प्रिय मित्रो,
इन दिनों अजीब परिस्थितियों में जी रहे हैं हम लोग। कुछ सप्ताह पहले तक कभी कल्पना भी नहीं की थी कि पूरा विश्व एक साँझे आतंक से संघर्ष करेगा। जब भी आतंक की बात होती तो स्वतः हम समझ लेते हैं कि यह आतंक एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के प्रति है। कभी-कभी विश्व के कोनों से छिट-पुट समाचार अवश्य सुनने को आते कि अमुक जगह पर किसी विषाणु/कीटाणु का प्रकोप है। देखिये यहाँ “प्रकोप” शब्द का प्रयोग उचित होता था। आज जो प्रकोप है- अनायास “आतंक” हो गया है। एक ऐसे विषाणु का आतंक जो दिखता नहीं परन्तु पूरी मानवता को मौत के मुँह में ढकेलने में सक्षम है। और हम मानव– एक दंभ जनित भ्रम में जी रहे थे कि जीव जगत में हम सर्वोपरि हैं, सर्वशक्तिमान हैं क्योंकि हमारे पास तार्किक शक्ति, अन्वेषण की शक्ति है। प्रकृति की एक ही चोट से दंभ चूर-चूर होता दिखाई दे रहा है।
अभी भी हम कहते हैं और जानते हैं कि अपनी इसी तार्किक और अन्वेषण की क्षमता से इस विषाणु पर विजय प्राप्त कर लेंगे। विश्व में विचार-धाराओं के, संस्कृतियों के और राजनैतिक टकराव सदियों से चले आ रहे थे। परन्तु इस आतंक से पूरे विश्व में एक अभूतपूर्व भाई-चारे के लक्षणों की झलक दिखायी देने लगी है। देश एक दूसरे देश की सहायता करने के लिए तत्पर दिख रहे हैं। धार्मिक समुदायों के झगड़े लगभग समाप्त हो चुके हैं। यहाँ तक कि सभी देशों में विपक्षी दल अपनी जीभ पर लगाम लगा कर ही सरकारों की निंदा कर रही हैं और कहीं-कहीं तो विपक्ष की प्रशंसा पाकर प्रशासन अपनी पीठ थपथपा रहा है।
सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार, आजकल हो ही नहीं सकता। अगर लोग अनुशासन रखें और सरकारी की बात मानें जो कि जनता के लिए वास्तविक हित की बात है, तो पुलिस डंडे भी केवल सड़क पर ठक-ठक करने के ही काम आएँगे। आमजन चिकित्सक वर्ग के प्रति कृतिज्ञता प्रकट कर रहा है। धार्मिक संस्थान बंद हैं पर मानवता की सेवा करने वाले संस्थान सक्रिय हो रहे हैं। भूखों को भोजन वितरित हो रहा है। विस्थापितों को सर पर छत नसीब हो रही है। एक विषाणु जो मानवता का संहार कर रहा है वह ही मानव को पुनः मानव बनाने की प्रेरणा दे रहा है। अजीब विसंगति में जी रहे हैं हम लोग।
एक बात तय है कि इस संकट से उबरने के बाद हम पुनः पुराने जीवन में नहीं लौट पाएँगे। काम करने का ढंग ही बदल चुका होगा। हम लोग परिवार की निकटता और पारस्परिक प्रेम का मूल्य समझ चुके होंगे। हो सकता है कि वैश्विक संबंध यहाँ तक बदलें कि विश्वग्राम की संज्ञा साकार हो जाए।
इस संकट का साहित्य पर क्या प्रभाव होगा यह भी विचारणीय है। आजकल जो सामयिक साहित्य पर कोरोना का प्रभाव दिखाई दे रहा है वह धूमिल होते हुए समय की परत में लीन हो जाएगा। परन्तु इन दिनों घर बैठे, चाहे समय बिताने के लिए ही सही बहुत से लोग क़िस्से-कहानियों की डगर पर चलते हुए साहित्यिक रचनाओं तक तो अवश्य पहुँचेंगे। सोशल मीडिया जो एक प्रदूषित वातावरण बन चुका था जिसका एक मात्र उद्देश्य धार्मिक या राजनीतिक ज़हर उगलना रह गया था, साहित्यिक, अध्यात्मिक और हल्के-फुल्के मनोरंजन का साधन बन रहा है। लोग अपनी छुपी हुई प्रतिभा को पहचान रहे हैं और उसे प्रस्तुत भी कर रहे हैं। कोई कॉमेडियन हो गया है तो कोई गायक; कोई मास्टर शेफ़्फ़ है तो कोई अध्यात्मिक गुरू। कोई भी नया राजनीतिक गुरु नहीं बना दीखता बल्कि जो राजनैतिक गुरु सोशल मीडिया पर पहले से ही थे, वह भी आजकल राजनैतिक टिप्पणियाँ करने से परहेज़ ही कर रहे हैं।
साहित्य जगत में देखने में आ रहा है कि स्थानीय साहित्यिक गोष्ठियाँ अब सोशल मीडिया और इंटरनेट तकनीकी के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय बन चुकी हैं। यह परिवर्तन सदा के लिए है। यह प्रचलन ऐसा नहीं है कि आपदा के टल जाने के बाद यह गोष्ठियाँ पुनः स्थानीय हो जाएँगी। साहित्य प्रिंट मीडिया के चंगुल से निकल कर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के स्वतंत्र वातावरण में साँस लेने लगा है। हम जिन लेखकों के बारे में केवल सुन ही पाते थे, वह अब मोबाइल या लैपटॉप की स्क्रीन पर प्रत्यक्ष इन साहित्यिक गोष्ठियों भाग लेने लगे हैं। कुछ सुखद मित्रताएँ भी जन्म ले रही हैं। खेद तो इस बात का है कि यह तकनीकी, यह इंटरनेट, यह साहित्य और लेखक आपदा से पहले भी थे; तब हम इन सब का मूल्य पहले क्यों नहीं पहचाने? क्यों हमें एक विषाणु ने अपने हंटर से इस साहित्यिक सद्भाव का महत्व सिखाया।
अब कुछ साहित्य कुञ्ज के बारे में। अभी तक साहित्य कुञ्ज महीने में दो बार यानी पहली और पन्द्रह को आपके लिए उपलब्ध होता है। इस तरह नियमित होना अच्छा तो लगता था परन्तु एक कमी हमेशा खटकती थी। अगर इन पन्द्रह दिन के अन्तराल में कुछ महत्वपूर्ण घटता है, किसी प्रसिद्ध लेखक का जन्म दिवस या पुण्य तिथि आती है तो हमें अगले अंक तक की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी और तब भी उसे कोई विशेषांक बनाने में असमर्थ थे। अंततः लगभग दो सप्ताह पूर्व इस कमी को पूरा करने का निर्णय लिया जो कि स्व. सुषम बेदी जी की श्रद्धांजली प्रकाशित करने के डॉ. शैलजा सक्सेना के सुझाव से प्रेरित था। अगले दो दिनों में साहित्य कुञ्ज में एक नया स्तम्भ “विशेषांक” शुरू हो रहा है। इसे प्रकाशित करने के लिए कोई तिथि का बंधन नहीं है। यह विशेषांक साहित्य कुञ्ज का भाग होते हुए भी स्वतन्त्र होगा। इन विशेषांकों के अतिथि संपादक भी हो सकेंगे।
दो दिन के बाद इस स्तम्भ के पहले अंक में सुषम बेदी जी को श्रद्धांजलि प्रस्तुत करेंगे और इसका संपादन डॉ. शैलजा सक्सेना करेंगी। विशेषांक प्रकाशित होने पर आप सभी को फ़ेसबुक के माध्यम से सूचित कर दिया जाएगा।
साहित्य कुञ्ज में वीडियो और ऑडियो सेक्शन आरम्भ हो चुके हैं। आप सभी आमन्त्रित हैं कि अपनी विडियो या ऑडियो रचनाएँ भेजें। आपसे एक अनुरोध है कि अगर आपकी रचना पहले कहीं यूट्यूब पर अपलोड हो चुकी है तो उसे मत भेजें क्योंकि उससे कॉपीराईट की समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। अपनी रचना की mp3 फ़ाईल के साथ उसका टाईप किया हुआ प्रतिरूप भी भेजें ताकि वह अपने दोनों रूपों में साहित्य कुञ्ज पर प्रकाशित हो सके।
इस सम्पादकीय को यहीं विराम दे रहा हूँ। फिर मिलेंगे…!
सुमन कुमार घई
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राजनन्दन सिंह 2020/04/15 08:27 AM
माननीय संपादक जी, संपादकीय बहुत अच्छा एवं वैचारिक लगा। आपका कथन "हो सकता है कि वैश्विक संबंध यहाँ तक बदलें कि विश्वग्राम की संज्ञा साकार हो जाए।" लगता है सचमुच ऐसा ही होगा। क्योंकि जिस तरह आँखें एवं बुद्धि बंद करके प्रदर्शन प्रतिष्ठा एवं आर्थिक होड़ में भागता हुआ मानव एक जैविक यंत्र हो गया था अब उसे ठहर कर शांति से अपने बारे में बहुत कुछ सोंचने एवं अनुभव करने का विवशतापूर्ण कोरोना ठहराव मिला है। इस ठहराव में मनुष्य एक बात तो निश्चय ही अुनभव करेगा कि वह मानव है और मानव जीवन की सार्थकता "प्रबुद्ध मानव" होने में है न कि मानवीय यंत्र।