प्रिय मित्रो,
आज ३१ अगस्त है। वर्ष के आठ महीने बीत गए और अभी भी विश्व कोविड-१९ की आपदा से जूझ रहा है। कुछ देशों में वायरस का प्रभाव कुछ कम हुआ है जबकि कुछ देशों में अभी भी स्थिति भयावह बनी हुई है। वैज्ञानिक कह रहे हैं कि अभी द्वितीय लहर आने की संभावना है। कुछ का कहना है कि संभावना कहना ग़लत है बल्कि कहना चाहिए अपेक्षित है। मानव करे तो क्या? क्या समाज से अपने आपको विलग कर केवल छोटी-छोटी इकाइयों में जीने का अभ्यस्त हो जाए, जो कि मानव प्रकृति के विपरीत है। देखने में आ रहा है कि "जो होगा देखा जाएगा" की भावना तूल पकड़ रही है।
यहाँ सितम्बर में स्कूल वर्ष आरम्भ होता है। स्कूल खुलेंगे यह निर्णय हो चुका है परन्तु न तो कोई नीति निर्धारित हुई और न ही विभिन्न स्तरों की सरकारों में कोई समन्वय बन पाया है। दूसरी ओर माता-पिता आक्रांत हैं; बच्चों को स्कूल भेजें तो कैसे? कुछ माता-पिता प्रतीक्षा करके स्थिति को भाँप कर बच्चों को स्कूल भेजने का सोच रहे हैं। परन्तु कुछ माता-पिता ऐसे भी हैं जिन्होंने बच्चों की सुरक्षा के लिए अपनी रोज़ी-रोटी को अनदेखा किया हुआ है। सरकार से जो सहायता मिलती है उसी से जीवनयापन कर रहे हैं। जब कार्यस्थल प्रतिबंध मुक्त हो जाएँगे तो काम पर जाना तो पड़ेगा ही। व्यवसायी भी तो दोहरी मार भुगत रहे हैं। व्यवसाय परिचालन के कुछ स्थायी ख़र्चे होते हैं जिन्हें कम तो किया जा सकता है पर आंशिक रूप से ही सही, ख़र्च तो होता ही है। उन्हें सरकारी रूप से उतनी सहायता नहीं मिल रही है जितनी कि निम्नवर्गीय नौकरी पेशा को। शायद आप हैरान होंगे कि यह स्थिति किसी विकासशील देश नहीं बल्कि कैनेडा जैसे एक विकसित देश की है। अब आप सोचिए भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले विकासशील देश की क्या हालत होनी चाहिए और क्या वास्तव में है।
इस समय भारत पर दो संकट छाए हुए हैं एक ओर से कोरोना है तो दूसरी ओर चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी। एक समस्या ऐसी भी है जिसे भारतवासी बिल्कुल भी नहीं समझते या समझना नहीं चाहते, वह है राजनैतिक विपक्ष का दायित्व। विकसित देशों में अगर ऐसी समस्याएँ आती हैं, जिनसे भारत इस समय गु़ज़र रहा है – सीमा पर तनाव, कश्मीर में आतंकवाद और कोरोना; विपक्ष सरकार की नीतियों की आलोचना कम करके सहायता करने लगता है। पूरे राष्ट्र की एक आवाज़ होती है। देश के विपक्षियों से निपटने के लिए आंतरिक मतभेदों को भुला दिया जाता है। भारत में ऐसा नहीं है। राजनीति कभी भी मौन नहीं होती और हर घटना, हर असफलता, हर मतभेद का चाहे वह नीतिगत हो या धार्मिक, उसे भुनाने में विपक्ष किसी भी परिस्थित में कमी नहीं करता। मेरा इशारा किसी राजनैतिक दल विशेष की ओर नहीं है। पूरी राजनैतिक व्यवस्था ही नैतिक दिशा भूल चुकी है। सरकारें बदलती हैं, सत्तासीन दल बदलते हैं पर राजनैतिक प्रवृत्तियाँ वही की वही रहती हैं।
भारत की राजनीति भी इतनी निराशापूर्ण नहीं है। हाँ यह बात अलग है कि आम व्यक्ति पर चारों ओर से बिके हुए समाचार मीडिया की ऐसी बौछार होती है कि वह दिग्भ्रमित हो जाता है। वह भूल चुका है कि प्रजातंत्र की वह मौलिक इकाई है। पूरा तंत्र उसी के कंधों पर टिका है। आम व्यक्ति को नहीं भूलना चाहिए कि उसका स्वर और उसकी सोच भी प्रजातंत्र में अपना स्थान रखती है। इंटरनेट के काल में यह एकल स्वर सार्वजनिक होते ही एक विशाल सुनामी का रूप ले सकता है और राजनैतिक दलों को अपनी नीति बदलने के लिए विवश कर सकता है। मत भूलें कि चाहे समाचार मीडिया बिक चुका है परन्तु उन मीडिया संस्थानों को चलाने के लिए पैसा विज्ञापन से ही मिलता है। व्यवसायिक जगत की कोई राजनीति नहीं होती। उसकी रगों में केवल मुनाफ़ा और पैसा दौड़ता है। अगर सामूहिक रूप से जनता किसी समाचार संस्थान के विज्ञापनदाताओं पर निशाना साध कर वार करे, मीडिया हाउस शीघ्र ही अपनी तर्ज़ बदलते दिखाई देते हैं। यह पश्चिमी देशों में प्रमाणित तथ्य है। कई बार हुआ है कि किसी टीवी के विशेष राजनैतिक कार्यक्रम के संचालक का झुकाव जनता के किसी वर्ग को आहत करने वाला होता है तो वह वर्ग उस कार्यक्रम के मुख्य स्पांसर के उत्पादों का बायकाट करने की धमकी देता है। और हर बार व्यवसाय घुटने टेकता है क्योंकि उनकी रगों में मुनाफ़ा और पैसा दौड़ता है। जब किसी कार्यक्रम का स्पांसर ही नहीं होगा तो कार्यक्रम भी बंद होता है और टीवी चैनल भी।
मैं अच्छी तरह जानता और मेरी नीति साहित्य कुञ्ज को विवादस्पद विषयों से दूर रखने की है। पूरे सम्पादकीय में मैंने फूँक-फूँक कर शब्द चुने हैं। ऐसा सम्पादकीय लिखने का एक कारण यह भी है कि साहित्य का सामाजिक दायित्व भी होता है। यह भी सच है कि प्रत्येक लेखक की एक राजनीतिक विचारधारा भी होती है। जब उसके लेखन में समाज के कल्याण हेतु राजनीति की परछाई आती है तो वह भी तो प्रकाशित होता है, तो सम्पादकीय क्यों नहीं! जब कोरोना के भय से लाखों मज़दूर पैदल गाँवों की ओर चले तो असीमित साहित्य सरकार और तंत्र की आलोचना को व्यक्त करते हुए लिखा गया, जो प्रकाशित भी हुआ। मुझे यह भी विश्वास है कि तटस्थ लेखक अपनी राजनीति को मानवीय संस्कारों से ढक कर लेखनी उठाता है। आपसे भी यही अपेक्षा है क्योंकि लेखक शून्य में नहीं जीता। साहित्य का राजनैतिक दायित्व भी होता है।
– सुमन कुमार घई
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Rajnandan Singh 2020/09/01 06:39 AM
माननीय संपादक जी सादर नमस्कार, सधे शब्दों में सारी बातें कहती हुई, बहुत हीं विचारोत्तेजक एवं गूढ संपादकीय। कनाडा में रहते हुए भी आपने भारत की वर्तमान मूल चार समस्याओं (अनियंत्रित कोविड १९, पड़ोस विवाद, विपक्ष का मौन, और मिडिया चरित्र) को इतनी गहराई से व्यक्त किया जो यहाँ बैठे लोग भी नहीं समझ पा रहे हैं या समझना नहीं चाहते हैं। मिडिया लोगों की आवाज होती है। जो किसी कारणवश दब, डर, या बिक सकती है। मगर साहित्य मुझे लगता है समाज का पुरोधा होता है। जो न तो दबता है, न डरता है न बिकता है। क्योंकि साहित्य के पास विधा है, जो बात वह सीधे नहीं कह सकता वह व्यंग्य में कह देता है, किसी और विधा में कह देता है। मगर कह देता है। इस संपादकीय में ये सारी बातें हैं।कुल मिलाकर संपादकीय का यह अंक एक आदर्श एवं संग्रहणीय अंक है।