प्रिय मित्रो,
आप सभी साहित्य प्रेमियों को सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ।
पिछले सप्ताह से लघुकथा के विषय पर सोच रहा हूँ। इसकी परिभाषाएँ पढ़ते हुए इस विधा को समझने का प्रयास कर रहा हूँ। आज इस विषय को लेकर मन में प्रश्न क्यों खड़े हो रहे हैं – समझने का प्रयास कर रहा हूँ। संभवतः यह मेरी मानसिक प्रवृत्ति है कि मैं साहित्यिक विधाओं की परिभाषाओं द्वारा स्थापित सीमा रेखाओं में सुराख़ों पर केन्द्रित हो जाता हूँ। जो मैं कर रहा हूँ यह कोई नई या अनूठी विचारधारा नहीं है। युगों से यह होता आया है। अगर ऐसा न होता तो साहित्य कभी विकसित ही नहीं हुआ होता। अपनी पौराणिक शृंखलाओं में जकड़ा रहता। हम न तो पाश्चत्य जगत से आधुनिक कहानी को अपनाते, न अतुकांत कविताओं का कोई अस्तित्व होता और न लघुकथा होती।
आधुनिक लघुकथा के प्रवर्तक इसे नवीनतम विधा कहते हुए हिचकिचाते नहीं। अब इस कथन में आधुनिक शब्द महत्वपूर्ण है – आधुनिक कौन सा कालखण्ड है, कौन सा युग है, इसकी समय रेखा क्या है? लघुकथा विधा के विद्वान स्वयं लघुकथा के इतिहास की बात करते हुए भारतेन्दु हरिश्चंद्र, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद से आरम्भ होते हैं। अगर यह विधा भारतेन्दु युग से आरम्भ होती है तो इसे नवीनतम क्यों कहा जाता है? इसकी आधुनिकता किसी भी अन्य साहित्यिक विधा से अलग कैसे हो सकती है? सभी साहित्यिक विधाएँ विद्वानों द्वारा स्थापित परिभाषा की सीमाओं का अतिक्रमण निरंतर करती हैं। यह लेखन धर्म है। हमारा लेखन केवल लौकिक की अभिव्यक्ति तक सीमित नहीं रहता। कल्पनाएँ और काल्पनिक संभावनाएँ किसी भी कला का बीज तत्त्व होती हैं। इस सम्पादकीय में हम लेखन पर केन्द्रित रहते हैं जो कि हमारी विधा है। जो लौकिक हो रहा है उसे लिख देना तो केवल रिपोर्ताज है। जब तक रिपोतार्ज में प्रत्यक्ष की सीमा लाँघ कर कल्पना मिश्रित न हो वह साहित्य नहीं है और यह कल्पना मिश्रित होते ही रिपोर्ताज कहानी, कविता, नाटक कुछ भी हो जाता है।
लघुकथा के विद्वान प्रायः कहते हैं, लघुकथा की सफलता उसके अंत में पाठक की मानसिकता को झकझोर देने में है। शायद इसीलिए अधिकतर लघुकथाएँ संवेदनाओं को झकझोरने का प्रयास करती दिखाई देती हैं। परन्तु साहित्य के इंद्रधनुष में प्रेम, विरह, वात्सल्य जैसे कोमल भावों के भी तो रंग होते हैं। यह रंग/रस मानसिकता को झकझोरता नहीं तरंगित करता है, सहलाता है, हर्ष की अनुभूति का जनक है, आनंद की सीमा तक ले जाने का साधन है। तो इन विद्वानों की परिभाषा के अनुसार लघुकथा अभिव्यक्ति और अनुभूति में एक बहुत बड़े साहित्यिक अंश से कट नहीं जाती क्या? अब कुछ लघुकथाएँ(?) इसी सीमा का उल्लंघन करती दिखाई देने लगी हैं। उसका कारण यह भी हो सकता है कि "झकझोर" देने वाले विषय भी तो सीमित हैं। राजनैतिक भ्रष्टाचार, धर्मांधता, निर्धनता का चित्रण, सामाजिक समस्याएँ इत्यादि सीमित विषय की कितनी संभावनाएँ बिना दोहराव के लिखी जा सकती हैं?
लघुकथा में शब्दों के चयन, शब्दों के उचित उपयोग को महत्व दिया जाता है। अनावश्यक लेखकीय कथन को कथानक का हिस्सा नहीं होना चाहिए। रचना का शीर्षक सार्थक होना चाहिए – यह सभी कहा जाता है। थोड़ा विचार कीजिए – यह सभी कुछ किसी भी अन्य लेखन विधा के लिए महत्वपूर्ण नहीं है क्या? जब कहानीकार कहानी में स्वयं उपस्थित होकर अपना भाषण आरम्भ कर देता है – कहानी उबाऊ हो जाती है। कवि जब अनावश्यक शब्दों का अनुचित प्रयोग करता है, कविता उलझ जाती है। यहाँ तक कि व्यंग्य में भी एक-एक शब्द चुनकर लिखा जाता है तो फिर लघुकथा की परिभाषा में इसका कोई विशेष महत्व नहीं रह जाता है। यह सकल साहित्य के लिए महत्वपूर्ण है।
आधुनिक लघुकथा कुछ वर्ष पूर्व तक केवल एक घटना पर केन्द्रित होती थी। एक घटना के घटनाक्रम का एक दृश्य और उससे जनति भावों की अभिव्यक्ति तक सीमित होती थीं। अब शायद लेखक अपनी अभिव्यक्ति को भी सीमित समझने लगे हैं। इसलिए लघुकथाओं में एक मुख्य घटना होती है और उस घटना के कारण या उसके परिणामों की अभिव्यक्ति भी होने लगी है। कुछ लघुकथाओं में तो घटना के कारण की घटनाएँ और उसके परिणामों की घटनाएँ भी कथानक का अंश होने लगी हैं। यानी अब कहानी और लघुकथा की सीमा-रेखा धूमिल हो रही है। पाठकों और लघुकथा के विद्वानों की आँखों के आगे आधुनिक लघुकथा की परिभाषा बदल रही है।
यह सच है कि मोबाइल के युग में साहित्य को, पाठक को बाँध रखने के लिए, अन्य मनोरंजन की अनगिनत संभावनाओं से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है। मोबाइल का पाठक दिन में अपने फोन की स्क्रीन को सैंकड़ों बार निहारता है। उस क्षणिक दृष्टि को पकड़ने के लिए साहित्यकारों को निरंतर परिश्रम करना पड़ेगा। साहित्य कभी भी परिभाषाओं में बँधकर सीमित नहीं रह सकता। परन्तु इस द्रुत गति से परिवर्तनशील युग में तो बिल्कुल भी नहीं। अगर हम युवा पीढ़ी को पाठक बनाना चाहते हैं तो साहित्य के विषय भी वैसे होने चाहिएँ जो उनको प्रिय हों, उनसे संबंधित हों, उनकी बात करें उनको भाषणरूपी उपदेश न दें। युवा पीढ़ी समझदार है, शायद हमसे अधिक समझती है। इसलिए उन्हें निर्णय लेने दें कि क्या सही है क्या ग़लत। हम साहित्य में केवल संभावनाएँ उनके सामने रख सकते हैं।
अगर मैं गूगल एनालिटिक्स के आँकड़े देखता हूँ तो पाता हूँ कि मोबाइल के पाठक किसी स्क्रीन पर रुकते कम समय के लिए हैं तो लौटकर भी बार-बार आते हैं। कोई तो प्यास है उनके मन में जिसे वह बुझाना चाहते हैं। यह चुनौती साहित्यकारों के लिए है कि वह उसकी प्यास को समझ पाते हैं या परिभाषाओं में सीमित होते हुए एक दूसरे को नकारने में व्यस्त रहते हैं। अंत में पाठक की रुचि ही महत्वपूर्ण है। कोई भी विधा की रचना चाहे अपनी विधा की परिभाषा पर कितनी भी खरी उतरती हो, अगर पाठक को रुचिकर नहीं लगती तो असफल रचना है। हर विधा का अपना पाठकवर्ग होता है। विधाओं की कोई भी आपसी तुलना निरर्थक है। लघुकथा की तुलना कहानी से नहीं की जा सकती ठीक उसी तरह जैसे काव्य विधा में तुकान्त की अतुकान्त से नहीं की जा सकती, ग़ज़ल की नज़्म से नहीं की जा सकती।
– सुमन कुमार घई
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डॉ. वंदना मुकेश 2020/11/24 03:10 AM
सटीक टिप्प्णी। उचित शब्द-चयन , अनावश्यक विस्तार तो किसी भी कृति को बोझिल और उबाऊ बना सकता है। लघु कथा का अंत चाहे झकझोरे अथवा तरंगित करे या सहलाए, संवेदना को गहरे छूने की शक्ति होना ही चाहिये वह भी कम से कम शब्दों में। लेकिन यह भी सत्य है कि साहित्यिक कृति को कठोर नियमों के खांचों में नहीं बाँधा जा सकता.