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प्रिय मित्रो,

आज का संपादकीय किस तरह से आरम्भ करूँ। भारत में जिस तरह से कोविड-१९ की विनाश लीला चली है; मस्तिष्क संज्ञाहीन है। अब कुछ आशा की किरण दिखने लगी है। जो देश कोविड पर विजय प्राप्त कर चुके हैं, वे वैश्विक शतरंज पर अपनी गोटियाँ बिठाने लग गए हैं। सभी जानते हैं कि दोषी कौन है, परन्तु दोष देकर भी क्या प्राप्त होगा। जो मानवीय हानि भारत झेल चुका है, जिन पुत्रों, पुत्रियों को खो चुका है, वह तो अनिवर्चनीय क्षति है। यह समय अपना घर सँभालने का है। अपनी मानसिकता को सकारात्मक बनाए रखने का है। यह उतना आसान भी नहीं है जितना कहना आसान है। पीड़ा मन में भरी है उसे बहने का मार्ग चाहिए। अब मानव को निश्चित करना है कि प्रवाह किस ओर जाता है।

यह साहित्यिक मंच है तो यह भी निश्चित है कि हमारी पीड़ा पन्नों पर ही अंकित होगी। हमारी निराशाएँ, आशाओं में भी इन्हीं सफ़ेद पन्नों पर परवर्तित होंगी। समाज को दिशा दिखाना लेखक का ही दायित्व होता है। हमें इसके प्रति सजग रहना होगा कि अपने देश में, अपने समाज में व्यर्थ के दोषारोपण से विभाजन के बीज न बों दें। व्यक्तिगत हानि से हृदय का लोहा गर्म है, ग़लत चोट से विकृति होने में भी देर नहीं लगेगी। यह दायित्व लेखक के लिए बहुत बड़ा है। मानवीय मूल्यों का निकष आपदा ही होती है। जो समाज ऐसी आपदा में से गुज़रते हुए अपनी संवेदनाओं को व्यवहारिकता से संतुलित रख पाने में सक्षम सिद्ध होता है वही आपदा के बाद के समय में उपस्थित हुए विकास के अवसरों का लाभ उठा सकता है।

साहित्य कुञ्ज के इस अंक में कई रचनाएँ समसामयिक अनुभवों पर आधारित हैं। कोरोना पर लिखा जाना तो आरम्भिक दिनों से ही शुरू हो गया था, परन्तु उस समय अनुभव सतही था। किसी को भी इस महामारी की गहराई का अनुमान तक नहीं था। पिछले डेढ़ वर्ष में इसकी गहराई में पूरा विश्व गोते लगा चुका है। शायद इसीलिए अब कोरोना काल पर लिखी गई रचनाओं में परिपक्वता पढ़ने को मिल रही है। यह काल इतिहास के पन्नों पर जब दर्ज होगा तो निश्चय ही इस काल के साहित्य की भी चर्चा होगी। हमें सचेत रहना है कि इस काल के अनुभवों को भावी पीढ़ियों में जीवित रखने के लिए हमें साहित्य लेखन और प्रकाशन के प्रति भी सचेत रहना पड़ेगा। इसके लिए हमें किसी भी आपदा के मानसिक प्रभावों को समझना पड़ेगा और उसका अध्ययन भी करना होगा। साहित्य अनुमान पर नहीं बल्कि अनुभव आधारित होना चाहिए। अनुमान पर आधारित साहित्य केवल मनोरंजन के स्तर से आगे बढ़ कर दिल में नहीं उतर पाता।

अभी तो हम कोरोना से परिवारों को उजड़ते हुए देख रहे हैं। अनाथ हुए बच्चों को देख रहे हैं। अभी तो पूरा घटनाक्रम एक भयावह चलचित्र की तरह आँखों के सामने घट रहा है। जिस परिवार के कई सदस्य कालग्रस्त हो गए हों, वह अभी सकते के हालत में होंगे। व्यक्तिगत त्रासदी को समझ पाने की स्थित तक पहुँचने में अभी समय लगेगा; इसलिए त्वरित लेखन अभी  केवल अनुमानित कथानक ही होगा। विषय की गहराई तक पहुँचने के लिए अभी अनुभव होना शेष है। जब प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुए थे तो विनाश की लीला युद्ध समाप्त होने के बाद देर तक चलती रही थी। दोनों युद्धों में अनाथ हुए बच्चों का एक अलग समाज सा सामने आ गया था। यह बच्चे पश्चिमी देशों में विशेषकर यू.एस. और कैनेडा में परिवारों ने गोद लिए। भारत में भी अब कुछ ऐसा ही सुनने में आने लगा है। सोचिए जब यह बच्चे बड़े होंगे तो इनकी मनःस्थिति क्या होगी और अगर इनमें से कोई लिखेगा तो क्या लिखेगा! कहने का प्रयास कर रहा हूँ कि कोरोना उपरांत साहित्य भी एक समय रेखा का अनुसरण करेगा। आज का लेखन काल के अनुसार ही प्रासंगिक है; आज से दस-बीस साल बाद इस काल पर लिखा जाने वाले साहित्य का दृष्टिकोण भी अलग होगा। जहाँ तक मैं समझता हूँ यह महामारी हमारे समाज को आमूल-चूल बदल देने वाली है। अभी तो महामारी के बाद होने वाले सामाजिक परिवर्तन देखने और समझने बाक़ी हैं। 

अन्त में यही कहूँगा कि आप अपने लेखकीय दायित्व को समझते हैं। लेखक केवल मनोरंजन के लिए नहीं लिखता। वह अपने समय के समाज का बिम्ब पन्नों पर अंकित कर जाता है। वह सामाजिक इतिहासकार होता है, दार्शनिक होता है और उसका दायित्व मार्ग दर्शन का भी होता है। 

— सुमन कुमार घई

टिप्पणियाँ

निर्मल कुमार दे 2021/06/22 04:27 PM

बहुत ही उम्दा संपादकीय।लेखकों और पाठकों के लिए सकारात्मक ऊर्जा देने वाला इस संपादकीय के लिए हार्दिक आभार और शुभकामनाएं।

पाण्डेय सरिता 2021/06/15 07:29 PM

समसामयिक घटनाचक्र पर संवेदनशील और अनुभवी संपादकीय

शैली 2021/06/15 05:47 PM

वास्तव में यह आपदा बहुत भयंकर है, अभी यह भी ज्ञात नहीं कि कितनी बार इसकी कितनी लहरें आएँगी, कितना विनाश करेंगी। समाज, अर्थतंत्र, मानव और उसका मनोविज्ञान सभी प्रभावित हुए हैं, परिणाम अभी प्रतीक्षित हैं। परन्तु मनुष्य ने अनेकों आपदाओं सामना किया है और इस आपदा से भी मुक्त होगा। आपके विचार और अभिव्यक्ति प्रभावी और सर्वांगीण है, हार्दिक बधाईयाँ.

Rajnandan Singh 2021/06/15 07:43 AM

बहुत हीं समसामयिक एवं गूढ़ संपादकीय। व्यर्थ के सामाजिक दोषारोपण से स्वयं को बचाते हुए अनुभवों पर आधारित कोरोना की त्रासदी का साहित्य लिखा जाना चाहिए। वास्तव में पूरी ईमानदारी से घटनाओं का सही-सही बौद्धिक निष्पक्ष एवं पूर्वाग्रह मुक्त लेखन यदि संभव हो पाता है तो अलग से किसी पर दोषारोपण अथवा किसी के तरफ से सफाई की आवश्यकता हीं नहीं है। सच सभी ने देखा है। दोषारोपण अबौद्धिक अथवा अनुचित होगा तो सच्चाई को छोड़ना या छुपाने का प्रयास भी युग के साथ छद्म एव अन्याय होगा। क्योंकि किसी भी कारणवश प्रत्यक्षदर्शी हीं यदि झूठा हो जाए तो न्याय का परिणाम भी निश्चित हीं सच्चा नहीं होगा।

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