अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

वीरेन्द्र खरे ’अकेला’

जन्म : 18 अगस्त 1968 को छतरपुर (म.प्र.) के किशनगढ़ ग्राम में 
शिक्षा : एम०ए० (इतिहास), बी०एड०
लेखन विधा : ग़ज़ल, गीत, कविता, व्यंग्य-लेख, कहानी, समीक्षा आलेख

प्रकाशित कृतियाँ : 

  1. शेष बची चौथाई रात 1999 (ग़ज़ल संग्रह), [अयन प्रकाशन, नई दिल्ली]
    61 ग़ज़लें संग्रहित हैं। गोपाल दास नीरज एवं बशीर बद्र की टिप्पणियां आवरण पर हैं।

  2. सुबह की दस्तक 2006 (ग़ज़ल-गीत-कविता), [सार्थक एवं अयन प्रकाशन, नई दिल्ली]
    संग्रह में 53 ग़ज़लें और कुछ गीत और कुछ कविताएँ संग्रहीत हैं।

  3. अंगारों पर शबनम 2012(ग़ज़ल संग्रह) [अयन प्रकाशन, नई दिल्ली]
    संग्रह में 101 ग़ज़लें हैं। भूमिका कुँअर बेचैन की है।

उपलब्धियाँ : 

सम्मान :
ग़ज़ल-संग्रह 'शेष बची चौथाई रात' पर अभियान जबलपुर द्वारा 'हिन्दी भूषण' अलंकरण।
मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन एवं बुंदेलखंड हिंदी साहित्य-संस्कृति मंच सागर [म.प्र.] द्वारा कपूर चंद वैसाखिया 'तहलका ' सम्मान 
अ०भा० साहित्य संगम, उदयपुर द्वारा काव्य कृति ‘सुबह की दस्तक’ पर राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान के अन्तर्गत 'काव्य-कौस्तुभ' सम्मान तथा लायन्स क्लब द्वारा ‘छतरपुर गौरव’ सम्मान।

सम्प्रति : अध्यापन

संस्तुतियाँ :

'अकेला' की ग़ज़लों में भरपूर शेरियत और तग़ज़्जुल है। छोटी बड़ी सभी प्रकार की बहरों मे उन्होंने नए नए प्रयोग किए हैं और वे खूब सफल भी हुए हैं। उनके शेरों में यह ख़ूबी है कि वे ख़ुद-ब-ख़ुद होठों पर आ जाते हैं जैसे कि यह शेर-

इक रूपये की तीन अठन्नी माँगेगी
इस दुनिया से लेना-देना कम रखना 

 -पद्मश्री डॉ० गोपाल दास 'नीरज'


'अकेला' की ग़ज़ल वो लहर है जो ग़ज़ल के समुन्दर में नई हलचल पैदा करेगी।

 - डॉ. बशीर बद्र

हिन्दी ग़ज़ल और गीत के क्षेत्र में युवा कवि वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ का नाम बहुत जाना पहचाना है। बुन्देलखण्ड में दूसरे दुष्यन्त कुमार कहे जाने वाले ‘अकेला’ ने अपनी मूल छवि के अनुरूप आम लोगों के दुख-दर्दों को समर्थ वाणी देने वाली हिन्दी ग़ज़लें कह कर दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल परम्परा को तो आगे बढ़ाया ही है साथ ही उन्होंने पारम्परिक हिन्दी गीत विधा को कथ्य और शिल्प की दृष्टि से एक नवीन सर्वग्राही रूप प्रदान करने का सराहनीय कार्य भी किया है। 

-डॉ. गंगा प्रसाद बरसैंया

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ वह सशक्त कवि हैं जिनकी कविताओं में जीवन की सच्ची-तपती-सुलगती आग पूरी तेजस्विता के साथ विद्यमान है। वे भाषा के ऐसे योद्धा व क़लम-शस्त्रधारी हैं जो समाज में व्याप्त दुःख-दर्दों, अभावों, असफलताओं को अनूठे अंदाज़ में पेश कर अपने पाठकों में विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला भरते हैं। उनकी ग़ज़लों में नंगा यथार्थ कलात्मक ढंग से अद्भुत सौन्दर्य पा गया है। उनका यह मानना है कि ‘हाथ का मैल ही सही पैसा, सारी दुनिया ग़ुलाम है कि नहीं’ सच बयानी का अद्वितीय उद्धरण है। पूँजीवादी समाज में ग़रीबों के आँसुओं को बवाल समझा जाना, भूखों को बातों से बहलाना शोषकों के शग़ल हैं जिन्हें ‘अकेला’ ने बेनकाब किया है। इनकी कविता आम आदमी के जीवन की कविता है। 

-डॉ. बहादुर सिंह परमार

अगर परिमाण की दृष्टि से देखा जाये तो आज की हिन्दी कविता की प्रमुख धारा ग़ज़ल ही है। हिन्दी कविता के क्षेत्र में इन दिनों जितने भी रेखांकित करने योग्य कवि हैं उनमें से अधिकतर कवियों ने ग़ज़लें कही हैं और जिन्होंने ग़ज़लें कही हैं उनमें जो प्रमुख ग़ज़लकार हैं उनमें श्री वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ का नाम बिना किसी हिचक के लिया जा सकता है। इसका बड़ा कारण यह है कि ‘अकेला’ जी की ग़ज़लें विविध विषयों पर होने के साथ-साथ बहर आदि की दृष्टि से भी निष्कलंक हैं। उनमें सहज प्रवाह भी है और अमिट प्रभाव भी। ये ग़ज़लें ग़ज़ल की यशस्वी परंपरा में रहकर नए विषयों तथा नए प्रतीकों की खोज भी करती दिखाई देती हैं। इनमें यथार्थ की सच्चाई और कल्पना की ऊँचाई दोनों के ही दर्शन होते हैं। ग़ज़ल का शेर अगर एकदम दिल में न उतर जाये तो वह शेर ही क्या। ऐसे दिल में उतर जाने वाले अनेक शेर इस संग्रह में मिलेंगे। मिसाल के तौर पर एक ग़ज़ल के मतले का यह शेर ही देखें -

“अदावत दिल में रखते हैं मगर यारी दिखाते हैं 
न जाने लोग भी क्या-क्या अदाकारी दिखाते हैं।”

और यह दिखावा ही आज के व्यक्ति की असली शख्सियत बन गई है। तभी तो सारी दुनिया में यह हो रहा है कि-अम्न की चाहत यहाँ है हर किसी को /हर कोई तलवार पाना चाहता है। सचमुच आज सारे संसार में हिंसा का ही बोलबाला है। लोगों की नस-नस में झूठ और मक्कारी भरी हुई है। यह गुण भी लोगों ने सियासतदारों से ही सीखा है इसी कारण ‘अकेला’ जी गुस्से में बोलते हुए कहते हैं-

“झूठ मक्कारी तजें नेता जी मुमकिन ही कहाँ
नाचना, गाना-बजाना कैसे किन्नर छोड़ दे।”

इतनी कड़वी बात करते हुए कभी वे अपने आप को समझाते भी हैं- “ऐ अकेला दुनिया भर से मोल मत ले दुश्मनी/हक़बयानी छोड़ दे ये तीखे तेवर छोड़ दे।” और आगे चलकर यह भी कहते हैं कि-“सच्चाई की रखवाली को निकले हो/सीने पर गोली खाने का दम रखना।” कवि पूरी चेतना और हिम्मत के साथ फिर भी सच्चाई को कहते हुए नहीं घबराता क्योंकि उसका विश्वास है कि जब तक ईश्वर साथ है कोई किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता और डरा भी क्यों जाये क्योंकि हम तो इंसान हैं जबकि-“ करो मत फ़िक्र वो दो वक्त की रोटी जुटा लेगा/परिंदे भी ‘अकेला’ चार दाने ढूंढ़ लेते हैं।”

अकेला जी अकेले नहीं हैं जो आज के परिवेश की विडम्बनाओं और विदू्रपताओं से परेशान हैं वरन उनका दर्द सारे समाज का दर्द हैक्योंकि कवि सारे समाज का दर्द अपना दर्द बनाकर बयान करता है और अपने दर्द को इस तरह कहता है कि उसे समाज के अधिकतर लोग अपना दर्द महसूस करते हैं। ‘अकेला’ जी का पूरा नाम वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ है और इसीलिए अपने नाम के अनुकूल ही उनकी ग़ज़लों के अशआर एकदम खरे हैं। उनमें कहीं भी खोट नहीं है।

'-कुँअर बेचैन'
2 एफ-51, नेहरू नगर
गाजियाबाद (उ.प्र.)

हिन्दी ग़ज़लों या हिन्दी ग़ज़लकारों की अपार भीड़ में श्री वीरेन्द्र खरे सचमुच “अकेले” हैं। मुझे हैरत इस बात में है कि श्री ‘अकेला’ जी सचमुच ग़ज़ल के मिज़ाज से न सिर्फ़ वाक़िफ़ हैं वरन् उनकी  मेयारी ग़ज़लें फ़न की सभी कसौटियों पर खरी उतरती हैं। 

ग़ज़ल की पहली और अहम शर्त है शेरों का वज़न में होना, उसके बाद रदीफ़ क़ाफ़ियों का सही इस्तेमाल तथा अल्फ़ाज़ों की नशिस्तो-बरखास्त, जिसमें बड़े-बड़े उस्तादों तक से चूक हो जाती है, परन्तु भाई ‘अकेला’ की किसी भी ग़ज़ल में उपरोक्त ख़ामियाँ ढूँढ़े से भी नहीं मिलतीं। उन्होंने आज के सम्पूर्ण परिवेश को अपनी ग़ज़लों में जिस खूबसूरती से ढाला है, वो देखते ही बनता है। उनकी विहंगम काव्य-दृष्टि कल, आज और कल का ऐसा चमकदार आईना है जिसमें जीवन का हर प्रतिबिंब बोलता है, न सिर्फ़ बोलता है वरन् परत-दर-परत आज ही नहीं कल की हक़ीक़तों का पर्दा भी खोलता है। 

-माणिक वर्मा
57 लाला लाजपतराय कॉलोनी,
पंजाबी बाग़, भोपाल (म.प्र.)
मोबा. नं.-09425343244

हिन्दी के प्रतिष्ठापित होते ग़ज़लकार भाई वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ की ग़ज़लें भीड़ भरे ग़ज़लकारों में अकेली, अद्वितीय आवाज़ है। लगभग त्रुटिशून्य और सन्नाटे के अंधेरे को शब्दों की रश्मियों से चीरती -

“हमको ऐ जनतंत्र तेरे नाम पर
उस्तरे थामे हुए बंदर मिले”

इस तरह के तल्ख तेवर नागार्जुन, हरिशंकर परसाई के गद्य में भी मिलते हैं। गद्य को पद्य में विलीन करती उनकी लय आश्वस्त करती है कि यदि कवि ठान ले तो वह जन की, अवाम की प्रतिनिधि आवाज़ बन सकता है।

आज के भीषण, निर्लज्ज घोटालों के कुहासे में ये ग़ज़लें ज्योति-किरण हैं। यद्यपि कविता से क्रान्ति नहीं होती, लेकिन वह अपने अग्नि-स्फुर्लिंग तो वातावरण में बिखरा सकती है। वे दुष्यन्त के आगे के ग़ज़लकार हैं। अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हुए दृढ़संकल्पी किन्तु संकोची कवि का शब्द-निनाद शब्दों के पत्थरों से रगड़कर चिन्गारी पैदा करता है, उसका दाव उसे मालूम है। आज की दलबंदी और तुकबंदी के माहौल में ‘अकेला’ आश्वस्त करता है। ग़ज़ल और जन से उसके सरोकार घने होते चले जाएंगे।

-प्रो. डॉ. देवव्रत जोशी
24, वेदव्यास कॉलानी नं. 2,
रतलाम (म.प्र.) 457001 फोन-07412-239477

लेखक की कृतियाँ

ग़ज़ल

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं