पिता का नाम : स्व. मनोहर शर्मा ‘साग़र’ पालमपुरी
शिक्षा : हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के सेन्टर फ़ार पोस्ट्ग्रेजुएट स्टडीज़, धर्मशाला से अँग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर डिग्री
प्रकाशित कृतियाँ : जन-गण-मन (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशन वर्ष-२००३. संग्रह की १५० से अधिक समीक्षाएँ राष्ट्र स्तरीय पत्रिकाओं एवं समाचार—पत्रों में प्रकाशित।
सम्पादन : डॉ. सुशील कुमार फुल्ल द्वारा संपादित पत्रिका रचना के ग़ज़ल अंक का अतिथि सम्पादन
संकलन :
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दीक्षित दनकौरी के सम्पादन में ‘ग़ज़ल …दुष्यन्त के बाद’ (वाणी प्रकाशन)
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डॉ.प्रेम भारद्वाज के संपादन में सीराँ (नैशनल बुक ट्रस्ट)
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उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ की पत्रिका साहित्य भारती के नागरी ग़ज़ल अंक
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रमेश नील कमल के सम्पादन में दर्द अभी तक हमसाए हैं
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इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी द्वारा संपादित चांद सितारे
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नासिर यूसुफ़ज़ई द्वारा संपादित कुछ पत्ते पीले कुछ हरे इत्यादि संकलनों में संकलित
रचनाएँ प्रकाशित : नवनीत, उद्भावना, नयापथ, मसिकागद, बराबर, सुपर बाज़ार पत्रिका, इरावती, विपाशा, हिमप्रस्थ, कारख़ाना, अर्बाब-ए-क़लम, गुफ़्तगू, गोलकोंडा दर्पण, क्षितिज, ग़ज़ल, नई ग़ज़ल सार्थक, शीराज़ा (हिन्दी), पुन:, तर्जनी, शब्दसंस्कृति, शिवम, उद्गार, भभूति, पोइटक्रिट, हिमाचल मित्र, संवाद, सर्जक, रचना, फ़नकार, इत्यादि पत्रिकाओं में।
दैनिक ट्रिब्यून,जनसत्ता, इंडियन एक्सप्रेस, लोकमत समाचार, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, अजीत समाचार, भारतेन्दु शिखर, गिरिराज, दैनिक मिलाप, वीर प्रताप, पंजाब केसरी, दिव्य हिमाचल, अजीत समाचार इत्यादि समाचार पत्रों में।
विशेष :
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कई राष्ट्र एवं राज्य स्तरीय कवि सम्मेलनों /मुशायरों में प्रतिभाग।
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बहुत-सी ब्लॉग पत्रिकाओं में भी ग़ज़लें प्रकाशित।
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अंदाज़-ए-बयां (दैनिक ट्रिब्यून), शायरों की महफ़िल(पंजाबकेसरी), महफ़िल-ए-शेर-ओ-अदब (अजीत समाचार) में शे‘अर प्रकाशित।
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पहाड़ी भाषा में ग़ज़लें, कहानियाँ आकाशवाणी से प्रसारित
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सम्प्रति : प्राध्यापक: अँग्रेज़ी, ग़ज़लकार, समीक्षक
लेखक की कृतियाँ
ग़ज़ल
- अश्क़ बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
- आइने कितने यहाँ टूट चुके हैं अब तक
- कटे थे कल जो यहाँ जंगलों की भाषा में
- जाने कितने ही उजालों का दहन होता है
- जो पल कर आस्तीनों में हमारी हमको डसते हैं
- देख, ऐसे सवाल रहने दे
- न वापसी है जहाँ से वहाँ हैं सब के सब
- नये साल में
- पृष्ठ तो इतिहास के जन-जन को दिखलाए गए
- यह उजाला तो नहीं ‘तम’ को मिटाने वाला
- ये कौन छोड़ गया इस पे ख़ामियाँ अपनी
- सामने काली अँधेरी रात गुर्राती रही
- हुज़ूर, आप तो जा पहुँचे आसमानों में
- ज़ेह्न में और कोई डर नहीं रहने देता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं