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युग निर्माण में आत्म चेतना की भूमिका

आज वैश्वीकरण का युग है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र का भूमण्डलीकरण हो रहा है। मानव जीवन के सभी क्रिया-कलापों में मशीनीकरण हावी हो रहा है। बढ़ते तकनीकी एवं संचार साधनों ने जहाँ सभी को स्थूल रूप से एक-दूसरे के समीप कर दिया है वहीं मशीनीकरण के इस युग में सम्बन्धों का भावात्मक विच्छेद हो रहा है। शीघ्रता से होते हुए जीवन के इस मशीनीकरण में हम भीतरी आत्म-चेतना से दूर होते जा रहे हैं। हम सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों एवं परम्पराओं को भूलते जा रहे हैं।

मानव जीवन में युवावस्था का काल प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह वह समय है जब व्यक्ति स्वयं को एक पहचान और व्यक्तित्व प्रदान करता है। परन्तु वैश्वीकरण के इस युग में युवा-वर्ग भौतिक प्रगति एवं उन्नति की चमक-दमक में परम्परा, संस्कृति और मूल्यों को अनदेखा कर रहा है। जिसके कारण युवा-वर्ग संत्रास, कुण्ठा, अवसाद, अन्तर्द्वन्द्व एवं असुरक्षा की भावना से ग्रसित हो रहा है।

यद्यपि यह कहना ग़लत नहीं होगा कि भौतिक उन्नति और मशीनीकरण मानव जीवन का अभिन्न और अनिवार्य अंग बन गये हैं इसी के फलस्वरूप मानव सभ्यता अपनी असीम ऊचाइयों पर पहुँची है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उपयोगी भौतिक वस्तुएँ और उपकरण मानव की आत्मचेतना का ही परिणाम हैं। मनुष्य अपनी भीतरी शक्तियों को पहचान कर ही युग परिवर्तन में सफल हो सका है। असंभव से असंभव दिखाई देने वाला कार्य भी आत्म-चेतना के बल पर आसानी से किया जा सकता है।

सीता हरण के पश्चात् जब हनुमान सीता की खोज में निकले तो पहाड़, जंगल तथा मैदान सभी स्थानों पर खोजा किन्तु सीता नहीं मिली। फिर आगे समुद्र आ गया आत्मशक्ति से अनभिज्ञ हनुमान थक कर बैठ गए तब जामवन्त ने हनुमान को उनकी भीतरी सुप्त शक्तियों का बोध करवाया। आत्म चेतना से परिचय होते ही हनुमान की शक्ति के समक्ष समुद्र की शक्ति क्षीण हो गई। हनुमान अपने शारीरिक बल से समुद्र लाँघ कर लंका पहुँच गए और सीता का पता लगाया।

इस प्रकार आत्मशक्ति साधारण से मनुष्य को भी विलक्षणता प्रदान कर सकती है। आत्म-चेतना का ही परिणाम है कि हमें गौतमबुद्ध, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि दयानन्द एवं महात्मा गाँधी सदृश्य अनमोल रत्न प्राप्त हुए। इन महापुरुषों की अन्तःकरण की चेतना के आलोक ने न केवल स्वयं अपितु समस्त मानव जाति का पथ आलोकित किया है।

वर्तमान परिवेश में जहाँ चारों ओर भौतिकवादी, प्रतिस्पर्धायुक्त और मशीनीकृत जीवन शैली की प्रधानता दिखाई दे रही है; ऐसी परिस्थितियों में आत्म-चेतना के बल की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गई है। हमारी संस्कृति प्राचीन एवं गौरवशाली रही है। अध्यात्म और आत्मचेतना के बल पर ही भारत को विश्वगुरु का सम्मान प्राप्त था। भारत का वैदिक वाङ्मय ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद अपने समस्त ज्ञान भंडार को समाहित किये हुए है।

व्यक्तित्व के निर्माण और स्वप्नों को साकार बनाने का उचित समय युवावस्था ही है। आज का युवा वर्ग ही भविष्य का निर्माता है। अतः यह अत्यन्त आवश्यक हो गया है कि युवा शक्ति अपनी ऊर्जा का सकारात्मक प्रयोग कर रचनात्मक गतिविधियों की ओर अग्रसित हो नव निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान करे। मानव के अन्तःकरण में असीम शक्तियाँ पत्थर में अग्नि की भाँति अन्तर्निहित है। आवश्यकता है तो केवल उचित मार्गदर्शन और आत्म चेतना की ऊर्जा को अनुभव करने की।

आत्मचेतना के बल पर युवा शक्ति अपने सांस्कृतिक मूल्यों जैसे क्षमा, दया, करुणा, सत्य, अस्तेय, समन्वय, कर्मशीलता तथा संतोष आदि को अपनाकर उज्ज्वल भविष्य की ओर क़दम बढ़ा सकती है। आत्म चेतना की शक्ति द्वारा वे अपने अवसाद, अन्तर्द्वन्द्व, कुण्ठा, संत्रास एवं असुरक्षा के अवगुणों को पराजित कर चहुमुखी विकास कर सकते हैं। भीतरी उज्ज्वलता निश्चित ही व्यक्तित्व को बाहरी निखार प्रदान करती है। इसी के द्वारा युवावर्ग युग निर्माण के उज्ज्वल और स्वर्णिम भविष्य के सपने को साकार कर सकता है।

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