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प्रिय मित्रो,

कुछ सप्ताह पहले साहित्य कुञ्ज का व्हाट्स ऐप समूह आरम्भ किया था। इस समूह को आरम्भ करने से पहले जो परिकल्पना की थी, वह फलित होती दिखाई दे रही है। समूह के प्रतिभागी अपनी साहित्यिक रचनाओं को प्रस्तुत कर रहे हैं। उन रचनाओं पर चर्चा भी हो रही है। जैसा कि एक बार मैंने लिखा था कि यह समूह केवल वाह-वाह का मंच नहीं है – वही हो रहा है। अगर रचना अच्छी है तो केवल वाह-वाह या इमोजी नहीं चिपकाई जा रही बल्कि पाठक टिप्पणियाँ भी कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त, शब्दों के सही स्वरूप, शब्दों की व्युत्पत्ति से लेकर उनके सही प्रयोग तक की चर्चा हो रही है। वैचारिक टकराव और उन पर विभिन्न दृष्टिकोणों को भी शिष्टतापूर्वक प्रस्तुत किया जा रहा है। क्योंकि मैं समूह का संचालक हूँ इसलिए मुझ पर कुछ अंकुश हैं जो मैंने स्वयं के लिए तय किए हैं। प्रत्येक रचना पर मैं टिप्पणी नहीं कर सकता। जब वैचारिक संघातों से कई नए विचारों का जन्म होते देखता हूँ तो मैं किसी का पक्ष नहीं ले सकता। जब मैं भावातिरेक में बहते किसी लेखक द्वारा सीमाओं का अतिक्रमण करने की संभावना देखता हूँ तो अवश्य ही एक रैफ़री की तरह मुझे बीच में आना पड़ता है। अगर सभी प्रयास करें तो मुझे यह भी नहीं करना पड़ेगा और वह आदर्श परिस्थिति होगी।

पिछले दिनों एक ऐसी ही चर्चा चली बहू के अधिकारों की, उसके दायित्वों की, बेटी के अधिकारों और दायित्वों की, गृहिणी के अधिकारों की और दायित्वों की। मैंने इस वाक्य में सामाजिक और पारिवारिक परिप्रेक्ष्य में नारी के संभवतः सभी रूपों को अलग-अलग रखा है; क्योंकि समाज एक ही नारी को इन्हीं अलग-अलग रूप में देखता है और उनसे अलग-अलग व्यवहार करता है। दुर्भाग्य है कि जो एक के लिए मान्य है वह अन्यों के लिए अमान्य हो सकता है। बहुत सी बातें मैं मंच पर नहीं कह सकता परन्तु सम्पादकीय में मुझे बहुत कुछ करने की स्वतंत्रता है परन्तु यहाँ पर भी मैंने अपने अंकुश स्वयं निर्धारित किए हुए हैं। 

इस विषय पर चर्चा करना अतिआवश्यक है। तनिक सोचिए कि कितना साहित्य इस विषय को लिखा गया है। अगर रामायण को साहित्य की श्रेणी में गिनें तो उसमें नारी पात्रों की दशा, उनके चित्रण और उनके सामाजिक अधिकारों और दायित्वों की उसी प्रकार से चर्चा की गई है और जैसे कि आधुनिक साहित्य में हो रही है। समस्याएँ भी वही हैं और समाधान भी वही हैं। आदर्श तो हर युग के अपने अलग होते हैं इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि आदर्श परिस्थितियाँ क्या हो सकती थीं और नारी की आदर्श स्थिति क्या थी। और वर्तमान में जिन आदर्शों को खोज रहे हैं, क्या भविष्य में उन्हें आदर्श माना जाएगा? 

एक बात और आदर्श तय कौन करता है और आदर्श है क्या? क्या आदर्शों को सामजिक नेता तय करते हैं, धार्मिक संस्थान तय करते हैं, साहित्यकार तय करते हैं या यह केवल वर्तमान सामाज की सामूहिक मान्यताएँ होती हैं? हर पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की मान्यताओं को नकारती है। अगर मान्यताएँ नकारी जाती है तो संस्कार भी परिवर्तनशील हैं। क्या हम संस्कारों की दुहाई देते हुए नई पीढ़ी को कोसने का अधिकार रखते हैं? इस वर्ष सैंतीस वर्ष बाद भारत लौटने पर मैंने महानगरों में युवतियों के आचरण को देखकर अनुभव किया कि विदेशी समाज में रहते हुए भी मैं पिछड़ गया हूँ। यह स्वतंत्रता के कृष्णपक्ष बात कर रहा हूँ। एक ओर इन युवतियों में स्वभिमान, आत्मविश्वास और समाज में अपना स्थान बनाने की उत्कट इच्छा देख कर अच्छा लगा दूसरी ओर पश्चात्य जगत की बुराइयों को आधुनिकता के नाम पर अति के रूप में अपनाना चौंका देने वाला भी लगा। इस अति के होने को क्या स्वतंत्रता प्राप्ति का उत्सव मान कर स्वीकार किया जाए या दिग्भ्रमित होने के रूप में? इस परिस्थिति में आदर्श क्या है? महानगरीय आदर्श या ग्राम्य आदर्श? फिर आदर्श का आदर्श क्या है?

साहित्य के सभी अध्येयता इस बात पर भी सहमत होते हैं कि साहित्यकार सामाजिक परिस्थितियों और अपने पूर्वाग्रहों से अछूता नहीं होता। अपनी रचना में लेखक उपस्थित रहता है। चाहे वह प्रत्यक्ष हो या संवेदनाओं में व्यक्त हो या शब्दों के चयन के पीछे छिपा हो। यह भी अकाट्य वक्तव्य है कि लेखक मानव है और किसी भी मानव की विचारधारा का संकीर्ण होना या उदात्त होना व्यक्तिगत अनुभवों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इस कथन को आगे बढ़ाते हुए मेरे विचार से, किसी भी सामाजिक अमान्य तर्क को आधार बना कर लेखक रचना लिखने के लिए स्वतन्त्र है। संभवतः विश्व की प्रत्येक भाषा के साहित्य के हर काल में ऐसा हुआ है और वह रचनाएँ अभी तक चर्चा का विषय बनती हैं।

साहित्य कुञ्ज के व्हाट्स ऐप के समूह पर नारी के अधिकारों और दायित्वों की चर्चा में सही कौन था और ग़लत कौन? आदर्शों की बात नहीं कर रहा। हम सभी जानते हैं कि वर्तमान आदर्श परिस्थिति क्या है परन्तु वास्तविकता और व्यक्तिगत अनुभव से लेखक को अछूता कौन रखे! अगर हम आदर्श का झंडा लेकर लेखक की विचारधारा पर अंकुश लगाने लगें, तो क्या किसी भी साहित्यकार को यह मान्य होगा? क्योंकि अगर आज किसी और पर अंकुश हम लगा रहे हैं तो कल हमारी बारी भी आ सकती है। दूसरी ओर कहा जा सकता है कि सार्वभौमिक आदर्श तो होते हैं, उनका उल्लंघन या उनको चुनौती देना क्या साहित्य में स्वीकार्य है? यही तो यक्ष प्रश्न है!

— सुमन कुमार घई

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