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प्रिय मित्रो,

आज ३१ अक्तूबर है। आज पश्चिमी जगत में हैलोविन का त्योहार है। यह त्योहार बहुत पुराना है। माना जाता है कि इसका संबंध कैल्टिक संस्कृति से संबंधित है। कैल्टिक लोग यूरोप की डेन्यूब नदी के ऊपरी भाग में विकसित हुए थे। इन दिनों क्योंकि रात और दिन लगभग बराबर होते हैं इसलिए इन लोगों की धारणा थी कि मृत लोगों की आत्माएँ भी मौत के अँधेरे से जीवन के उजाले में आ सकती हैं। ईसाई धर्म के उदय के साथ अंधविश्वासों के विरोध में जो लहर चली तो इस त्योहार पर भी बंदिशें लगने लगीं।

धीरे-धीरे कैल्टिक सभ्यता समाप्त हो गई परन्तु संस्कृति तो लोगों में जीवित रहती है। इसलिए लाख प्रयासों के बाद भी कैल्टिक सभ्यता के कुछ अंश बच ही गए, जिनमें से एक हैलोविन है। यूरोप के जिन भागों में यह संस्कृति अभी भी जीवित है, वह आयरलैंड, आइल ऑफ़ मैन, स्कॉटलैंड, वेल्स, कॉर्नवाल और ब्रिटनी इत्यादि हैं। कैनेडा में यह त्योहार कैल्टिक लोगों के साथ ही आया। 

जब उत्तरी अमेरिका में युरोपीयन प्रवासी आए तो वह इस त्योहार को भी अपने साथ लाए। मुख्यतः इस युग में यह त्योहार बच्चों का है। अँधेरा होते ही बच्चों की टोलियाँ विभिन्न पोशाकें पहने और मुखौटे लगाए गली-मुहल्लों में घर-घर से कैंडी, चॉकलेट इत्यादि माँगने निकलते हैं। घरों वाले भी बच्चों के स्वागत के लिए घरों को सजाते हैं या यूँ कहें डरावना बनाते हैं। घर के बाहर पोर्च पर नक़ली मकड़ी के जाले, नर कंकाल आदि लटकाए जाते हैं। सीता फल (पंपकिन) को चाकू से डरावनी सूरत में परिवर्तित करके उसके अंदर मोमबत्ती जला दी जाती है, जिसे "जैक ओ’लैंटर्न" कहा जाता है। मुख्य द्वार पर आकर बच्चे घंटी बजाते हैं। जो द्वार खोलता है उससे बच्चे पूछते हैं "ट्रिक ऑर ट्रीट" यानी हम आपके साथ ट्रिक करें या आप हमें ट्रीट दोगे। ट्रीट का अर्थ यहाँ मीठी गोलियाँ, चॉकलेट इत्यादि से होता है। 

भारत में भी इसके बराबर का त्योहार लोहड़ी है। विशेषकर पंजाब में इसी तरह बच्चे घर-घर लोहड़ी माँगने जाते हैं और लोहड़ी के गीत गाते हैं। जिस घर से लोहड़ी (रेवड़ी, गज्जक, भुनी मूंगफली इत्यादि) मिलती है; बच्चे उस घर को आशीष देने वाले गीत गाते हैं और अगर उन्हें लोहड़ी नहीं मिलती तो ऊँचे स्वरों में घोषणा करने में भी कोई कमी नहीं छोड़ते — हुक्का बई हुक्का, ए घर भुक्खा। रात को लोहड़ी जलाई जाती है और गली-मुहल्ले के लोग उसमें तिल, गुड़ अर्पित करते हैं और अग्नि के आस-पास भंगड़ा और लोकगीतों इत्यादि के साथ उत्सव मनाया जाता है।

मुझे यह भी पूर्ण विश्वास है की विश्व भर की पुरानी सभ्यताओं में ऐसी समानताएँ अवश्य रही होंगी। बाद में जब विभिन्न सम्प्रदाय विकसित हुए तो अन्य सम्प्रदायों के साथ प्रतिस्पर्धा में स्वयं को श्रेष्ठ घोषित करते हुए पुरातन सभ्यता की रीतियों को अज्ञान कहकर निषिद्ध घोषित कर दिया गया। जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है, संस्कृति लोगों में जीवित रहती है। उसे कोई धर्मगुरु मृत घोषित नहीं कर सकता, हाँ, प्रयास कर सकता है। संस्कृति रूप बदल सकती है पर मर नहीं सकती।  उदाहरण के तौर पर कैरेबियन देशों और दक्षिण अमेरिका के देशों में ईसाई मत का एक अलग स्वरूप है, जिस में जादू-टोना और झाड़-फूँक स्वीकार्य है। मैक्सिको में 31 अक्तूबर से लेकर 2 नवम्बर तक "दिया द मुर्तोस" यानी मृतकों का दिन मनाया जाता है। देखा जाए तो इस त्योहार की मूल भावना हमारे "श्राद्ध" के आसपास की ही है। इस दिन अपने पूर्वजों का आदर करने के लिए रात को लोग क़ब्रिस्तानों में जाकर अपने पूर्वजों की क़ब्रों पर पार्टी करते हैं। मृतक के मन पसंद खाने और शराब परोसी जाती है। क़ब्रों को सजाया जाता है; हालाँकि मैक्सिको में 80% से अधिक लोग रोमन कैथोलिक हैं। 

हो सकता है कि आप सोच रहे हों: साहित्य कुञ्ज जैसी साहित्यिक पत्रिका के सम्पादकीय में इन बातों का क्या महत्व है? आज सुमन किस लहर में बह रहा है। वास्तव में मेरे संपादकीय पूर्व नियोजित नहीं होते। जिस दिशा में विचार चलते हैं, उधर ही क़लम भी चल देती है। आज मन विचार आया कि निस्संदेह हम लोग विश्व भर में बिखरे हुए हैं। विभिन्न देशों की सीमाएँ, भाषा की परिमितता के कारण भावों के सम्प्रेषण की विवशता, धर्म की शृंखलाएँ, राजनीति के उलझावों के होते हुए भी हम रहते मानव ही हैं। इस धरातल हम एक हो जाते हैं। बच्चों की हँसी से किसका दिल नहीं खिल उठता! बच्चे जब ज़िद करते हुए होंठ लटका कर सुबकते हैं तो उनकी पीड़ा को क्या हम अनुभव नहीं करते? प्रेम, विरह, गीत, संगीत, उत्सवधर्मिता हम सब को एक ही धरातल पर खड़ा कर देती है। और इसी धरातल से ही तो साहित्य उपजता है। इसीलिए साहित्य अपने विशुद्ध रूप में हमेशा मानवतावादी होता है। 

समस्या यह है कि सत्तासीन मानव जब मानवता को परिभाषित करता है तो परिभाषा स्वार्थसिद्धि की होती है। यह सत्य हर युग, हर धर्म और हर देश में के लिए सत्य ही है। इसीलिए मानवतावादी साहित्य हर प्रकार की सत्ता के सिर पर लटकती तलवार होता है। सत्ताएँ ऐसे साहित्य को नष्ट करने के लिए सदा उद्यत रहती हैं; उदाहरण के लिए चाहे दांते द्वारा लिखित "डिवाइन कॉमेडी" हो या नालन्दा का पुस्तकालय। साहित्य से सत्ताएँ भयभीत होती हैं। क्योंकि साहित्य विचारों को जन्म देता है। विचार कभी मरते नहीं हैं। इसीलिए विचारों को निषिद्ध घोषित करने के बाद भी वह जीवित रहते हैं और सत्ताओं को खोखला कर देते हैं। यह है साहित्य का वास्तविक सामर्थ्य।

अगला प्रश्न है कि अगर साहित्य मानवता का शाब्दिक संस्करण है तो फिर इन विभिन्न विमर्शों की क्या आवश्यकता? यह तो समझ आता है कि सामाजिक परिस्थितियों के कारण समाज द्वारा विभिन्न वर्गों के शोषण को प्रकाश में लाने के लिए विमर्श आवश्यक हो जाते हैं। परन्तु जब यह विमर्श इतने शक्तिशाली हो जाएँ कि वह उस सारे साहित्य को नकारने लग जाएँ जो उनके खाँचे में सही नहीं बैठता तो प्रश्न उठता है कि शोषित कौन और शोषक कौन? अब साहित्य परिभाषित कौन कर रहा है? साहित्यकार या साहित्यिक सत्ता?

देखिए फिर बह गया अपने विचारों में! बात हैलोविन के त्योहार से शुरू की थी और कहाँ पहुँच गया! चलिए, ऐसा साहित्य रचें जो मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण हो। आलोचक और समीक्षक उस पर अपने मन पसंद विमर्श  की तख़्ती लगाते हैं, तो लगाते रहें।

— सुमन कुमार घई
                   

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