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प्रिय मित्रो,

आज के सम्पादकीय के विषय के बारे सोच रहा था। रह-रह कर इरफ़ान खान की मृत्यु का समाचार भावों पर हावी हो जाता था। साहित्यिक पात्रों को स्क्रीन पर अभिव्यक्ति देने की जो प्रतिभा इरफ़ान में थी, कम ही देखने को मिलती है। मानों संवेदनाएँ उसकी आँखों में लक्षित हो उठती थीं। संवाद बिना किसी नाटकीयता के, बिना किसी अदा के, एक आम व्यक्ति की बोलने की शैली में दर्शकों के हृदय में उतर जाते।

यह सब सोच रहा था और छोटा युवान, मेरा पौत्र मेरे पास खेल रहा था। कल यानी पहली मई को अढ़ाई वर्ष का हो जाएगा। बोलने लगा है तो उसकी भोली और तुतली भाषा को सुन कर जितना वात्सल्य रस मन से बहता है, उतना ही उसकी तार्किक और मनन की क्षमता को देख कर विस्मित भी होता है। भाषा के नए प्रयोग रुचिकर और मनोरंजक होते हैं। शायद मेरा आन्तरिक लेखक अनजाने ही उसकी भाषा का विश्लेषण करता रहता है। 

आज सुबह से बूँदा-बाँदी हो रही है। उसका बाहर खेलने का मन है। ऋतु बदल रही है - बाहर का तापमान सहनीय हो रहा है। सर्दी का सामना तो जैकेट और टोपी के कवच से हो जाता है, परन्तु इस वर्षा का कोई क्या करे? खिड़की के शीशों से मुँह सटाये कुछ समय देखने के बाद पलट कर उदास सा बोल उठता है, “इट्स रेनिंग, विंडी ना।” उसके तोतले अस्फुट शब्द सुनकर होंठों पर मुस्कुराहट फैल गई। सोचने लगा इसकी कनेडियन अंग्रेज़ी में दिल्ली में इंग्लिश मीडियम में पढ़ी माँ की भाषा की झलक स्वतः आ रही है। “ना” का प्रयोग जिस तरह से दिल्ली की अंग्रेज़ी भाषा में शिक्षित लड़कियाँ करती हैं, वह अनूठा है। वैसे कनेडियन भी ऐसे वाक्यों के अंत में “ए” जोड़ देने के लिए जाने जाते हैं। जैसे कि ऊपर का वाक्य कनेडियन शैली में होगा, “इट्स रेनिंग, विंडी-ए!”

अगर इस विचार शृंखला को आगे बढ़ाएँ तो साहित्यिक भाषा पर आंचलिक प्रभाव विषय पर कई बार पहले भी लिख चुका हूँ। परन्तु आज एक अबोध बालक की भाषा पर माँ की बोली के प्रभाव को क्या संज्ञा दूँ? भारतीय मूल के विदेशों में पैदा हुए पले, बढ़े बच्चों की बोली का यह एक नया आयाम है कि स्थानीय प्रभावों के अतिरिक्त उनके माँ-बाप के अंग्रेज़ी के उच्चारण से लेकर घर में बोली जाने वाली बोली का मिश्रण हो जाना रोचक है। यहाँ मैं भाषा नहीं कह रहा बोली कह रहा हूँ, क्योंकि बोली और भाषा के अन्तर को रेखांकित करना चाहता हूँ।

युवान की माँ दिल्ली में पैदा हुई और दसवीं के बाद कैनेडा आई। उसकी माँ इलाहाबाद से हैं तो पिता बनारस के पास के। अब ऋतु की हिन्दी पर, दिल्ली की इंग्लिश मीडियम में पढ़ी लड़की, इलाहाबाद की हिन्दी और पिता की भोजपुरी का प्रभाव है। उसके बेटे युवान की बोली जो कि मूल रूप से कनेडियन इंग्लिश होगी, उसकी माँ की मिश्रित बोली, पिता की इंग्लिश, दादा की पंजाबी/हिन्दी और दादी माँ की दिल्ली की पंजाबी-हिन्दी से प्रभावित होगी ही। अभी से ही वह अपनी तोतली बोली में कहीं-कहीं पर दादी की तरह “है ना” जोड़ देता है।

युवान की बोली– चर्चा का एक बहाना है, बात तो मैं फिर से वही दोहराना चाहता हूँ कि लेखक का दायित्व केवल साहित्य सृजन ही नहीं होता; उसके संरक्षण में भाषा भी अपने शुद्ध रूप में जीवित रहती है। ऐसा इसलिए होता है,  क्योंकि लेखक भाषा के विद्वानों और आम जनता के बीच भाषा का संवाहक, जोड़ने वाली कड़ी और संरक्षक होता है। यह दायित्व बहुत महत्वपूर्ण है और इसीलिए बार-बार मैं यह दोहरा रहा हूँ। मेरा यह मत नहीं है कि हर संदर्भ में शुद्ध साहित्यिक भाषा का ही प्रयोग हो, क्योंकि अति किसी भी परिस्थिति में हानिकारक ही होती है। लेखक का दायित्व होता है कि वह उचित संदर्भ में उचित शब्द का प्रयोग करे। इसके लिए उसे सप्रयास अपनी शब्दावली को विकसित करना पड़़ता है और उसका उपयोग करना पड़ता है। अंग्रेज़ी साहित्य में इस लापरवाही के कारण भाषा का विघटन स्पष्ट है। अंग्रेज़ी साहित्य में प्रायः लेखक अपने भाषा के दिवालियेपन को “सड़क की भाषा”; गालियों में छिपाते है। उनका तर्क होता है कि साहित्य आम लोगों की भाषा में होना चाहिए। यानी उन्होंने अपने साहित्यिक दायित्व से पल्ला झाड़ लिया है। हिन्दी के लेखकों में अभी यह झलक देखने में नहीं आती, परन्तु ख़तरा तो बना ही रहता है। अभी भी कई रचनाओं के कथानक और  विषय इतने विदेशी होते हैं कि वह हिन्दी और भारतीय संस्कृति के परिदृश्य में कहीं भी सटीक नहीं बैठ पाते। अंग्रेज़ी या अन्य पश्चिमी देशों के साहित्य की नक़ल और झलक उनमें स्पष्ट होती है। प्रवासी भारतीयों की संस्कृति कम से कम एक पीढ़ी तक तो इतनी नहीं बदलती कि यह कथानक और विषय अतिश्योक्ति न लगें।

पात्रों के संवादों में लेखक चरित्र और परिस्थिति के अनुसार भाषा का चयन करता है। परन्तु इन संवादों के बाहर भी अगर लेखक भाषा और व्याकरण पर अपने आंचलिक प्रभाव से मुक्त नहीं रख पाता तो उसे लेखक की प्रतिभा में दोष समझा जाना चाहिए। कविताओं में तो यह समस्या और भी गंभीर हो जाती है। किसी विशेष संदर्भ में लिखी गई कविता में तो आंचलिक शब्दों और व्याकरण से एक सुन्दर साहित्यिक सुगंध का सृजन हो जाता है परन्तु अगर कवि अपनी सीमित शब्दावली या व्याकरण के अज्ञान को छिपाने के लिए आंचलिक बोली और व्याकरण की बैसाखी का उपयोग करे तो उसकी रचना पंगु ही होगी।

– सुमन कुमार घई

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