख्य कल्पों की बात ठहरी यह
स्मृतिपटल पर तुम्हारे हाथों से
भिक्षापात्र लेकर शुरू की गई
एक दीर्घकालिक यात्रा याद आती है
 
भिक्षाटन करती रही युगों युगांतरों तक
संसार डालता रहा पात्र में
प्रणय, घृणा, विभत्सता, शोक
तुच्छता, दया, स्नेह का अन्न
किंतु जब मुड़कर तुमको देखती
तुम्हारा सौम्य दृष्टिनिक्षेप
मुझे वीतरागी कर देता
 
पुनः तुम तक आने की अभीप्सा में
बैठी रही अडिग प्रतीक्षारत मैं
पलक बंद होने तक का व्यवधान
न आने दिया इंतज़ार में

थक कर जब कभी नींद आती
तो स्वप्न में दिखता एक प्रपात
जो ऊर्ध्वगामी हो उल्टा बहता
अपने मूल की ओर
एकाकी, निर्बंध
 
सायंधृति के बाद कहीं दूर क्षितिज से
धीमे धीमे आती पखावज की ध्वनि
सरस सारंगी की धुन
और नर्तन करने लगते आँखों के सामने
तुम संग भोगे अतीत के क्षण
 
देह के अपने धर्म
लेकिन, हृदय की साधना
“अरण्य नीरवता” में लीन है

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