प्रिय मित्रो,
आजकल साहित्यिक सम्मानों की बाढ़ सी आ गई है। लगने लगा है कि प्रत्येक साहित्यिक संस्था के उद्देश्यों में एक मुख्य उद्देश्य किसी भी लेखक को सम्मानित करना हो गया है। प्रायः यह भी देखा जाता है कि संस्था के संस्थापक या निदेशक आपस में एक दूसरे को सम्मानित कर डालते हैं। कुछ संस्थाएँ केवल अपनी प्रसिद्धि के लिए या किसी समाचारपत्र में समाचार बनने के लिए किसी स्थापित लेखक को सम्मानित करने का आयोजन करती हैं। एक मित्र प्रसिद्ध कहानीकार हैं और उन्हें कई संस्थानों द्वारा “वास्तविक” सम्मान मिल चुका है। किसी संस्था ने उन्हें सम्मानित करने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने संस्था के निदेशक से पूछा कि उन्हें सम्मानित क्यों किया जा रहा है? निदेशक ने चलताऊ उत्तर दे दिया कि आपके साहित्यिक योगदान के लिए। मित्र ने प्रश्न किया; अगर आप मेरे साहित्य के बारे में जानते हैं तो मेरी पाँच कहानियों के नाम बताएँ। अब निदेशक महोदय फँस गए। उन्होंने तो कुछ भी नहीं पढ़ा था, सो फोन पर चुप्पी छा गयी। लेखक मित्र ने सम्मान अस्वीकार कर दिया। परन्तु निदेशक महोदय भी घाघ थे; आसानी से कहाँ मानने वाले थे। उनका उद्देश्य तो संस्था को एक स्थापित लेखक के नाम के साथ जोड़ना था। उन्होंने लेखक मित्र को संस्था के निदेशक बन जाने का न्यौता दे डाला। इस प्रकरण को यहीं समाप्त करते हुए बस यही प्रश्न कर रहा हूँ कि ऐसी साहित्यिक संस्थाओं का उद्देश्य क्या है? क्या इनका होना आवश्यक है? यह कौन से अभाव की पूर्ति कर रही हैं?
अब बात प्रकाशकों की करते हैं। कुछ प्रकाशक हैं कि जो लेखक को “पैकेज” बेचते हैं, जिसमें प्रतियाँ, समारोह, आमंत्रित वक्ता इत्यादि के साथ “सम्मान” भी रहता है। यानी अगर आप में पैसा देने की क्षमता है तो पहली पुस्तक प्रकाशित होने से पहले ही आप सम्मान के अधिकारी हो जाते हैं।
यह सम्मानित करने की प्रथा इतनी सामान्य हो गई है कि अब यह एक धंधे का रूप लेने लगी है। एक महोदय ने एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया जो कि “साहित्यिक पर्यटन” से बढ़ कर कुछ भी नहीं था। उन्होंने कार्यक्रम की जानकारी भेजते हुए यह तक लिख डाला कि सम्मेलन में भागीदारी का शुल्क यह है, मंच से रचना या अपना आलेख पढ़ने के लिए इतने पैसे लगेंगे और अगर सम्मानित होना चाहते हैं - आपको इतनी राशि पहले से भरनी होगी। दुःख की बात यह है कि जिन लोगों ने ऐसा सम्मान प्राप्त किया वह फ़ेसबुक और अन्य सोशल मीडिया पर डीगें भरते दिखायी दिए कि वह विदेश में सम्मानित हुए हैं।
एक और परम्परा जो मुझे चिंतित करती है वह है मानद उपाधियाँ देने की। यह प्रचलन नया तो नहीं है परन्तु अब लगने लगा है कि इन उपाधियों को देने के मानदंड बदल गये हैं। पीएच.डी. और विद्या वाचस्पति की उपाधियाँ बँट रही हैं। लोग-बाग अपने नाम के आगे प्रो. का तिलक भी लगाने लगे हैं। कुछ तो ऐसे हैं जो कि पहले प्रो. लिख रहे थे परन्तु अब वो एक क़दम पीछे लेते हुए डॉ. बन गए हैं। चिंता का कारण तो यह है कि कुछ विश्वविद्यालय भी इस मकड़जाल में फँस रहे हैं। मैं एक और घटना बताता हूँ। कुछ वर्ष पहले मुझे मुंबई से किसी संगोष्ठी में प्रवासी प्रत्रकारिता के ऊपर एक आलेख लिख कर भेजने के लिए कहा गया। उन दिनों मैं कैनेडा से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक “हिन्दी टाइम्स” का संपादन कर रहा था। आलेख भेज दिया और वहाँ पढ़ा भी गया। संयोजकों ने एक मानपत्र और स्मृति चिह्न किसी के हाथ मुझे भिजवा दिया। परन्तु अपने नाम के आगे “डॉ.” लिखा देख कर मन खट्टा हो गया। लगने लगा कि ऐसी संगोष्ठी में आलेख भेजना ही समय को व्यर्थ गँवाना था। मैंने अपने परिचय में अपनी शिक्षा के बारे में स्पष्ट लिखा था। पीएच. डी. तो दूर की बात है मैं तो एम.ए. तक नहीं पहुँचा। मन में संशय उभरने लगा कि जब मेरा आलेख पढ़ा गया तो क्या उन्होंने मेरा परिचय डॉ. सुमन कुमार घई तो नहीं दे दिया? अगर किसी परिचित ने सुना होगा तो क्या वह मुझ पर हँसा नहीं होगा कि “भई तू कब से डॉ. को गया?” अब, जब विद्या संस्थान ऐसा करने लगे हैं, तो मुझे सहानुभूति उन विद्वानों से है जिन्होंने वर्षों अध्ययन करने के बाद पीएच.डी. अर्जित की है और उनकी बग़ल में कोई ऐसा है जिसने केवल किसी निदेशक मंडल की चमचागिरी करके मानद पीएच.डी. प्राप्त की है और बड़ी शान के साथ अपने नाम के साथ डॉ. लिख रहा है। क्या यह अनिवार्य नहीं होना चाहिए कि वह “(मानद) डॉ.” लिखें?
आपकी प्रतिक्रिया और विचार आमंत्रित हैं।
- सादर
सुमन कुमार घई
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