ज़िन्दगी थकी न थी....
काव्य साहित्य | कविता भूपेंद्र कुमार दवे28 Apr 2012
ज़िन्दगी थकी ना थी कि मौत द्वारे आ गई
मुस्कुराती गोद थी, आँसुओं को भा गई
फूलों की सुगंध थी रंग बिरंगे लिबास में
चहक रही थी चाँदनी जाने किसकी आस में
नाचती थी डालियाँ भी खिलखिलाती रास में
पर उम्र के ढलान पे साँस कुछ भरने लगी
दीप बुझते देख के अर्थी खुद जलने लगी
ज़िन्दगी थकी ना थी कि मौत द्वारे आ गई
मुस्कुराती गोद थी, आँसुओं को भा गई
घूँट दो पीने चला तड़पा हुआ था प्यास में
लड़खड़ाता चलता रहा टूटा घड़ा ले साथ में
बूँद पर एक ना मिली ज़िन्दगी की तलाश में
सफ़र अधूरा ही रहा पाँव भी कँपते रहे
हर कदम थकान थी गिरते रहे, चलते रहे
ज़िन्दगी थकी ना थी कि मौत द्वारे आ गई
मुस्कुराती गोद थी, आँसुओं को भा गई
दूर का सफ़र था, चलते रहे इक आस में
कसमसाती उम्र थी बस मुस्कुराती लाश में
बैसाखी भर लिये रहे चरमराती पास में
नीड़ था उजड़ा हुआ, पंख पसरे जलते हुए
चहचहाते कुछ गीत थे कंठ में बिखरे हुए
ज़िन्दगी थकी ना थी कि मौत द्वारे आ गई
मुस्कुराती गोद थी, आँसुओं को भा गई
डूबी न थी, टूटी न थी, तैरती थी आस में
नाव में कुछ साँस थी, हौसला था कुछ पास में
पर जोश में ऊँची लहर नाव लेकर बाँह में
दे चुकी पतवार जाने किस अभागे हाथ में
जब किनारे छिप रहे थे दूरियों के माँद में
ज़िन्दगी थकी ना थी कि मौत द्वारे आ गई
मुस्कुराती गोद थी, आँसुओं को भा गई
खुली न थी, खिली न थी, फिर भी कलियाँ झर गईं
शूल के शवों पर वो भी शिथिल होकर गिर गईं
तजकर सिसकती साँस बस ज़िन्दगी गुज़र गई
काठ पर ना समा सकीं ठाठ की हर गुदड़ियाँ
अशर्फियाँ के दाम पर बिकती रहीं सिसकियाँ
ज़िन्दगी थकी ना थी कि मौत द्वारे आ गई
मुस्कुराती गोद थी, आँसुओं को भा गई
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