अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

प्रिय मित्रो,

सब पाठकों हिन्दी दिवस की हार्दिक बधाई! इस बार हिन्दी दिवस का उत्सव भी आभासी दुनिया में ही मन रहा है – परन्तु शुक्ल पक्ष है कि यह उत्सव स्थानीय न होकर वैश्विक हो गया है। है न अजीब बात, एक आपदा ने दुनिया छोटी कर दी। यह सुविधाएँ पहले से थीं परन्तु आम व्यक्ति न तो इनके बारे में जानता था और अगर जानता था तो इनका प्रयोग करना नहीं चाहता था। आभासी दुनिया में बस एक बात खटकती है कि वह तालियों की गूँज और वाह-वाह का आभास, मात्र ताली बजाते इमोजी तक रह गया है। नई वास्तविकता है, नए समझौते हैं और नए समीकरण हैं।

इस सम्पादकीय में मैं दो बातों की चर्चा करना चाहता हूँ। पहली बात – साहित्य कुञ्ज के पाठक जानते हैं कि हम लोगों ने साहित्य कुञ्ज में एक नया आयाम जोड़ा है - विशेषांक का। इस बार का विशेषांक जो प्रकाशित हो चुका है वह - दलित साहित्य। यह विशेषांक अपने आकार और विचार दोनों में विस्तृत और व्यापक है। नाम से लेकर साहित्य की गहनता तक की चर्चा की गई है। यह केवल एक चर्चा तक सीमित नहीं है बल्कि प्रकाशित साहित्यिक रचनाएँ इन चर्चाओं और तर्कों को समृद्ध करती हैं और तीसरा आयाम जोड़कर जीवंत कर देती हैं। इस विशेषांक में साहित्यकारों की प्रतिभागिता ने इसे सफल प्रकाशन बना दिया है। इस सामग्री को एकत्रित करने और साहित्य के इस पक्ष की नींव रखने वाले साहित्यकारों को साहित्य  कुञ्ज से जोड़ने के लिए विशेषांक संपादिका डॉ. शैलजा सक्सेना और विशेषांक सह-संपादिका डॉ. रेखा सेठी ने बहुत परिश्रम किया है। दलित साहित्य पर इतनी मात्रा में सामग्री शायद ही किसी अन्य वेबसाइट पर उपलब्ध हो। बहुत से आलेख और कहानियाँ पहले पत्र-पत्रिकाओं या पुस्तकों में प्रकाशित हो चुके थे। परन्तु प्रिंट मीडिया की अपनी सीमाएँ हैं। उनकी उपलब्धता सीमित रहती है। दलित संस्करण प्रकाशित होते हैं परन्तु कुछ समय के बाद अन्य संस्करणों के नीचे दब जाते हैं। ऐसी अवस्था में इंटरनेट का मीडियम, जिसे अभी तक शीर्ष साहित्यकार और संस्थान नकारते रहे हैं, अपने महत्व को रेखांकित करता है। एक बार दलित साहित्य का विशेषांक प्रकाशित होने के बाद कभी भी अन्य संस्करणों या विशेषांकों की भीड़ में खोएगा नहीं। खोज/सर्च की कुछ की-स्ट्रोक्स द्वारा यह दुनिया के हर वह कोने में उपलब्ध है जहाँ इंटरनेट उपलब्ध है। विश्व भर के शोधार्थियों को पुस्तकालयों में पुस्तकों के होने या न होने की चिंता नहीं ढोनी होगी। इंटरनेट के माध्यम का एक लाभ यह भी है कि इस विषय से संबंधित अन्य सामग्री इसमें जुड़ती जाएगी। एक विशेषांक प्रकाशित होना इस विषय पर चर्चा का अंत नहीं परन्तु आरम्भ है। आशा है कि भविष्य में भी जब समय-समय पर अन्य विशेषांक प्रकाशित होंगे साहित्य कुञ्ज की सहभागिता साहित्यकारों के साथ बनेगी और समृद्ध होती चली जाएगी।

दूसरा मेरा वही पुराना विषय और पुराना रोना है। मेरे लेखक साथियो कृपा करके अपनी कला का आदर करना सीखिए। केवल एक अच्छे विचार की अच्छी अभिव्यक्ति से रचना संपूर्ण नहीं होती। कृपया व्याकरण, वर्तनी और विराम चिह्नों की ओर ध्यान दें क्योंकि इनके बिना कोई भी रचना अच्छी नहीं बनती। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि बिना सही तकनीकी पक्ष के रचना पाठक को वह नहीं कह पाती जो लेखक कहना चाहता है। मैं सभी पाठकों और लेखकों को आमन्त्रित करता हूँ कि वह इस बार डॉ. प्रतिभा सक्सेना का व्यंग्य/हास्य रचना "विराम-अविराम" पढ़ें। प्रतिभा जी भाषा, व्याकरण और साहित्य की विदुषी हैं और बहुत अच्छी लेखिका हैं। उनके व्यंग्य गहरे और आम लीक से हट कर होते हैं। उनके फ़ोल्डर में जाकर आप उनकी सभी रचनाओं को पढ़ेंगे तो मेरी बात के साथ आप भी सहमत होंगे। उन्होंने विराम चिह्नों के उचित प्रयोग को हँसी-हँसी में समझा दिया है। यह विषय मेरे दिल के इसलिए क़रीब है क्योंकि मेरा अधिकतर समय विराम चिह्नों को ठीक करने ही व्यतीत होता है। 

अपने अगले संपादकीय में मैं शिकायत के साथ-साथ आप लोगों को कुछ अन्य वेबपोर्टल्ज़ के लिंक दूँगा, जहाँ आप विराम चिह्नों के उचित उपयोग के बारे में पढ़ सकेंगे।

– सुमन कुमार घई

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

सम्पादकीय (पुराने अंक)

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015