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प्रिय मित्रो 

पिछले कुछ दिनों से दिल्ली में हूँ। एक दो बार उबर द्वारा घूमने के बाद अब मैट्रो में उतर आया हूँ। मैट्रो के दो स्टेशन घर से पाँच मिनट की दूरी पर हैं। दिल्ली मैट्रो के द्वारा कहीं भी जाना न केवल सुविधाजनक है बल्कि एक अनूठा अनुभव भी है जो केवल भीड़ में ही मिल सकता है। यह अनुभव लेखकों के लिए पौष्टिक आहार है। कितनी ही कहानियों के कथानक भीड़ में मिलते हैं; चेहरों पर कितनी कविताएँ लिखी होती हैं; संवाद हवा में तैरते है - इस तथ्य को कार से नीचे उतर कर पैदल चलकर ही समझा जा सकता है। जो दिल को छू जाता है वह कहीं न कहीं और कभी न कभी आपकी लेखनी की नोक पर आ ही जाता है। 

भीड़ की एक सामूहिक चेतना होती है - परन्तु भीड़ से अपने आपको अलग करती हुई एकाकी चेतना कहानी होती है और उस चेतना की संवेदना कविता। मैं यह नहीं कह रहा कि कहानी में संवेदना नहीं होती क्योंकि संवेदना के बिना साहित्य का अस्तित्व ही नहीं है - चाहे कोई भी विधा हो।  परन्तु कविता कोरी शुद्ध संवेदना की अभिव्यक्ति होती है। कहानी में कोई संवेदनहीन पात्र हो सकता है पर कविता में पात्र, विषय और लेखक एक ही तो होते हैं। कविता अद्वैत अभिव्यक्ति होती है। और कहानी… अद्वैत होते हुए भी कथानक के कई पात्रों को अपने में समेटती है। मैं नहीं जानता कि जो लिख रहा हूँ क्या वह निरर्थक प्रलाप है या कोई सार्थक विचारों की अभिव्यक्ति। हो सकता है कि यह मेरी ही व्यक्तिगत मानसिकता का पन्ने पर उतरा प्रेक्षपण है। 

पिछले कुछ महीनों में बहुत से युवा लेखक साहित्य कुञ्ज के साथ जुड़े हैं और यह संपादकीय परोक्ष रूप से उन्हीं को संबोधित कर रहा है। देख रहा हूँ इस लेखक वर्ग में लिखने का साहस और ऊर्जा दोनों ही है। आवश्यकता है कि ऊर्जा को सही दिशा दिखाने की। कुछ लेखक कहानी को अपने आस-पास देखते हैं पर उससे अपनी आत्मा को विलग रखते हैं, उसे उद्वेलित नहीं करने देते। ऐसी कहानी एक समाचार या रिपोर्ट बन जाती है। वह पात्रों की संवेदना को अपनी संवेदना नहीं बनने देते तो उनकी कहानी ऐसे सामने आती है जैसे एक मित्र दूसरे को कल देखी फ़िल्म की कहानी सुना रहा हो। 

साहित्य की कोई भी विधा को आसान या कठिन नहीं कहा जा सकता। परिश्रम और साधना साहित्य से अलग नहीं है। साधना भीड़ में रहते हुए भी एकान्त जीवन जीने की कला है। तभी तो लेखक सारी भीड़ को, उसकी संवेदनाओं को अपने समेट कर एकान्त में रचना का सृजन करता है। यह साधना नहीं है तो क्या है?

चाहे कहानीकार हो या कवि दोनों में एक-से अनुभव एक-से भावों के जनक होते हैं - क्योंकि भावनात्मक होना मानव होना है। परन्तु कुछ विशिष्ट आत्माएँ होती हैं जो इन अनुभवों को आत्मसात कर लेती हैं और उनकी संश्लिष्ट अभिव्यक्ति का लिखित रूप साहित्य बन जाता है। लेखक की दृष्टि विशिष्ट दृष्टि है जो वह देखती है जिसे आम व्यक्ति नहीं देख पाता। लेखक का हृदय एक विशिष्ट हृदय होता है जो उस पीड़ा को आत्मसात करता है जिसे आम व्यक्ति अनुभव नहीं कर पाता। लेखक की चेतना विशिष्ट चेतना है जो उस ऊर्जा को आत्मसात करती है जिसका उत्सर्जन हर व्यक्ति का प्रभामंडल करता है। नए लेखकों को यह समझने की आवश्यकता है कि जो दायित्व सृजन शक्ति ने आपको दिया है आप उसको गम्भीरता से लें। कोई भी जन, लेखक नहीं हो सकता। दैविक दायित्व आपको मिला है, इस दायित्व को समझें और इसका निर्वहन भी गम्भीरता से करें। साधना अनिवार्य है इसके बिना सृजन असम्भव है। साधना केवल आँखें मूँद कर मंत्रोच्चारण तक ही सीमित नहीं है। लेखक की साधना आँखें खोल और चैतन्य रहते हुए समाज के अमृत और विष को आत्मसात करने की है। सो मित्रो आप सभी शिव हैं, सभी ब्रह्मा हैं। 

- सुमन कुमार घई
 

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