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यह समय भी बीत जाएगा

किसी भी प्राणी के जन्म से मृत्यु पर्यंत की यात्रा को जीवन का नाम दिया जाता है। इस सृष्टि में मनुष्य का जीवन दूसरे प्राणियों की अपेक्षा बिल्कुल भिन्न है। जहाँ सृष्टि के अन्य जीवों का जीवन का एक निश्चित प्रक्रिया तक सीमित रहता है और उसके इर्द-गिर्द ही घूमता है वहीं मनुष्य का जीवन विभिन्नता से भरा है। किसी भी मनुष्य के जीवन में अनेक अप्रत्याशित एवं अनिश्चित उतार-चढ़ाव देखने को मिलते हैं। हिंदी फ़िल्म ‘अंदाज़’ के हसरत जयपुरी साहब के सुप्रसिद्ध गीत “जिंदगी इक सफ़र है सुहाना यहाँ कल क्या हो किसने जाना’’ में यह बात बख़ूबी कही गयी है। दरअसल जिस प्रकार समय परिवर्तनशील है उसी तरह मानव जीवन में भी कभी कुछ भी निश्चित नहीं रहता। 

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं और मानव का जीवन दूसरे जीवों की तरह खाने-पीने और वंश वृद्धि तक ही सीमित नहीं है जो अपने आप में विशेष है। वह दूसरे प्राणियों से बिल्कुल भिन्न ढंग से जीवन जीने का प्रयास करता है। जीवन में आने वाले हर उतार-चढ़ाव को अपने हर संभव प्रयास से पार पाने की कोशिश करता है। सदा से ही इसी कोशिश के चलते वह सृजन से लेकर के वर्तमान अपने प्रकृति प्रदत्त बुद्धि कौशल से प्रगति पथ हमेशा आगे बढ़ने का प्रयास करता आया है तथा सतत प्रयत्नशील रहता है। जिसके चलते वह बहुत कुछ ऐसा भी करता रहा है जो मानव जाति, प्रकृति अथवा दूसरे जीवों के लिए किसी भी दृष्टि से उचित नहीं जान पड़ता। 

हम मनुष्यों के द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और स्वयं के लाभ के लिए दूसरे मनुष्यों या प्राणियों के प्रति सद्भावना के अभाव को हम सही नहीं ठहरा सकते । यह बात केवल वर्तमान की ही नहीं है अपितु बीते हज़ारों वर्षों की रही है। किसी आपदा के समय दृष्टिगोचर होता मानवता का अभाव ही मानवता का सबसे बड़ा शत्रु है । मानव जाति ने प्राचीन काल से ही अनेक आपदाओं को झेला। जिनमें अकाल, बाढ़, भूकम्प, चक्रवात, युद्ध, विभाजन अथवा विषाणुजन्य कोविड जैसी बीमारियाँ शामिल हैं। पर सदा से ही हम सब के बीच के ही कुछ लोगों ने आपदाओं को अवसर में बदलने के लिए कार्य किया। उन्हें दूसरों भावनाओं या संवेदनाओं से कोई  सरोकार नहीं रहा। सदा मानव ही मानवता का शत्रु बनता रहा है। इस प्रकार के कईं उदाहरण आपको मिल जायेंगे। वर्तमान की ही बात करें तो ज़्यादा उचित जान पड़ती है। कयोंकि वर्तमान की स्थितियों को स्पष्ट करने के लिए हमें गवाह और संदर्भों की आवश्यकता नहीं होगी। 

कोविड-19 को ही ले लीजिए, जिसके गवाह हम सब हैं। पिछले लगभग डेढ़ वर्ष से सारा विश्व पूरी मानवजाति कोविड की मानव निर्मित आपदा से जूझ रही है। यह वर्णन अपेक्षित नहीं है कि कोरोना वायरस का जन्म कहाँ हुआ अथवा इस जैविक युद्ध को किसने प्रोत्साहित किया। किंतु एक बात का वर्णन यहाँ अवश्य अपेक्षित है कि इस भीषण आपदा का जन्मदाता मानव ही है। इस आपदा से जहाँ दुनियाभर में हाहाकार मचा वहाँ हमारे आसपास होती कालाबाज़ारी, लाशों के ऊपर होती राजनीति, आपदा के समय अवसर की तलाश; मनुष्य की जिस संवेदनहीनता की ओर इशारा करती है वह चिंतनीय है। फिर वायरस का फैलना, उसके नए वेरिएँट आना तो प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक प्रक्रिया के परिणाम हैं। जो चिंतनीय हो सकते हैं पर उतने चिंतनीय तो नहीं, जितना अवसरवाद, कालाबाज़ारी और लाशों के ऊपर होती राजनीति चिंता का विषय हैं—

“निश्चित पतन हुआ है मानो मानव के संस्कारों में
अपना पराया ढूँढ़ रहे हम लाशों के अम्बारों में 
बहुत ख़ूब अहसास हो गया आधुनिकता ने छोड़ी छाप
चल मानवता धारण कर लें नर हरे आज नर का संताप
कौन है अपना कौन पराया व्यर्थ का मत कर यह प्रलाप॥” 

लाखों लोगों को खो देने वाले एक भयावह दौर से गुज़रने के दौरान जब मानवता गौण हो गई हो तो सब कुछ सामान्य दिखाना आदर्शवाद तो हो सकता है पर यथार्थ नहीं। इसी प्रकार शव के अंतिम संस्कार के लिए श्मशानों के बाहर प्रतीक्षा कर रहे लोगों को ’Be Positive’ कहना किसी भद्दे मज़ाक से ज़्यादा कुछ नहीं है। ऐसी परिस्थितियों को संवेदनशील ढंग से नियंत्रित किया जा सकता है, सँभाला जा सकता है। संवेदना शून्य जनमानस इस प्रकार के हालात में अपेक्षित नहीं है, न ही हालात सँभालने के लिए उपयुक्त है। ऐसे में इस बात का फ़ैसला करना कि समय ख़राब है या नहीं अथवा इस समय को बुरा कहना उचित है या नहीं; बड़ा आसान नहीं है। दूसरा 'ख़राब या बुरा' शब्द को आप कैसे परिभाषित करते हैं; यह अपने आप में एक बड़ा प्रश्न है और विचारणीय भी है। 

समय को कैसा समझा जाए; यह जानने के लिए हमें तीन प्रकार की विचारधाराओं पर ध्यान देना पड़ेगा। जिनमें से एक है भौतिकवाद या आधुनिकता, दूसरी परम्परावादी या भाग्यवादी  तीसरी विचारधारा है मध्यमवर्गीय; इन सब पर विचार करने के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है। 

सबसे पहले भौतिकवाद या आधुनिकता पर आधारित विचारधारा की बात करते हैं। भौतिकवादी विचारधारा में विश्वास रखने वाले लोग हमेशा सकारात्मकता की बात करते हैं। इस प्रकार की सोच के लोग 'खाओ पीओ और ऐश करो' को लक्ष्य करके जीवन जीते हैं। इनके लिए स्वर्ग–नरक जैसा कुछ भी सत्य नहीं होता। हर बात को वैज्ञानिक कसौटी पर कसते हैं और तर्क के साथ अपनी बात को सिद्ध करते हैं या करने का प्रयास करते हैं; जो अच्छी बात है। लेकिन आधुनिकता की इस बयार में बहते-बहते कब वह संवेदनाहीन हो जाते हैं; इस बात का उन्हें स्वयं भी पता नहीं चलता। पर जब पता चलता है और मानवता जागृत होती है तो आत्मग्लानि की अनुभूति होती है। इनके लिए हर घटने वाली घटना केवल शोध और व्यवसाय तक सीमित रह जाती है। यहाँ आप सभी को विदित एक घटना उद्धृत करना अपेक्षित और प्रासंगिक जान पड़ता है। आपको याद होगा दक्षिण अफ़्रीकी मशहूर फोटो जर्नलिस्ट केविन कार्टर ने मार्च 1993 में साउथ सूडान जाकर फोटोशूट किया था। इस फोटोशूट में केविन कार्टर ने अनेक दर्दनाक मंज़र देखे। उसी दौरान केविन ने साउथ सूडान में भुखमरी से जूझ रही एक बच्ची को देखा। जो पूरी तरह मरने की कगार पर थी और एक गिद्ध उसका पीछा कर रहा था। केविन ने लिखा कि उन्होंने 20 मिनट तक उस गिद्ध के वहाँ से उड़ने का इंतज़ार किया और जब वो नहीं उड़ा तो उन्होंने ये फोटोग्राफ क्लिक किया। जिसने उन्हें पुलित्ज़र अवार्ड जिताया। 

बाद में केविन कार्टर ने इस फोटो को न्यूयॉर्क टाइम्स को बेच दिया। यह फोटो पहली बार 26 मार्च 1993 को न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित हुआ। फोटो के साथ लिखा था "Metaphor For Africa’s Despair" (अफ़्रीकी हताशा का रूपक)। इसके प्रकाशित होते ही अनेक लोगों ने केविन कार्टर से इस बच्ची के बारे में हज़ारों सवाल किए। उन पर यह आरोप भी लगाए गए कि उसने उस समय फोटो खींचना ज़्यादा ज़रूरी समझा, बच्ची को बचाना नहीं। जबकि वह चाहते तो उस बच्ची को बचा सकते थे। वह इस दर्दनाक मंज़र से नहीं उबर सके और उन्हें हमेशा उस इथोपियाई बच्ची की याद आती रही। लोगों के सवाल और उलाहने उनको परेशान करते रहे। यही ग्लानी और अपराध बोध सताता रहा कि उन्होंने उस बच्ची को बचाने की कोशिश नहीं की और न ही यह देखा कि वो ज़िंदा रही या मर गई। इसी अपराध बोध और ग्लानी में क़रीब तीन महीने बाद उन्होंने आत्महत्या कर ली।

ऐसी घटनाएँ आपको वर्तमान में भी यहाँ-वहाँ देखने को मिल जायेंगी। प्रो.सारस्वत मोहन मनीषी के शब्दों की अमिट सच्चाई को जाने हम क्यों भूल जाते हैं— 

“इतनी गर्मी इतनी धूप
 पीता सूर्य रूप का सूप
सब लेटेंगे माटी में
छोटा बड़ा रंक या भूप।”

कोरोना वायरस है और इससे ही यह भयंकर समस्या खड़ी हुई है। यह जानलेवा है और इससे बचाव ही सुरक्षित रहने का एकमात्र उपाय है। यह सच है और इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। जो इसे उचित नहीं समझते थे, उन्होंने ऐसा समझने का ख़म्याज़ा भी भुगता है। पर, केवल उन्होंने ही ख़म्याज़ा भुगता; ऐसा भी नहीं है। इसका असर तो हर आम-ख़ास तक पहुँचा है। वैसे भी भौतिकवादी भूल जाते हैं कि मनुष्य मशीन नहीं अपितु भावनाओं में बँधा एक संवेदनशील जीव है। जिसे हर बार तर्क से नहीं बल्कि कभी‌-कभी भावनात्मक रूप से समझने और समझाने की आवश्यकता भी होती है। दूसरा ये सारी तार्किक बातें भूख और मौत के आगे बेमानी हो जाती हैं; जिससे कोई भी इन्कार नहीं कर सकता।

इसी में दूसरी विचारधारा है भाग्यवादी या परंपरावादी। इस विचारधारा से जुड़े जनमानस की सोच आध्यात्मिक चिंतक-सी प्रतीत होती है। ये संसार में घटित होने वाली हर घटना के ईश्वर को ज़िम्मेदार मानते हैं। किसी भी विकट परिस्थिति में परमात्मा की शरण लेते हैं और उनकी आराधना करते हैं। इसके साथ-साथ भाग्य को हर अच्छी या बुरी घटना के लिए उत्तरदायी ठहराते हैं। पर इन सब बातों के बीच एक रोचक बात यह है कि जो अच्छा हुआ उसका श्रेय भाग्य को दिया जाना और जो बुरा या स्वयं के अनुकूल नहीं हुआ तो उसका ज़िम्मेदार ईश्वर को मानना है। यहाँ उनका तर्क ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ से होता है जहाँ भगवान श्री कृष्ण स्वयं को सब कुछ करने वाला बताते हैं—
    
“अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥”

परम्परावादी इस उक्त श्लोक को तो मानते हैं पर जाने क्यों ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में ही कही विश्वप्रसिद्ध बात को मानने में संकोच करते हैं—

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥”

इसी प्रकार ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ की तरह तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ के माध्यम से भी कुछ तर्क दिए जाते रहे हैं। रामचरितमानस के कुछ दोहों/चौपाइयों के माध्यम से अपनी बात स्पष्ट की जाती है— 

“होइहि सोइ जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा।
अस कहि लगे जपन हरिनामा, गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥” 

अथवा—

“सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलख कहेउ मुनिहु नाथ।
 हानि लाभ जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ॥”

कभी भी कुछ भी बिना विधाता की इच्छा के नहीं होता है जो प्रभु चाहते हैं वही होता है। पर गोस्वामी तुलसीदास जी तो कर्म के मर्म को भी बख़ूबी जानते थे— 

"सकल पदारथ एहि जग माहिं, कर्महीन नर पावत नाहिं॥"

तभी उन्होंने कहा है कि—

“कर्म प्रधान बिस्व रचि राखा, जो जस करै सो तसु फल चाखा।” 

चाहे बात भगवान श्रीकृष्ण की हो अथवा तुलसीदास की हो; दोनों स्थानों पर कर्म को महत्व दिया गया है और कहा गया है कि व्यक्ति जो करता है उसका परिणाम फलस्वरूप उसे भाग्य रूप में मिलता है अर्थात् यहाँ भी भगवान अपनी तरफ़ से कुछ भी नहीं करते यानी किसी के अहित में उनका कोई योगदान नहीं है । उनका कार्य उन्होंने निर्धारित किया है कि आप अपना कर्म करते चलो और फल की चिंता मुझ पर छोड़ दो । हाँ, एक बात परंपरावादी सोच में यह अवश्य अच्छी है कि कहीं ना कहीं इंसानियत की बात पर यहाँ चर्चा होती है। जबकि भौतिकवादी सोच में इसके लिए कोई स्थान नहीं है। 

अब तीसरी और अंतिम प्रकार विचारधारा के चिंतन की बात हम करते हैं वह है मध्यम वर्गीय। इस प्रकार की सोच रखने वाले ना पूरे भौतिकवादी होते हैं और ना ही पूरे परंपरावादी। ये मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हैं और दोनों विचारधाराओं में सामंजस्य बैठाने का प्रयास करते हैं। जीवन में मध्यम मार्ग जीवन को सफलता और संतुष्टि प्रदान करता है; यह भी सर्वथा सिद्ध माना गया है। अगर समीक्षा की दृष्टि से देखा जाए तो यह उचित भी जान पड़ता है। क्योंकि हर बात को ना तो तर्क के तराजु पर तोला जा सकता है ना ही हर बात को जीवन में तर्क के आधार पर निश्चित किया जा सकता है। इसी तरह से मनुष्य कर्महीन होकर के केवल भाग्य के भरोसे सब कुछ छोड़ कर बैठ जाए तो यह भी उचित नहीं जान पड़ता। कर्महीन होकर सब कुछ विधाता के भरोसे छोड़ देना कदापि उचित नहीं है। इससे न भौतिकवादी दृष्टि से सहमत हुआ जा सकता है और न ही इसे भाग्यवादी सार्थक सिद्ध कर सकते हैं।

ऐसे में उचित तो यही है कि हर बात का हमें आकलन करना चाहिए। भौतिकता का और अपनी परंपराओं का तालमेल बैठाते हुए परिस्थितियों को दोनों की कसौटी पर बराबर तोलते हुए आगे बढ़ना चाहिए। तभी सही दिशा में बढ़ा जा सकता है। समय शाश्वत है और इसकी अपनी सार्थकता है जिसे मनुष्य नहीं नकार सकता। मनुष्य को सतत प्रयास करते रहना चाहिए और कर्मरत रहते हुए परिणाम अथवा प्रतिफल के प्रति विरत होने का प्रयास करना चाहिए। चूँकि यह सर्वविदित और यथार्थ है कि कर्मफल की निश्चितता तो न भौतिकवादी सिद्ध कर सकते हैं और ना ही भाग्यवादी। कब किसी कर्म का परिणाम प्राप्त होगा और कैसा होगा; इस सम्बंध में कोई भी कुछ भी स्पष्टता से नहीं कह सकता। पर यह यथार्थ है कि कर्म के प्रतिफल का अहसास मनुष्य जीवन को सार्थकता प्रदान करता है। सार्थक या सकारात्मक सोच मनुष्य को सही दिशा में लेकर चलती है वहीं निरर्थक अथवा नकारात्मक सोच मनुष्य को अवसाद के गहरे कुएँ में धकेल देती है। 

उक्त सारी बातों को मद्देनज़र रखकर कहा जा सकता है कि समय कैसा भी हो, आप चाहे उसे अच्छा माने अथवा ख़राब किंतु शाश्वत है और परिवर्तनशील है। बेशक समय के लिए ही हर व्यक्ति का अपना आकलन रहता है। जो आपदा को अवसर में बदलते हैं उन्हें आपदा से बेहतरीन समय दिखाई नहीं देता। वही जो लोग किसी आपदा में अपना सब कुछ लुटा बैठते हैं उनके लिए वह समय जीवन का बुरा सपना होता है। लेकिन यहाँ भी मध्यममार्ग ही उचित है और बीच का सकारात्मक रास्ता अपनाना श्रेयस्कर जान पडता है। उदाहरण के लिए हम इस प्रसंग का आश्रय ले सकते हैं—

एक व्यक्ति अँधेरे कमरे में उदास बैठा था। तभी उसकी पत्नी वहाँ आयी तो उसने उससे कहा, "इस साल मेरा पैरों का ऑपरेशन हुआ, काफ़ी ख़र्चा हुआ था और पूरे 2 महीने तक मैं बिस्तर से उठ ना सका। अब उम्र 65 साल की हो गई है, बुड्ढा हो गया हूँ, पता नहीं और कितना जी पाऊँगा। इस साल पिताजी भी स्वर्ग सिधार गए। इस साल बेटे का कार एक्सीडेंट भी हुआ था। कितनी चोटें आईं थीं और कार की भी हालत बिल्कुल ख़राब हो गई थी। कार की मरम्मत करवाने में काफ़ी ख़र्चा भी हुआ। यक़ीनन . . . यह साल अपने लिए बहुत ख़राब गया।” इस पत्नी बोली कि आप ऐसा भी तो सोचकर देखिए “शुक्र है इस साल आपके पैरों का ऑपरेशन हो गया, इतने सालों से आर्थराइटिस का दर्द सहते आ रहे थे। आपकी उम्र अब 65 साल की हो गई है और भगवान की कृपा है कि आप अभी भी बिल्कुल स्वस्थ हैं। इस साल पिताजी भी स्वर्ग सिधार गए, शुक्र है कि 90 साल की उम्र में भी उन्हें कोई बड़ी बीमारी नहीं हुई और कभी उन्हें किसी पर निर्भर नहीं रहना पड़ा। इस साल बेटे का कार एक्सीडेंट भी हुआ था। पर, शुक्र है हमारे बेटे को कुछ नहीं हुआ। कार का क्या है, कम से कम बेटा तो सुरक्षित है। सच इस साल भगवान ने हम पर अपनी कृपा बनाए रखी और मुझे विश्वास है कि आगे भी हमारे सब काम बनाते रहेंगे।” 

भावार्थ स्पष्ट है सकारात्मक सोच हमें ज़िंदगी में आशा और आत्मिक शक्ति देती है जबकि नकारात्मक सोच हमें सिर्फ़ निराशा ही दे सकती है। जिससे ज़िंदगी में विफलता मिलती है। इसलिए अपनी सोच हमेशा सकारात्मक रखिए और ख़ुश रहिए। 

मनुष्य को हमेशा स्मरण रखना चाहिए, “समय परिवर्तनशील है और कभी नहीं ठहरता। इसलिए यह समय भी बीत जाएगा।’’ और हाँ, किसी ने बहुत ख़ूब कहा है—

"ये क्यों कहें दिन आजकल अपने ख़राब हैं
काँटों से घिर गए हैं समझो गुलाब हैं।"

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