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ज़हरीली चाल

बेटे अर्जुन को शहर के नामी स्कूल में पढ़ाने का और सरकारी स्कूल में पढ़ती बेटी नेहा की अपरिपक्व उम्र में ही विवाह करके शीघ्र,अति-शीघ्र बोझ-मुक्त होने का निर्णय गृहस्वामिनी, माँ श्यामली का ही था। जिस पर कमज़ोर निर्णय वाला पुरुष पति और पिता रूप में मनोहर कुछ भी नहीं कर पाया था।

आत्मनिर्भर बनाने की तुलना में बेटी को पराश्रित रखते हुए विवाह में दहेज़ बचाने के लालच में जहाँ नेहा सोलह वर्ष की थी, वहीं दुलहा आकाश भी बीस वर्ष का अपरिपक्व बुद्धि युवक ही तो था। कहाँ तो माँ, बोझ मुक्त होने की उम्मीद में थी और कहाँ अब बेटी के साथ-साथ दामाद की ज़िम्मेदारियों ने भी उन्हें आ घेरा। माता-पिता के संरक्षण में रहते हुए देखते-देखते तीन बच्चे भी हो गए। बावजूद अब तक श्यामली बोझ मुक्त नहीं हो पाई थी।

बेटा भी आत्मनिर्भरता के बदले पिता की कमाई पर ऐश-मौज करने वाला ही निकला। कुछ समझाने की कोशिश करने पर उलटे अपनी माँ को ही पैसे के लालच से मुक्त होकर जीने और मौन रहने की हिदायत दे देता। बेटी-दामाद और उनके बच्चों पर होने वाले अनगिनत ख़र्चों पर उलाहना देने लगता।

विवाह योग्य बेटे की शादी से पहले बेटी-दामाद के ज़िम्मेदारियों से मुक्त होना भी ज़रूरी था। इसके लिए दामाद को आत्मनिर्भर बनाना भी एक यक्ष प्रश्न था। बहुत कुछ उन्नीस-बीस सोचते-विचारते सास-ससुर ने अपनी बेटी के मोह में एक बोलेरो गाड़ी ख़रीद कर दे दी, ताकि अब वह गाड़ी चलाकर, कमा सके और परिवार का निर्वाह कर सके। उनकी ज़िंदगी पूरी तरह आश्वस्त हो सके।

पर, वही एक ढाक के तीन पात। सारी कमाई खाने-पीने, ऐश-मौज में ही गुज़र जाती। अंततः हैरान-परेशान, विवशता में अपने सारे दुखड़ों के साथ नेहा फिर अपनी माँ के सामने हाथ फैलाए खड़ी मिलती।

खीझती माँ, अपनी बेटी को समझाती और बेटी अपने पति को। अन्ततः पति आकाश अनसुना करके मार-पीट, गाली-गलौज पर उतर आए। जिसका मूक दर्शक बच्चे और अड़ोस-पड़ोस के लोग होते। आए दिन तो अक़्सर यही होता रहता था।

बैठे-बिठाए मुफ़्त में खाने और जीने की आदत कब छूटने वाली थी? अत्याचार की हद तो यहाँ तक हुई कि शराब और कबाब के चक्कर में, अनियंत्रित आकाश की लीवर -किडनी सब खराब हो गई।

माता-पिता की मुसीबत अब और बढ़ गई थी। दामाद को लेकर जाने कहाँ-कहाँ नहीं भटकना पड़ा? श्यामली और मनोहर को, अपने दामाद की प्राण रक्षा के लिए। झाड़-फूंँक और इलाज के नाम पर सारी जमा पूंँजी निवेश, ज़मीन-ज़ायदाद बंधक रखकर, उधारी माँगने की ज़रूरत पड़ गई।

दामाद पर होने वाले ख़र्चों के साथ अब बेटे-बहू का दबाव भी अलग रूप में था। वह भी येन-केन-प्रकारेण बहती गंगा में हाथ डाल कर विवशता का अनुचित लाभ उठाने लगे। बेटी-दामाद पर जितना पैसा पानी की तरह बहा रही हो, हम पर भी होना चाहिए।

मनोहर की कमाई पर ही अब बहू के अवसरवादी माता-पिता हवाई यात्रा का टिकट कटा कर घूमने के लिए शामिल किए गए। श्यामली कुछ भी बोलने का मुँह खोले तो एक अलग महाभारत प्रारंभ हो जाता।

भारत के अलग-अलग अस्पतालों में यथासंभव लाखों रुपए खर्च करवाकर स्थानीय अस्पताल में आकाश ने आख़िरी साँस लिया था। दामाद हाथ से निकल गया। अन्तत: एक मुश्त लगभग दो लाख का बिल मुँह चिढ़ा रहा था। तत्काल जो बकाया जमा करना था। तभी दाहकर्म करने के लिए शव मिल पाएगा। यह एक अलग संघर्ष था।जिस संघर्ष में मनोहर-श्यामली, बेटी नेहा के साथ थे।

अपनों की नासमझी और ज़िन्दगी की ज़हरीली चाल की क़ीमत चुका रही है नेहा, अपने उम्र के मात्र तीस वर्ष में ही तेरह, ग्यारह और दस वर्ष के तीन बच्चों के साथ, जो ना तो पढ़ पाई और न ही कुछ कर पाई। अब तो मायके में भी भाई-भाभी के आँखों का काँटा बन चुकी थी। ससुराल में भी तो कहीं, कुछ नहीं बचा था पति की अकर्मण्यता-अयोग्यता और अपरिपक्वता के परिणामस्वरूप।
 

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टिप्पणियाँ

मधु 2021/10/22 01:40 AM

बहुत शिक्षाप्रद संदेश। बेटी का स्वावलम्बी होना यानि कि माता-पिता का बोझ हल्का होना... नहीं तो एक मध्यम वर्ग परिवार भी बेटियों को उनकी शादी से पहले व शादी के बाद भी बोझ ही समझता रहता है।

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