प्रिय मित्रो,
साहित्य कुञ्ज के प्रत्येक अंक के लिए सैंकड़ों रचनाएँ मुझे मिलती हैं। विश्वास कीजिए मैं उन सभी को पढ़ने का प्रयास करता हूँ। यह भी निश्चित है कि प्रकाशन से पहले रचना को पढ़ता हूँ, उस पर विचार करने के बाद, अगर समझता हूँ कि यह रचना निरर्थक नहीं है, और प्रबुद्ध पाठक इसे पसन्द करेंगे, तभी वह प्रकाशित करता हूँ। किसी भी रचना को प्रकाशित करते हुए यह अपेक्षा नहीं रखता कि सभी चयनित रचनाएँ, सभी पाठकों को रुचिकर लगेंगी। रचना का पसन्द और नापसन्द होना व्यक्तिगत रुचि पर निर्भर करता है। यह संपादक का कर्तव्य है कि वह हर प्रकार के उत्तम साहित्य के सभी रंग पाठकों के लिए प्रस्तुत करे। यही प्रयास प्रत्येक अंक के लिए करता हूँ।
पिछले सोलह वर्षों में दो प्रश्न मुझसे कई बार पूछे जा चुके हैं– पहला प्रश्न है कि साहित्य कुञ्ज में नवोदित लेखकों का अलग स्तम्भ क्यों नहीं है? उनकी रचनाओं को स्थापित लेखकों की रचनाओं के साथ क्यों प्रकाशित किया जाता है? दूसरा प्रश्न है कि एक अंक में एक कवि की एक से अधिक कविताओं के प्रकाशन क्या औचित्य है?
पहला प्रश्न, जो नवोदित लेखकों से संबंधित है उसका उत्तर पहले ही देना उचित है। स्थापित लेखकों से मैं स्वयं एक प्रश्न पूछता हूँ; क्या आप कभी नवोदित लेखक नहीं थे? क्या स्थापित होने के संघर्ष में आपने अपने लेखन को नहीं निखारा? अगर निखारा है तो उसकी क्या प्रक्रिया रही है? क्या आपने आरम्भिक दिनों में ऐसी पत्रिका में प्रकाशित होने के सपने नहीं देखे जिसमें केवल “सफल स्थापित लेखक” ही प्रकाशित होते थे? कोई स्वीकार करे न करे पर आरम्भिक दिनों में सभी लेखकों का एक ही सपना होता है - सफल लेखक बनना।
रचनाओं को चुनते हुए मैं कभी भी लेखक के नाम से या साहित्य जगत में उसके स्थान से प्रभावित नहीं होता। उसका कारण मेरा संपादकीय अनुभव है। कई बार ऐसा हुआ है कि कोई-कोई मुख्यधारा का स्थापित लेखक, साहित्य कुञ्ज में कुछ अच्छी रचनाएँ भेजने के बाद ऐसी आरम्भिक रचनाएँ भेजने लगता है, जो कहीं भी प्रकाशित नहीं हो पाईं और हो भी नहीं सकतीं। होता यह है कि आमतौर पर जैसे-जैसे लेखक साहित्य जगत में चोटी की ओर सरकने लगता है, उसकी आत्म-मुग्धता भी उसी अनुपात में ऊपर को सरकने लगती है। वह स्वयं, अपनी आरम्भिक रचनाओं के दोषों को देख ही नहीं पाता या देखकर भी अनदेखा करता है। यह भी हो सकता है कि कुछ पत्रिकाओं के संपादक/प्रकाशक लेखक के नाम की चकाचौंध से प्रभावित होकर इन लेखकों का कुछ भी प्रकाशित कर देते हों। अगर स्वयं किसी लेखक को अपने नाम की गरिमा की चिंता नहीं तो संपादक क्यों करे? और कई संपादक इन नामों के साथ अपना नाम जुड़ते हुए देखकर संतोष और गर्व अनुभव करते हैं। ऐसे स्थापित लेखक अपनी बगल में नवोदित लेखक की रचना देखना पसन्द न भी करें तो भी मैं किसी नवोदित लेखक की अच्छी रचना उनकी रचना के समक्षक क्यों न रखूँ? ऐसा करने से नई क़लम को प्रोत्साहन मिलता है। उन्हें साहित्य जगत में सम्भावनाएँ दिखने लगती है। और सबसे बड़ी बात अब वो सम्पादक की बात सुनने के लिए भी तैयार हो जाते हैं।
अब बात आती है – एक अंक में एक कवि की एक से अधिक कविताओं के प्रकाशन क्या औचित्य है? साहित्य कुञ्ज में कभी रचनाओं की संख्या कहीं भी घोषित नहीं की गई है। बल्कि साहित्य कुञ्ज में प्रकाशन के नियम बहुत उदार हैं। कई अच्छी पत्रिकाओं का नियम होता है कि एक निश्चित अवधि के अंतराल के बाद ही किसी लेखक की रचना प्रकाशित की जाएगी। संख्या भी बताई जाती है कि एक बार में इससे अधिक रचनाएँ मत भेजें। रचना की शब्दों की अधिकतम संख्या भी तय होती है। मेरा उद्देश्य केवल एक ही है - अच्छा साहित्य पाठकों तक पहुँचना चाहिए। एक वर्ष पहले तक साहित्य कुञ्ज में लगभग बीस कविताएँ एक अंक में प्रकाशित होती थीं। कहानियाँ तीन प्रकाशित होती थीं। व्यंग्य दो या तीन ही प्रकाशित होते है। अब कविताएँ तीस से चालीस तक, कहानियाँ कम से कम चार, व्यंग्य तीन से चार प्रकाशित कर रहा हूँ। आलेख, लघुकथा, संस्मरण, पुस्तक समीक्षा, रचना समीक्षा इत्यादि यानी साहित्य की लगभग सभी विधाओं की रचनाएँ अगर मुझे मिलती हैं तो प्रकाशित होती हैं। और यह हर पन्द्रह दिन के बाद है। जब इतना साहित्य लिखा जा रहा है तो मैं समझता हूँ कि संपादन के बाद उसे इंटरनेट पर होना ही चाहिए। यह माध्यम असीमित भी और शाश्वत भी। हर जेब, जिसमें मोबाइल है वहाँ साहित्य उपलब्ध भी है।
– सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
शिबु टुडू 2020/08/02 06:31 PM
अगस्त प्रथम 2020 के प्रथम अंक का सम्पादकीय पढ़ा ,तो मुझे मेरे गलती का एहसास हो गया, क्योंकि मैंने भी यह गलती कर चूकी है, अपने निम्नस्तरीय लेखन विभिन्न पत्रिकाओं में भेजकर। अब मुझे आत्म गलानी हो रही है, आपके मन की बात सूनकर। साथ ही आपने मेरे जैसे छोटे लेखकों के लिए भी अपना नजरीया साफ कर दिया है, जो मुझ जैसै लेखक के लिए शकून भरा पल है। आपके इस दृष्टिकोण के लिए बहूत-बहूत साधूवाद देता हूँ। सधन्यवाद।
राजेन्द्र वर्मा 2020/08/01 08:02 AM
बिलकुल ठीक कहा घई जी ! जब आप किसी नए लेखक कोअवसर देते हैं तो आप एक बच्चे को पालने पोसने का सा काम करते हैं अन्यथा उचित समर्थन के बिना कई संभावित लेखक लेखक बनने से रह जाते हैं I वैसे लेखक को लेखक होने का दंभ भी नहीं भरना चाहिए I
कृपया टिप्पणी दें
सम्पादकीय (पुराने अंक)
2024
2023
- टीवी सीरियलों में गाली-गलौज सामान्य क्यों?
- समीप का इतिहास भी भुला दिया जाए तो दोषी कौन?
- क्या युद्ध मात्र दर्शन और आध्यात्मिक विचारों का है?
- क्या आदर्शवाद मूर्खता का पर्याय है?
- दर्पण में मेरा अपना चेहरा
- मुर्गी पहले कि अंडा
- विदेशों में हिन्दी साहित्य सृजन की आशा की एक संभावित…
- जीवन जीने के मूल्य, सिद्धांत नहीं बदलने चाहिएँ
- संभावना में ही भविष्य निहित है
- ध्वजारोहण की प्रथा चलती रही
- प्रवासी लेखक और असमंजस के बादल
- वास्तविक सावन के गीत जो अनुमानित नहीं होंगे!
- कृत्रिम मेधा आपको लेखक नहीं बना सकती
- मानव अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता के दंभ में जीता है
- मैं, मेरी पत्नी और पंजाबी सिनेमा
- पेड़ की मृत्यु का तर्पण
- कुछ यहाँ की, कुछ वहाँ की
- कवि सम्मेलनों की यह तथाकथित ‘साहित्यिक’ मजमेबाज़ी
- गोधूलि की महक को अँग्रेज़ी में कैसे लिखूँ?
- मेरे पाँच पड़ोसी
- हिन्दी भाषा की भ्रान्तियाँ
- गुनगुनी धूप और भावों की उष्णता
- आने वाले वर्ष में हमारी छाया हमारे पीछे रहे, सामने…
- अरुण बर्मन नहीं रहे
2022
- अजनबी से ‘हैव ए मैरी क्रिसमस’ कह देने में बुरा ही…
- आने वाले वर्ष से बहुत आशाएँ हैं!
- हमारी शब्दावली इतनी संकीर्ण नहीं है कि हमें अशिष्ट…
- देशभक्ति साहित्य और पत्रकारिता
- भारत में प्रकाशन अभी पाषाण युग में
- बहस: एक स्वस्थ मानसिकता, विचार-शीलता और लेखकीय धर्म
- हिन्दी साहित्य का अँग्रेज़ी में अनुवाद का महत्त्व
- आपके सपनों की भाषा ही जीवित रहती है
- पेड़ कटने का संताप
- सम्मानित भारत में ही हम सबका सम्मान
- अगर विषय मिल जाता तो न जाने . . .!
- बात शायद दृष्टिकोण की है
- साहित्य और भाषा सुरिक्षित हाथों में है!
- राजनीति और साहित्य
- कितने समान हैं हम!
- ऐतिहासिक गद्य लेखन और कल्पना के घोडे़
- भारत में एक ईमानदार फ़िल्म क्या बनी . . .!
- कितना मासूम होता है बचपन, कितनी ख़ुशी बाँटता है बचपन
- बसंत अब लौट भी आओ
- अजीब था आज का दिन!
- कैनेडा में सर्दी की एक सुबह
- इंटरनेट पर हिन्दी और आधुनिक प्रवासी साहित्य सहयात्री
- नव वर्ष के लिए कुछ संकल्प
- क्या सभी व्यक्ति लेखक नहीं हैं?
2021
- आवश्यकता है आपकी त्रुटिपूर्ण रचनाओं की
- नींव नहीं बदली जाती
- सांस्कृतिक आलेखों का हिन्दी साहित्य में महत्व
- क्या इसकी आवश्यकता है?
- धैर्य की कसौटी
- दशहरे और दीवाली की यादें
- हिन्दी दिवस पर मेरी चिंताएँ
- विमर्शों की उलझी राहें
- रचना प्रकाशन के लिए वेबसाइट या सोशल मीडिया के मंच?
- सामान्य के बदलते स्वरूप
- लेखक की स्वतन्त्रता
- साहित्य कुञ्ज और कैनेडा के साहित्य जगत में एक ख़ालीपन
- मानवीय मूल्यों का निकष आपदा ही होती है
- शब्दों और भाव-सम्प्रेषण की सीमा
- साहित्य कुञ्ज की कुछ योजनाएँ
- कोरोना काल में बन्द दरवाज़ों के पीछे जन्मता साहित्य
- समीक्षक और सम्पादक
- आवश्यकता है नई सोच की, आत्मविश्वास की और संगठित होने…
- अगर जीवन संघर्ष है तो उसका अंत सदा त्रासदी में ही…
- राजनीति और साहित्य का दायित्व
- फिर वही प्रश्न – हिन्दी साहित्य की पुस्तकें क्यों…
- स्मृतियों की बाढ़ – महाकवि प्रो. हरिशंकर आदेश जी
- सम्पादक, लेखक और ’जीनियस’ फ़िल्म
2020
- यह वर्ष कभी भी विस्मृत नहीं हो सकता
- क्षितिज का बिन्दु नहीं प्रातःकाल का सूर्य
- शोषित कौन और शोषक कौन?
- पाठक की रुचि ही महत्वपूर्ण
- साहित्य कुञ्ज का व्हाट्सएप समूह आरम्भ
- साहित्य का यक्ष प्रश्न – आदर्श का आदर्श क्या है?
- साहित्य का राजनैतिक दायित्व
- केवल अच्छा विचार और अच्छी अभिव्यक्ति पर्याप्त नहीं
- यह माध्यम असीमित भी और शाश्वत भी!
- हिन्दी साहित्य को भविष्य में ले जाने वाले सक्षम कंधे
- अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी शब्दावलि - 2
- पहले मुर्गी या अण्डा?
- कोरोना का आतंक और स्टॉकहोम सिंड्रम
- अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी शब्दावलि - 1
- लेखक : भाषा का संवाहक, कड़ी और संरक्षक
- यह बिलबिलाहट और सुनने सुनाने की भूख का सकारात्मक पक्ष
- एक विषम साहित्यिक समस्या की चर्चा
- अजीब परिस्थितियों में जी रहे हैं हम लोग
- आप सभी शिव हैं, सभी ब्रह्मा हैं
- हिन्दी साहित्य के शोषित लेखक
- लम्बेअंतराल के बाद मेरा भारत लौटना
- वर्तमान का राजनैतिक घटनाक्रम और गुरु अर्जुन देव जी…
- सकारात्मक ऊर्जा का आह्वान
- काठ की हाँड़ी केवल एक बार ही चढ़ती है
2019
- नए लेखकों का मार्गदर्शन : सम्पादक का धर्म
- मेरी जीवन यात्रा : तब से अब तक
- फ़ेसबुक : एक सशक्त माध्यम या ’छुट्टा साँड़’
- पतझड़ में वर्षा इतनी निर्मम क्यों
- हिन्दी साहित्य की दशा इतनी भी बुरी नहीं है!
- बेताल फिर पेड़ पर जा लटका
- भाषण देने वालों को भाषण देने दें
- कितना मीठा है यह अहसास
- स्वतंत्रता दिवस की बधाई!
- साहित्य कुञ्ज में ’किशोर साहित्य’ और ’अपनी बात’ आरम्भ
- कैनेडा में हिन्दी साहित्य के प्रति आशा की फूटती किरण
- भारतेत्तर साहित्य सृजन की चुनौतियाँ - दूध का जला...
- भारतेत्तर साहित्य सृजन की चुनौतियाँ - उत्तरी अमेरिका के संदर्भ में
- हिन्दी भाषा और विदेशी शब्द
- साहित्य को विमर्शों में उलझाती साहित्य सत्ता
- एक शब्द – किसी अँचल में प्यार की अभिव्यक्ति तो किसी में गाली
- विश्वग्राम और प्रवासी हिन्दी साहित्य
- साहित्य कुञ्ज एक बार फिर से पाक्षिक
- साहित्य कुञ्ज का आधुनिकीकरण
- हिन्दी वर्तनी मानकीकरण और हिन्दी व्याकरण
- चिंता का विषय - सम्मान और उपाधियाँ
2018
2017
2016
- सपना पूरा हुआ, पुस्तक बाज़ार.कॉम तैयार है
- हिन्दी साहित्य, बाज़ारवाद और पुस्तक बाज़ार.कॉम
- पुस्तकबाज़ार.कॉम आपके लिए
- साहित्य प्रकाशन/प्रसारण के विभिन्न माध्यम
- लघुकथा की त्रासदी
- हिन्दी साहित्य सार्वभौमिक?
- मेरी प्राथमिकतायें
- हिन्दी व्याकरण और विराम चिह्न
- हिन्दी लेखन का स्तर सुधारने का दायित्व
- अंक प्रकाशन में विलम्ब क्यों होता है?
- भाषा में शिष्टता
- साहित्य का व्यवसाय
- उलझे से विचार
डॉ. मनीष गोहिल 2020/08/04 10:46 AM
आपकी बात बिलकुल सही है। नये रचनाकारों को अपना स्थान स्थापित करने में काफी महेनत करनी पड़ती है और कई पत्रिकाएँ स्पष्ट कहती है कि एक रचनाकार की एक ही रचना प्रकाशित होगी। उसकी दूसरी रचना के लिए उसे लम्बे समय तक इंतज़ार करना पड़ता है। जबकि आपकी पत्रिका में नये तथा स्थापित रचनाकार को योग्यतानुसार स्थान मिलता ही है। मेरा स्वयं का अनुभव है। आप रचनाकार एवं रचना के प्रभुत्व को देखकर तुरंत ही उसे प्रकाशित करते हो। एक प्रकार से आप साहित्य के प्रचार-प्रसार का दायित्व ही निभा रहे हो। इसीलिए आपकी पत्रिका आज हिन्दी साहित्य में प्रगति पथ पर अग्रसर है।