आजकल करोना काल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आभासी दुनिया में बहुत सी संगोष्ठियाँ, चर्चाएँ, वेबिनार हो रहे हैं। इस भयानक आपदा का एक सकारात्मक पक्ष है। अगर कवि गोष्ठियों को छोड़ दें और केवल वैचारिक मंचों पर हो रही चर्चाओं का विश्लेषण करें, तो एक तथ्य उभर कर सामने आ रहा है कि हिन्दी भाषा के भविष्य के प्रति सभी किसी न किसी सीमा तक चिंतित हैं। मेरे लिए यह कोई नया विषय नहीं है। वर्षों से मैं इस समस्या को देख और भुगत रहा हूँ; इससे निपट भी रहा हूँ।
वैश्विक हिन्दी परिवार (व्हाट्सएप ग्रुप) ने कई समूहों को संगठित किया है जो हिन्दी भाषा के विभिन्न आयामों पर विचार और चर्चाएँ कर रहे हैं। पिछले दिनों इन चर्चाओं से कुछ सुझाव उभरने लगे हैं। मुझे आशा बँधने लगी है क्योंकि यह समूह अपने आप में सदस्यों की प्रतिभा, कार्य कुशलता और हिन्दी जगत में स्थापित पदों के कारण प्रभावकारी सिद्ध हो सकते हैं।
साहित्य कुञ्ज के सभी लेखक जानते हैं कि मैं कोई भी रचना बिना पढ़े प्रकाशित नहीं करता। मेरा संपर्क निरन्तर लेखक से बना रहता है, जब तक कि रचना प्रकाशन के योग्य नहीं हो जाती। बहुत से लेखकों को यह ढंग पसन्द नहीं आता और वह साहित्य कुञ्ज को छोड़ कर अन्यत्र प्रकाशित होने लग जाते हैं, जहाँ उनका लिखा ज्यों का त्यों प्रकाशित होता है। मेरी संपादन की शैली जो उन्हें प्रिय नहीं है वह साहित्य जगत में अलग है। मैं न तो कहानी को बदलता हूँ और न ही कविता को स्वयं बदलता हूँ। क्योंकि रचना मूलतः लेखक की होती है, इसलिए उसे ही संशोधन के सुझाव देता हूँ। यह लेखक की इच्छा होती है कि वह सुझावों को स्वीकार करके साहित्य कुञ्ज में प्रकाशित होना चाहता है या नहीं।
नए या उभरते लेखकों को जो मैं सुझाव देता हूँ वह विधा अनुसार कला-पक्ष से संबंधित होते हैं। लेखक की मौलिक शैली के साथ मैं छेड़-छाड़ नहीं करता। इसका कारण यह है कि अगर मैं सब पर अपनी शैली थोपने लगूँ तो साहित्य कुञ्ज में प्रकाशित होने वाला सारा साहित्य एकरस यानी नीरस हो जाएगा। मेरा कर्म केवल लेखन को तराशने तक ही सीमित है ताकि लेखक अपनी आभा से साहित्य जगत को आलोकित कर सके। कला को शक्ति भाषा से मिलती है और भाषा व्याकरण और विरामचिह्नों के बिना केवल शब्दों का जंजाल है। जो भी लेखक वास्तव में साहित्यकार बनना चाहता है, उस के लिए इन सभी पक्षों पर गंभीरता से परिश्रम करना आवश्यक है। यह इतना कठिन भी नहीं है - परन्तु समर्पण चाहिए। समर्पण इसलिए कि अभी तक सीखे हुए सभी पूर्वाग्रहों को त्यागना होगा। भाषा और व्याकरण को फिर से सीखना होगा। भाषा और बोली के अंतर को समझना होगा। मैं यह नहीं कहता कि भाषा को संस्कृतनिष्ठ बनाना होगा परन्तु परिस्थिति और भाव की अभिव्यक्ति के लिए उचित शब्द के प्रयोग की अनिवार्यता को समझना होगा। अगला प्रश्न है कि यह कैसे संभव है?
यह आज के समय में विचित्र प्रश्न है परन्तु अर्थहीन नहीं है। यह भाषा, व्याकरण और विराम चिह्नों के उचित उपयोग को कोई सीखे तो कैसे? हिन्दी के किसी भी मीडिया को आप देख लें भाषा के तीनों अनिवार्य पक्षों का सत्यानाश ही मिलेगा। कहने को कह तो दिया जाता है कि संपूर्ण भारत में हिन्दी के प्रसार में बॉलीवुड ने सार्थक भूमिका निभाई है। पर कैसी हिन्दी…? कैसा व्याकरण…? समाचार पत्रों का तो और भी बुरा हाल है। किसी भी समाचार का शीर्षक सीधा-सादा तो हो ही नहीं सकता। लगता है कि कोई सड़क के किनारे खड़ा मुनादी कर रहा है। अँग्रेज़ी के समाचार पत्रों की हेडलाइन्स तो भाषा का ऐसा उपहास नहीं उड़ातीं। हम हिन्दी वाले इन्हें क्यों स्वीकार कर लेते हैं? कहा जाता है कि देशज शब्दों से भाषा समृद्ध होती है- परन्तु कितनी मात्रा में देशज शब्दों का मिश्रण भाषा को समृद्ध करता है और कितनी मात्रा भाषा का प्रारूप ही बदल देती है। इस प्रदूषण की एक और परत है; देशज शब्द अपनी व्याकरण भी साथ लाते हैं। यानी यह प्रदूषण व्याकरण को भी बदलता है। देशज शब्दों को समृद्धिकारक समझने वालों को यह भी समझना चाहिए कि हिन्दी भाषी पट्टी भारत के किस छोर से किस छोर तक व्यापित है। इन प्रदेशों में कितनी बोलियाँ बोली जाती हैं और वह कितने देशज शब्दों को हिन्दी भाषा का अंग बनाएँगे। इस परिवर्धित हिन्दी को क्या पूरी हिन्दी भाषी पट्टी के पाठक समझ सकेंगे?
अगर हम सब लोग भाषा, व्याकरण इत्यादि को सही दिशा देना चाहते हैं तो वह कैसे देंगे? हिन्दी का शिक्षक वर्ग ही अगर त्रुटिपूर्ण व्यवस्था का उत्पाद हो तो लेखक तो त्रुटिपूर्ण लिखेंगे ही। और इन्हीं लेखकों में से सम्पादक भी बनेंगे और प्रकाशक भी। पाठक तो पहले से ही इस व्यवस्था में शिक्षित हुए हैं। इसी व्यवस्था में पढ़े हुए विद्यार्थी कल के अध्यापक, प्राध्यापक हैं? इस व्यवस्था को किस छोर से सही करना आरम्भ किया जाए। प्रश्न वैसा ही है कि पहले मुर्गी या अण्डा!
– सुमन कुमार घई
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