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ज़िन्दगी

"ज़िन्दगी का चक्र पूर्णिमा के चाँद की तरह पूर्ण आकार में चलकर चमकता रहता है, और धीरे-धीरे समय के साथ अमावस्या की काली रात में तब्दील हो जाता है। यही सत्य है ज़िन्दगी का, ज़िन्दगी के चक्र का। इसी का नाम ज़िन्दगी है।

सुबह से ही मौसम गर्म था, गर्म हवाएँ चलने लगीं थीं। तापमान ने अपनी हद पार कर ली थी, शाम घिर आई थी, लेकिन गर्म हवाओं के थपेड़ों के प्रहार, बराबर जारी थे। आसमान पर बादल छोटे-छोटे झुँड बनाये हुए थे, और धीरे-धीरे बड़ा रूप लेने लगे थे। साथ ही उड़ती हुई मिट्टी की धूल के कारण मौसम मटमैला सा दिखाई पड़ने लगा था। पेड़ों के पत्ते फड़फड़ाकर चलती हवाओं का संकेत दे रहे थे।

उसने अपने घर की कॉलबैल बजाई- "ट्रिंग-ट्रिंग..." उसकी पत्नी सुधा ने दरवाज़ा खोला, उसे समाने देखकर सुधा के होठों पर मुस्कान तैर गई।

"सुधा! मौसम बहुत गर्म है, हवाओं का तेज़ रुख़ है साथ ही आसमान पर बादल छाये हुए हैं, बरसात आने की सम्भावना बन रही है," अन्दर घुसते हुए बरबस उसके मुँह से निकला।

"मौसम सुबह से ही गर्म था, बरसात आने से कुछ राहत तो मिलेगी। अरे!आप तो पसीने से पूरे भीगे हुए हो, आप सोफ़े पर बैठ जाइए मैं कूलर चला देती हूँ, बिजली का कोई एतबार नहीं, कब गुल हो जाये और फिर कब आये, भगवान ही मालिक है?"

"हूँ! तुम सच कहती हो, बिजली विभाग वालों की नज़रें गिद्ध से भी तेज़ हैं, आसमान पर हल्के बादल दिखते ही... कुछ भीगने का बाहर थोड़ी छोड़ा है? बरसात कभी भी आ सकती है, मौसम बन रहा है।"

"नहीं, मैंने सब अन्दर डाल दिया है," पत्नी ने जवाब देते हुए कहा।

वह घर में दाख़िल हो गया था, आरामदायक सोफ़े पर निढाल होकर बैठ गया था और उसकी पत्नी के कूलर ऑन कर दिया था। कूलर की हवाओं के झोंखे लगातार बहे जा रहे थे। झोंखों के प्रहारों से दीवारों पर लटके पोस्टर हिल रहे थे। उसकी बैचेनी ख़त्म हो चुकी थी और उसे कुछ हद तक आराम का अनुभव हो रहा था।

पत्नी ने पास आकर पूछा, "कुछ राहत मिली?"

उसने सीधा सा जवाब दिया. "कुछ हद तक।"

"आज तो आपने आने बड़ी देर कर दी?"

"काम ज़्यादा था, निकलना ही नहीं हुआ।"

"आपको वेतन मिल गया गया?"

वेतन की बात सुनकर उसने पत्नी की नज़रों से नज़रें मिलाईं, उसका चैहरा कुछ हद तक रहस्यमय हो गया था। वो चुपचाप बैठा-बैठा पत्नी की ओर देखता जा रहा था।

उसका कोई जवाब न पाकर पत्नी ने बैचेनी से पूछा, "क्या हुआ, आपने कुछ कहा नहीं?"

अब उसे बोलना पड़ा,"वेतन कल मिलेगा, आज बाबू लोग छुट्टी पर थे।"

पत्नी ने बनावटी मुस्कान सजाते हुए कहा, "कोई बात नहीं। कुछ पल ठहर कर पसीना सूख गया हो तो कपड़े बदल लो। आप थक गये होगे, मैं चाय बना देती हूँ, गरमा-गरम चाय से सारे दिन कि थकान छूमन्तर हो जायेगी।"

उसने पलकें झपक कर हामी भर दी थी। वह सोफ़े से उठकर कपड़े बदलने के लिए जा चुका था, उसकी पत्नी चाय बनाने लगी थी। कूलर अपनी समान गति से चले जा रहा था, दीवारों पर लटके पोस्टर अब भी बराबर हिल रहे थे।

वो कपड़े बदलकर सोफ़े पर बैठ गया था। पास ही रखा अखबार हाथों से उठाकर पृष्ट उलट-पलट कर मुख्य-मुख्य ख़बरों को सरसरी नज़रों से देखते जा रहा था। सोने-चाँदी के भाव देखकर उसकी आँखें सिकुड़ सी गईं थीं।

पत्नी ने चाय का कप उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा,"चाय।" 

उसने अख़बार को टेबल पर रखा, अपने हाथ में चाय का कप थामकर, पीने लगा।

"रुचि के स्कूल से फोन आया था," पत्नी ने बात छेड़ते हुए कहा।

"कब?"

"दोपहर को।"

"क्या बोल रहे थे?" उसने चाय की चुस्की लेते हुए पूछा।

"महीने की फ़ीस के लिए बोल रहे थे," कुछ पल ठहरकर उसने बात जारी रखी, "बिजली का बिल भी आ गया, रतन दे गया था, बनिये ने भी महीने को हिसाब जमा करवाने के लिए बोला है, और..."

"और क्या?" उसने बात काटते हुए पूछा।

"टेलीफोन और नल के बिल भी आ गये हैं।"

"तुम परेशान न हो, कोई नई बात तो है नहीं, ये तो हर महीने का सिलसिला है, जो चलता रहेगा, कल वेतन मिल जायेगा, मैं सब फ़्री कर दूँगा। भूख लगने लगी है, तुम खाना बनाने की तैयारी करो।"

वह पत्नी को रसोई की ओर जाते ही सोचने लगा, "महीने में एक दिन ही तो ऐसा नसीब होता है, जब लक्ष्मी हाथ लगती है, धीरे-धीरे कब हाथ से निकल जाती है पता ही नहीं चलता। इन मध्यवर्गी परिवार वालों का जीवन ही बहुत संघर्षमय होता है, न उच्च वर्ग वालों की तरह रह सकते है और न निम्न वर्ग वालों की तरह ही रह सकते है।" सहसा उसे स्मरण हुआ, बचपन में उसे प्रेमचंद जी की कहानी ‘नमक का दारोगा’ पढ़ी थी। उसे उस कहानी के कथन आज सत्य से प्रतीत हो रहे थे- "मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई पड़ता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है।"

अब उसका सारा ध्यान पत्नी की ओर अग्रसर हुआ वो सोचने लगा, "इस दुनिया में बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जो सारी ज़िन्दगी दुःख-दर्दों में गुज़ार देते हैं, उफ़्फ़ भी नहीं करते। अपने भाग्य के सुख भी दूसरों पर न्योछावर करने से परहेज़ नहीं करते। उन्हीं लोगों में से एक मेरी पत्नी है, बेचारी! हमेशा से दुःखी! बचपन में माँ-बाप का साया सर से उठ गया, एक भाई था, वो भी चल बसा, अब इसका दुनिया में और कोई नहीं, मेरे और मेरी बेटी के सिवा। सारे दिन गृहस्थी के कार्य में उलझी रहती है, कोल्हू के बैल की तरह। अन्य औरतों से कितनी भिन्न है, कभी फिजूल में पैसे बर्बाद नहीं किये और न कभी कोई वस्तु लेने की ज़िद्द की, जो पास है, हमेशा उसी में संतोष कर लिया। शायद यही एक सच्ची गृहणी के गुण हैं, सहसा उसे अपने द्वारा बताई बात याद आई माँ कहती थी "बेटा सच्ची गृहणी वो होती है जो अपने पति के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चले और सारा घर सम्भाले।"

अब वह दीवार पर लटके हुए पोस्टरों की ओर देखने लगा, पोस्टर हवा के झोंखों से हिल रहे थे। उसे लगा, अब ये गिरने वाले हैं, लेकिन ये क्या? पोस्टर गिरते नहीं, बस हिलते रहते हैं... लगातार-बराबर।

रात गहरी हो चली थी, बाहर हल्की-हल्की बूँदा-बाँदी हो रही थी। खिड़कियों से से ठंडी हवाएँ कमरे के अन्दर बह रहीं थीं, पेड़ों के पत्तों का शोर सुनाई पड़ रहा था।

"सो गये क्या?" पत्नी ने उसके बालों को सहलाते हुए पूछा।

"नहीं! रुची सो गई?"

"हाँ।"

"उसकी तबीयत तो ठीक है?"

"हाँ! सारे दिन पास-पड़ोस के बच्चों-बच्चियों के साथ खेलते-खेलते थक जाती है। आपकी तबीयत तो ठीक है?"

"हाँ! तबीयत तो ठीक है।"

"फिर आप ख़ामोश क्यूँ है?"

"सोच रहा था, ज़िन्दगी का चक्रव्यूह भी अजीब है, हम उम्रभर दौड़-धूप करते रहते हैं और अन्त में भी..., इस महँगाई के दौर में संतोष कर, हाथ पर हाथ रखकर भी नहीं बैठ सकते, महँगाई ने कमर तोड़ रखी है, ख़ास कर मध्यवर्गी परिवारों की। एक-दो माह पहले प्याज़ दो-तीन रुप्ये किलो थे और आज सौ का आंकड़ा भी पार कर चुके हैं, न जाने कहाँ तक जाकर दम लेंगे? सोने-चाँदी का तो भाव सुनते ही कान भारी हो जाते हैें। इस महँगाई के दौर में मध्यवर्गी परिवार के लिए बीस हज़ार का वेतन भी कम पड़ जाता है। महीने की पच्चीस तारीख़ के बाद तो हालत ख़राब हो जाती है। कितने दिन गुज़र गये, मैं तुम्हारे लिए एक अच्छी सी साड़ी भी नहीं ख़रीदकर ला सका।"

"मेरे पास कपड़ों की कमी नहीे, अभी बहुत सी साड़ियाँ अलमारी में पड़ी हुईं  हैं,” सुधा कुछ पल चुप रही, फिर कहने लगी, “आप भी ना क्या-क्या सोचने लग जाते हैं? सोचने के लिए तो सारा दिन ही बहुत होता है, रात तो दिनभर की थकान मिटाने के लिए और आराम करने के लिए आती है, इसलिए सोचना बन्द।"

"तुम्हारा कहना भी ठीक है, पर..."

"आप पर-वर को छोड़ो, सुकून से आराम करो, कल के लिए भी तो कुछ छोड़ो, क्या आज ही सब सोच डालोगे? कभी तो आप भी ना बच्चों की जैसी हरकत करने लग जाते हो।"

पत्नी की बात सुनकर उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान तैर गई, वह पैर पसारकर सोने की कोशिश करने लगा।

"देख रहा हूँ, तुम औरतें कितनी समझदार होती हो, जब पुरष कमज़ोर पड़ते हैं, सम्भाल लेती हो। कभी-कभी महसूस करता हूँ, तुम मेरी ज़िन्दगी में नहीं होती, तो मेरी ज़िन्दगी क्या होती, मैं कल्पना भी नहीं सकता। हर बार वेतन वाले दिन सोचता हूँ, तुम्हें कहीं घुमाने ले चलूँ, लेकिन वेतन ही इतना मिलता है, सब घर ख़र्च में चला जाता है। सारी सोच, सोच ही बनी रह जाती है, ये ज़िन्दगी जोंक है या हम ज़िन्दगी के लिए जोंक है, समझ नहीं आता।"

"मैं तो यहीं ठीक हूँ, मुझे कहीं नहीं घूमना।"

"अपनी भी क्या ज़िन्दगी है, कभी अपने अंदाज़ से नहीं जी, हमेशा गृहस्थी में उलझते-उलझते दिन काटे हैं। देखा जाये तो कीडे़-मकोड़ों की तरह, भेड़-बकरियों की तरह जी रहे हैं और एक दिन..."

"हम जैसे भी हैं, वैसे ही ठीक हैं, बहुत से लोग दुनिया में ऐसे भी हैं, जिनको सिर ढकने के लिए छत नहीं, पहने के लिए कपड़े नहीं और पेट भर को दो जून का भोजन भी नसीब नहीं होता, हमारी स्थिति तो उनसे लाख गुना अच्छी है।"

"तुम ये सब मेरा मन रखने के लिए कह रही हो।"

"नहीं। ऐसा कुछ नहीं। ये सत्य है, मैंने अपनी आँखों से देखा है।"

"सुधा मैंने फ़ैसला कर लिया है," उसने यकायक कह दिया।

"क्या?"

"हम अगले हफ़्ते शिमला घूमने चलेंगे।"

"लेकिन..." 

"बचपन से ही शिमला की वादियों में घूमने का मन था, लेकिन अब तक नहीं जा सका, लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। अबकी बार तो हम चलेंगे, ज़रूर चलेंगे। तंगी तो हर बार चलती रहेगी, हम हर बार ऐसे ही घर ख़र्च में उलझे रहेंगे, आख़िर हमारी भी कोई ज़िन्दगी है। तुम कल से ज़रूरी सामान पैक करना शुरू कर दो।"

दोनों के चेहरे पर अजब सी चमक तैर आई थी, आसमान आईने की तरह साफ़ हो चुका था, चाँद फलक से अपनी रोशनी ज़मीन पर फैला चुका था और ज़मीन मदमस्त होकर, चाँदनी के नूर से जगमगा रही थी। ठंडी हवाओं के झोंखे लगातार खिड़कियों के सहारे कमरे के अन्दर आ रहे थे, दीवार घड़ी के टिक-टिक के स्वर कमरे में सुनाई पड़ रहे थे।

"हाथ-पैरों में कुछ जान आई?" उसकी पत्नी ने पूछा।

"बहुत आराम मिला है।"

"और मालिश करूँ?"

"अब रहने भी दो, कल के लिए भी छोड़ो।"

उसकी पत्नी जैसे ही दूर सिरकने की कोशिश की, उसने अपने हाथों से उसे अपनी ओर खींचकर आग़ोश में भर लिया। सुधा ने ख़ुद सम्भालकर आज़ाद होते हुए कहा, "एक पल ठहरो।"

"अब क्या हुआ?"

"लाईट ऑन है और रुची हमारे..."

"चलो बुझा दो।"

वह लाईट बुझाकर फिर खुली बाहों में समा गई। उसकी चूड़ियों की खन-खन… और पैरों की पाजेब की छन-छन... अब पूरे कमरे में गूँजने लगी थी।

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