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प्रिय मित्रो,

एक वर्ष में कितना कुछ बदल गया। 

पिछ्ले वर्ष १२ मार्च को भारत से लौटा था और उसी दिन प्रांतीय सरकार ने घोषणा की थी कि जो कनेडियन नागरिक हैं वह शीघ्रातिशीघ्र वापिस लौट आएँ, क्योंकि आने वाले दिनों में प्रतिबंध बढ़ने की सम्भावना है। और उसके बाद शुरू हुआ कोरोना काल। इस काल में जीवन शैली ही बदल गई।

आज 14 मार्च है और मैं सम्पादकीय लिख रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि किस तरह विश्व इस आपदा से संघर्ष करने के लिए प्रयास कर रहा है। मानवता की अच्छाई और बुराई परतें उघाड़ कर सामने खड़ी है। जनसाधारण ने इस आपदा के साथ रहना सीख लिया है। हालाँकि वैक्सीन से जीवन सामान्य होने की आशा की किरण तो दिखाई दे रही है परन्तु परिवर्तनशील वाइरस का भयंकर ख़तरा अभी भी सिर पर मँडरा है। यहाँ कई बार स्कूल खुले हैं और फिर बंद हुए हैं। स्कूलों को जाते हुए बच्चों के मुँह पर लगे मास्क देख कर कई बार दिल में एक शूल सा चुभ जाता है। क्या यही भविष्य होगा? जिस उन्मुक्त वातावरण में हम पले क्या यह पीढ़ी उसे भोग पाएगी? फिर यह भी विचार मन में आता है कि मानव स्वभाव से ही परिस्थितियों के अनुकूल स्वयं को ढालने की प्रवृत्ति वाला प्राणी है। यहाँ शासन ने नियम बनाया था कि तीन वर्ष और उससे बड़ी आयु वाले बच्चों को भी बाहर जाने के लिए मास्क लगाना पड़ेगा। युवान मेरा पोता दिन भर हमारे पास रहता है। उसके लिए मास्क भी हमारे पास था। अभी वह अढ़ाई वर्ष के आसपास का ही था तो एक दिन यूँ ही सोचा क्यों न इसे मास्क पहनने का अभ्यस्त बनाया जाए, ताकि तीन साल का होते-होते मास्क पहनने में इसे परेशानी न हो। मैं आश्चर्यचकित रह गया कि जो बच्चा अपना नाक तक पोंछने नहीं देता, वह मास्क लगा कर इतना ख़ुश कैसे हो सकता है! उसने घंटों मास्क नहीं उतारा; शायद वह अपने आप को बड़ा समझने लगा था। मानव वास्तव में समझौते करना भी जानता है और नई परिस्थितियों में नई जीवन शैली विकसित करना भी।

हम साहित्य प्रेमियों ने भी तो गोष्ठियों, कवि सम्मेलनों, कार्यशालाओं और विचार गोष्ठियों के लिए तकनीकी विकल्प अपना लिए हैं। 

अब तो लेखन में कोरोना काल की छाया स्वाभाविक रूप से दिखने लगी है। किसी बड़ी घटना के तुरंत बाद, आरम्भिक रचनाएँ साहित्य पटल पर छा जाती हैं। घटना चाहे कोई जघन्य कुकर्म हो या देश सीमाओं का अतिक्रमण; कोई प्राकृतिक आपदा हो या राजनैतिक क्रांति। शायद यह पहली बार हुआ है कि किसी महामारी ने साहित्य को इतना और इस तरह से प्रभावित किया है। अब तो कई रचनाओं में लॉकडाउन कथ्य बन गया है— और अभी यह कहानी समाप्त नहीं हुई है। 

मेरा मानना है कि अच्छा लेखन वर्तमान में जीवित रहता है। हाँ, अपने इतिहास को हम भूल नहीं सकते पर उसमें जी नहीं सकते। भविष्य हमारे लिए अनुमान मात्र है। इसलिए हमें अपने लेखन में वर्तमान के कथानक, वर्तमान परिस्थितियों से जनित संवेदनाएँ, वर्तमान के बिम्ब, रूपक, अलंकार लाने चाहिएँ। मैं अब जो कहने जा रहा हूँ शायद वह विवाद का विषय बन सकता है परन्तु अपना विचार अगर मैं अपने सम्पादकीय में नहीं लिखूँगा तो कहाँ लिखूँगा! मेरा मानना है कि विमर्श-साहित्य बहुआयामी नहीं होता इसलिए विमर्श ही उसकी अभिव्यक्ति की और जीवनकाल की सीमा तय कर देता है। सामाजिक परिस्थितियों के बदलते ही विमर्श साहित्य– इतिहास बन जाता है। वह जीवंत नहीं रहता। आज वर्तमान के साहित्य में आप न तो प्रसाद युग की भाषा का प्रयोग करके लोकप्रिय हो सकते हैं और न ही उस काल के अलंकार इत्यादि का प्रयोग करके। वह काल तो बहुत पीछे का है। भारत का समाज और बड़े पटल पर वैश्विक समाज इतनी गति के साथ बदल रहा है कि अगर लेखक इसके साथ न चले तो वह पिछड़ जाता है। उदाहरण के तौर पर कुछ विषय लिख रहा हूँ, जिस पर हर नया लेखक लिखता है। नारी को अबला समझ कर लिखता है, माँ को दयनीय परिस्थितियों में देखता है चाहे उसने अपने जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं देखा होता। माँ नौकरी करती है, अपनी कमाई का साधन है उसके पास, हो सकता है कि माँ की कमाई से लेखक पढ़-लिख कर बड़ा हुआ हो। परन्तु जब माँ पर लिखता है तो उसकी पीड़ा ही देखता है? माँ का वातस्ल्य तो लेखन में आना स्वाभाविक है परन्तु पीड़ा की जगह जीवन संघर्ष और उसकी उपलब्धियाँ भी तो लिख सकता है। संघर्ष तो पिता भी करता है उसे अधिकतर शोषक क्यों दिखाया जाता है। यह युग नारी की सफलताओं का उत्सव मनाने का है। यह भी जानने की आवश्यकता होनी चाहिए कि नारी अगर शारीरिक बल में पीछे है तो मानसिक शक्ति से वह पुरुष को कहीं पीछे छोड़ जाती है और यह स्थापित सत्य है। 

साहित्य कुञ्ज में जब नए लेखकों या पुराने लेखकों की आरम्भिक रचनाएँ इस विषय/विमर्श की मुझे मिलती हैं, उनमें बासीपन मिलता है। जब रचनाओं में कुछ नयापन न हो तो उन्हें प्रकाशित कैसे करूँ? पाठक अलग-अलग क़लम से एक ही इबारत कब तक पढ़ते रहेंगे; और फिर हम कह देंगे — हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ हैं?

पाठक को बाँध रखने के लिए और नए पाठकों को आकर्षित करने के लिए हमें अपने साहित्य को आधुनिक बनाना होगा। यह मत सोचिए कि नया साहित्य खुरदरा होना चाहिए जो पाठक को झिंझोड़ दे, क्योंकि यह सही नहीं है। साहित्य जीवन की गाथा है। अगर इसमें दुःख हैं तो सुख भी हैं। अगर बिछोह है तो मिलन भी है। अगर मृत्यु है तो जन्म भी है। अपने दैनिक जीवन के संघर्षों से जूझता हुआ पाठक जब साहित्य में अपने संघर्ष को भुला देना चाहता है तो आप उसे और अधिक संघर्ष नहीं परोस सकते। अगर जीवन संघर्ष है तो उसका अंत सदा त्रासदी में ही क्यों हो? प्रेमचन्द ने अपने साहित्य में अपने युग को लिखा था। आप प्रेमचन्द के साहित्य से संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का कौशल तो सीख सकते हैं परन्तु उस युग की लेखन कला बदल चुकी है; जो बदल चुका है उसक प्रयोग मत करें। पाठक साहित्य से भाग खड़ा होगा। यह हिन्दी के लिए अनोखी बात नहीं है विश्व की किसी भाषा के साहित्य के लिए यह सही है। एडगर एलन पो को कहानी लेखन का पिता माना जाता है, आप उसके तकनीकी पक्ष को तो अपना सकते हैं परन्तु उसे अधिक कुछ भी नहीं।

अंत में यही कहना चाहूँगा कि आधुनिक साहित्य रचें। इस युग की भाषा, जीवन शैली, संवेदनाओं की अभिव्यक्ति, बदलते जीवन मूल्य इत्यादि को लिखें। इन सबका बुरा पक्ष ही मत लिखें। कुछ अच्छा भी तो होता है। यह आवश्यक नहीं है कि आधुनिक भाषा में अँग्रेज़ी के शब्दों की भरमार हो। भाषा पात्र के अनुसार हो और आधुनिक हो। संवेदनाएँ काल पर निर्भर नहीं करतीं परन्तु उनकी अभिव्यक्ति और उनसे पैदा होने वाली प्रतिक्रिया आधुनिक हो सकती है। बदलते जीवन मूल्यों से अगर परिवार का विघटन हुआ है तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी विकसित हुई है। आदर का भाव कम नहीं हुआ वह तो व्यक्तिगत मानवीय संबंधों से उत्पन्न होता है। अब अंत के अंत में कह रहा हूँ चाहे आपको पसंद आए या न आए– आपको कितनी उर्दू की ग़ज़लें अच्छी लगती हैं और कितने रोने-धोने वाले हिन्दी के गीत? अधिकतर ग़ज़लें आपके अंतस को गुदगुदाती हैं और हिन्दी कविता. . .?

– सुमन कुमार घई

टिप्पणियाँ

होम सुवेदी 2021/03/25 08:52 PM

बहुत ही उपयोगी तथा समसामयिक धार को पहचानते हुवे आपने अपनी कालम प्रस्तुत किए । बहुत सही तर्क पेस किए । आपकी यह राय व सुझाव पढ कर मै भी सोचने लगा कहीँ मै भी वही पुरानी पन्थ का पान्थ तो नही हुँ । लेकिन मुझे इससे बहुत कुछ मिला । इसकै लिए आपका आभारी हुँ ।

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