अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सम्पादन की परिभाषा क्या है? मैं किताब में दी गई परिभाषा की बात नहीं करता; वह क्या है हम सब जानते हैं। परन्तु मैं व्यवहारिक परिभाषा की बात करता हूँ। प्रायः सम्पादकों के साथ इस विषय पर जब बात होती है तो कोई भी संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता या यूँ कहूँ कि उत्तर से मुझे संतोष नहीं मिलता। संतोष क्यों नहीं मिलता – अब मैं आत्मविवेचन में उलझ जाता हूँ; अंतर्मुख हो, जितना विचार करता हूँ उतने ही अपने लिए प्रश्न खड़े कर लेता हूँ। क्या रचना का मूल्यांकन करते समय मैं उतना निष्पक्ष हो पाता हूँ जितना कि सम्पादक होना चाहिए? क्या मैं रचना को पढ़ते हुए अपने पूर्वाग्रहों को, अपनी अवधारणाओं को त्याग पाता हूँ? क्या मेरा सीमित साहित्यिक ज्ञान किसी की रचना को अस्वीकार करने का मुझे अधिकार देता है? सम्पादक की परिभाषा मुझे संशोधन, परिवर्तन या परिवर्धन इत्यादि का अधिकार देती है। क्या ऐसा करना लेखक के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं है? अगर मैं केवल लेखक के अधिकारों और उनकी रचनात्मक स्वतंत्रता का आदर करता हूँ तो साहित्य कुञ्ज के पाठक वर्ग की भी तो कुछ अपेक्षाएँ हैं। प्रायः पाठक किसी पत्रिका विशेष की ओर केवल इसलिए आकर्षित होते हैं क्योंकि उसमें प्रकाशित साहित्य उनकी मानसिक और साहित्यिक पिपासा को तुष्ट करता है। परन्तु दूसरी ओर पाठकों के तुष्टीकरण में सम्पादकीय दायित्व को भी तो नहीं भुलाया जा सकता।

ऐसे ही अन्य कई प्रश्न हैं जिन से मैं प्रतिदिन उलझता हूँ और संघर्ष करता हूँ। 

कई बार सोचता हूँ कि समीक्षक का काम कितना आसान है। एक रचना को पढ़ा और उसका मूल्यांकन किया और लिख दिया। उसे कोई चिंता नहीं कि उसकी समीक्षा का क्या प्रभाव लेखक या पाठक पर पड़ता है। सम्पादकों की तरह समीक्षक भी कई प्रकार के होते हैं क्योंकि शायद वह भी उन्हीं प्रश्नों से दो-चार होते हैं जिनसे मैं होता हूँ। समीक्षक को यह सुविधा होती है कि उसे पाठक की रुचि का और लेखक की भावना का ख़्याल नहीं रखना होता। वह सोचता है कि वह ’तटस्थ’ है। क्या उसके मन में भी वही प्रश्न उभरते हैं जो मेरे मन में उभरते हैं? 

सम्पादन की चर्चा करते-करते मैं समीक्षा की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि सम्पादक भी तो प्रकाशन से पूर्व रचना की समीक्षा करता है। अन्तर है तो केवल इतना कि सम्पादक को पाठक और लेखक, दोनों की भावनाओं को देखना, समझना पड़ता है। ऐसा करने से कई बार टकराव की परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है। कुछ रचनाएँ होती हैं जिनकी समीक्षा निंदा की सीमा तक पहुँचने के बाद केवल इसलिए प्रकाशित हो चुकी होती है क्योंकि वह प्रसिद्ध समीक्षक की कृति है। परन्तु वही रचना सम्पादन के बाद प्रकाशित होती है और लोकप्रिय हो जाती है। यह इसलिए सम्भव हो पाता है क्योंकि सम्पादक अपने पाठक वर्ग को पहचानता है। वह समीक्षक की तरह पूर्वाग्रहों में लिप्त नहीं है। सम्पादक को साहित्यिक विधाओं की परिभाषाओं द्वारा नियत सीमाओं के विस्तार के प्रति उदार रहना पड़ता है। ऐसा करने से ही साहित्य को नई दिशा मिलती है, विस्तार मिलता है।

सम्पादक की समीक्षा अधिक संतुलित होती है। सम्पादक जिन रचनाओं की समीक्षा करता है– वह रचनाएँ प्रकाशित होती हैं, सम्पादक द्वारा की गई उनकी समीक्षा नहीं। यहाँ पर समीक्षा रचना को सुधारने का साधन बनती है; समीक्षक द्वारा अपना ज्ञान बघारने के साधन नहीं। 

कुछ प्रसिद्ध समीक्षकों की समीक्षाओं को पढ़ता हूँ तो पाता हूँ कि पहले एक-दो पैराग्राफ़ तो समीक्षक ने स्वयं की प्रशंसा करने या अपनी किताबों, कविताओं को उद्धृत करने में व्यर्थ कर दिए। और शेष समीक्षा में अपने उद्धरणों को उसने साधन बनाया प्रस्तुत पुस्तक की आलोचना करने के लिए। कई बार तो जितनी कड़वी समीक्षा होती है उसे उतना ही ईमानदार समीक्षा मान लिया जाता है।

इसके बाद भी समीक्षक कहता हुआ अंत करता है - पुस्तकी की छपास में कमी थी, पेपर घटिया था और आवरण भी काम चलाऊ था। मैं भौचक्का सोचता हूँ कि क्या समीक्षक को इस  घटिया छपास, घटिया पेपर और काम चलाऊ आवरण के बीच के शब्द दिखे भी या नहीं। 

 

अस्वीकरण: मैं उन समीक्षाओं की बात नहीं करता जो कि केवल पुस्तक चर्चा तक सीमित रहती हैं। 

– सुमन कुमार घई

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

सम्पादकीय (पुराने अंक)

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015