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प्रिय मित्रो,

यह चिरंतन सत्य है कि साहित्य समय के साथ निरंतर बदलता रहता है। यह भी सत्य है कि मौलिक मानवीय संवेदनाएँ तो वही रहती हैं, परन्तु उनके अर्थ भी समय के साथ बदल सकते हैं/बदल जाते हैं। हमें इस परिवर्तनशीलता को समझना और स्वीकार करना चाहिए। कभी भी, पहले जैसा कुछ भी नहीं रहता है। यही जीवन है; यही समय की दिशा और गति है। साहित्य इससे अछूता रह ही नहीं सकता। पिछले सप्ताह साहित्य कुञ्ज के होमपेज पर वीडियो सेक्शन में “साहित्य के रंग शैलजा के संग” में डॉ. शैलजा सक्सेना के साथ डॉ. आशीष कंधवे की हुई बात-चीत की वीडियो अपलोड की थी। इस वीडियो में डॉ. आशीष कंधवे ने साहित्य की परिभाषा देते हुए कहा, “लोक रंजन से लेकर लोक-मंगल तक की यात्रा” साहित्य है। इसी संदर्भ में कोई दस वर्ष पूर्व एक टी.वी. साक्षात्कार में मुझ से पूछा गया था कि “हिन्दी  का भविष्य क्या है?” मेरा उत्तर था “जब तक हिन्दी मनोरंजन की भाषा है तब तक इसका भविष्य सुरक्षित है!”

डॉ. आशीष कंधवे ने जिसे लोक-रंजन कहा मैंने उसे मनोरंजन कहा - बात एक ही है। उन्होंने साहित्य की परिभाषा का आरम्भिक तत्व लोक-रंजन कहा। जब तक कोई कहानी, कविता या साहित्य की कोई अन्य विधा पाठक के मन को लुभाएगी नहीं, यानी उसका मनोरंजन करने में असमर्थ होगी तो साहित्य लोक-मंगल तक पहुँच ही नहीं पाएगा। भाषा और साहित्य का चोली दामन का साथ है। किसी एक भाषा में रचित साहित्य का रंग अपना अलग होता है। भले ही किसी विदेशी भाषा में रचित साहित्य या उस साहित्य का अनुवाद उत्कृष्ट श्रेणी का हो, परन्तु लेखक की मूल भाषा में संप्रेषित भाव अनूदित रचना में पूरी तरह नहीं आ पाते। इसका कारण स्पष्ट है कि भाषा की शब्दावलि प्रादेशिक संस्कृति से उपजती है। अनुवादक जानते हैं कि कई बार मौलिक रचना के भावों को व्यक्त करने वाले शब्द, अनुवाद के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा में होते ही नहीं। मूल कृति में कई संदर्भ, पात्रों के हाव-भाव, पारिवारिक संबंध, सामाजिक संबंध, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से जन्मे रीति-रिवाज़, दैनिक जीवन में लिए जाने वाले निर्णय इत्यादि प्रादेशिक पृष्ठभूमि में तो नैसर्गिक होते हैं परन्तु किसी अन्य प्रदेश या देश के लिए वह सटीक नहीं बैठते।

जिन दिनों मुझ से साक्षात्कार में प्रश्न पूछा गया था उन दिनों हिन्दी जगत पर संकट के बादल छाए हुए थे। मध्यवर्गीय समाज अपने बच्चों को हिन्दी न सिखाकर अंग्रेज़ी सिखाने के लिए उत्सुक था। स्कूलों में पाठ्यक्रम पर भी इंग्लिश की छाया गहरा रही थी। हिन्दी के उपन्यास, पत्रिकाएँ पढ़ना सामाजिक पिछड़ेपन का द्योतक होता जा रहा था। इसका कारण जहाँ तक मैं समझ सकता हूँ - वह समय भारतीय जनता के आर्थिक परिवर्तन का समय था। मध्यवर्ग के पास पैसा आना आरम्भ हो चुका था। जिन अभावों में मध्यवर्गीय माता-पिता की पीढ़ी पली-बढ़ी थी वह अपने बच्चों को उन अभावों से सुरक्षित रखना चाहती थी। कान्वेंट स्कूलों, या इंग्लिश मीडियम के स्कूलों की फ़ीस अब मध्यवर्ग की आर्थिक क्षमता के अनुसार भरी जा सकती थी। अपने बच्चों के आर्थिक और सामाजिक भविष्य को सुरक्षित करने के लिए यह मध्यवर्गीय जनता की भीड़ हिन्दी को त्याग कर अंग्रेज़ी को अपना रही थी। कार्यक्षेत्र में कंप्यूटर का संक्रमण हो रहा था। रोज़ी-रोटी के नए आयाम सामने आ रहे थे और सभी अंग्रेज़ी ज्ञान पर आधारित थे। इस परिदृश्य में हर विचार गोष्ठी में “हिन्दी की दशा और दिशा” का प्रश्न उठाया जाता था।

आर्थिक चिंताओं से परे एक अलग समाज था जो संस्कृति को चाह कर भी त्याग नहीं पा रहा था। त्याग भी कैसे सकता था क्योंकि संस्कृति कोई सीखी हुई प्रक्रिया नहीं होती - यह व्यक्ति के डीएनए का अंश होती है। सहस्त्राबदियों का लोकसाहित्य इस संस्कृति का आधार होता है। यह लोक-संस्कृति किसी विदेशी भाषा की बैसाखी लेकर एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक की यात्रा नहीं करती बल्कि यह जनमानस की शिराओं में स्थानीय लोकभाषा में रुधिर-सी बहती है। पाठक अवचेतन में स्थापित इस संस्कृति के खांचे के अनुसार हर नई रचना का आकलन करता है। इसी कारण हिन्दी साहित्य इन परिस्थितियों में जीवित तो रहा ही।

इस काल का एक अन्य पक्ष तकनीकी क्रांति का था। विश्व भर में कंप्यूटर का मूल्य आम आदमी की पहुँच में आता जा रहा था। दिन-प्रतिदिन कंप्यूटर पर काम करना आसान हो रहा था। परन्तु अभी भी समस्या हिन्दी को कंप्यूटर पर टाईप करने की थी। इन दिनों के किशोर बच्चों ने अंग्रेज़ी माध्यम में शिक्षित होते हुए भी अपने मित्रों के साथ “चैटिंग” हिन्दी में रोमन लिपि में करनी आरम्भ की। फिर उदय हुआ यूनिकोड का। इसने हिन्दी की अधिकतर समस्याओं का निवारण कर दिया। युवा पीढ़ी ने इसे अपनाने में देर नहीं की। जिस लोक-संस्कृति से उत्पन्न साहित्य की बात मैंने पहले की थी उसकी अभिव्यक्ति के लिए अब कोई अड़चन नहीं थी। हिन्दी पर छाये संकट के बादल छँट गए थे। तकनीकी क्रांति ने नए क्षितिज लेखकों साहित्य प्रेमियों के समक्ष खड़े कर दिए थे। अब हम अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी शब्दावलि में व्यक्त कर रहे थे। अभी क्रांति थमी नहीं थी…

– सुमन कुमार घई

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