प्रिय मित्रो,
जुलाई का दूसरा और अगस्त के दोनों अंक प्रकाशित नहीं कर पाया। खेद प्रकट करने के सिवाय कर भी सकता हूँ। pustakbazaar.com भी उसी अवस्था में है – आशा है कि पहली सितम्बर से व्यवसायिक तौर पर ऑनलाईन हो जाएगा। छोटी-छोटी समस्याएँ बची हैं – काम चल रहा है और अभी दो दिन बाक़ी हैं। पाँच पुस्तकें तो तैयार हो चुकी हैं, कुछ पर काम चल रहा है।
प्रायः जो कि आजकल हो रहा है, ई-पुस्तक के बारे में अक्सर कहा जाता है और दावा भी किया जाता है "हम आपकी पुस्तक कुछ ही मिनटों में ऑनलाईन कर देंगे"! हो भी जाती है परन्तु क्या उस पुस्तक की गुणवत्ता और स्तर की ओर सिवाय लेखक के कोई और भी ध्यान दे रहा है? यही समस्या है और हिन्दी साहित्य के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती भी। पहले तो हिन्दी साहित्य ने कंप्यूटर टेक्नॉलोजी को अपनाने के लिए बहुत दिनों तक पैर घसीटे। माना कि मैं उस समय की बात कर रहा हूँ जब यूनिकोड फ़ांट नहीं थे; परन्तु हिन्दीनेस्ट.कॉम, अनुभूति-अभिव्यक्ति, काव्यालय, वगार्थ, कृत्या और साहित्य कुंज आदि जालघरों के व्यक्तिगत प्रयास से अंतरजाल पर हिन्दी साहित्य की उपस्थिति बनी हुई थी। यहाँ पर महत्वपूर्ण शब्द "व्यक्तिगत" है – कोई संस्थागत या व्यवसायिक प्रयास नहीं था। हिन्दी साहित्य और व्यवसाय को जोड़ना पानी में तेल मिलाने वाली बात है। शुरू से ही जब किसी साहित्यकार ने साहित्य को अपनी रोज़ी-रोटी का साधन बना कर संपन्नता की ओर क़दम बढ़ाए उसे दिग्भ्रष्ट कह दिया गया। "अपने आप को बेच दिया" की चिपकी भी लगा दी गई।
इन दिनों हिन्दी साहित्यकारों को "बाज़ारवाद" का नारा थमा दिया गया है और "बाज़ारवाद" के कृष्ण पक्ष को ही उसकी संपूर्णता मान कर हर जगह इस वाद की आलोचना हो रही है। अभी तक मैं इस बाज़ारवाद को समझ नहीं पाया हूँ। यह वाद साहित्य के किस पक्ष की बात करता है और यह इतना बुरा क्यों है।
भारत में आम नागरिक को बाज़ारवाद का आभास उस समय होना आरम्भ हुआ जब उसकी जेब में थोड़े पैसे आये। उपभोक्ता के रूप में उसका मन उन वस्तुओं के ललचाने लगा जो उसकी पहुँच से बाहर थीं। अपनी लालसाओं को पूरा करने के लिए जीवन व्यस्त होता चला गया – समाज में नये जीवन-मूल्य विकसित होने लगे, जिनका सामंजस्य पुराने मूल्यों के साथ नहीं बैठ पाया। अब यहाँ पर एक क्षण के लिए रुक कर सोचते हैं कि – क्या यह पहले नहीं हुआ? हमेशा हर पीढ़ी में ऐसा ही होता है। इस बाज़ारवाद का दूसरा पक्ष यानी शुक्ल पक्ष भी देखते हैं – उपभोक्ताओं के बढ़ने से उत्पादन बढ़ा, नई नौकरियाँ पैदा हुईं, नए कार्यक्षेत्रों का उद्भव हुआ। शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ। दैनिक जीवन में सुविधाएँ बढ़ीं। कहा जाता है कि हिन्दी साहित्य पर बाज़ारवाद का प्रभाव पड़ रहा है और कहने वाले नाक-भौं सिकोड़ते हुए यह कहते हैं। क्या लेखक समाज में रहते हुए समाज की बात नहीं करेगा? क्या अभी भी उसका साहित्य तभी उत्कृष्ट माना जाएगा जब वह "होरी" की बात करेगा। बिना ग्रामीण जीवन जिए गाँव के जीवन को पन्नों पर उतारेगा। मेरे मित्र समीर लाल "समीर" ने एक बार अपनी एक कविता में कहा था कि रेल के वातानुकूलित डिब्बे में बैठ कर देखे गये गाँव वो नहीं, जो दिखते हैं। एक बार ज़मीन पर उतर कर देखो उनका दैनिक संघर्ष।
बाज़ारवाद को हिन्दी साहित्यकार एक साधन की तरह प्रयोग करते हुए समृद्धि की ओर अग्रसर हो सकता है परन्तु उसके सामने एक ऐसी साहित्यिक व्यवस्था की दीवार खड़ी है कि उसे कोई रास्ता सुझायी नहीं देता था। इंटरनेट ने और यूनिकोड के आगमन ने हिन्दी लेखकों के लिए राह तो बना दी परन्तु साहित्यिक गुणवत्ता का अंकुश रहा ही नहीं। जिसके मन में जो आता है ब्लॉग पर लिख सकता है क्योंकि वह उसकी डायरी की तरह है। अफ़सोस तो यह है कि ई-पुस्तक प्रकाशकों ने चाहे वह हिन्दी के हों या इंग्लिश ईबुक्स के "सेल्फ़ पब्लिकेशन" द्वारा "क्वालिटी कंट्रोल" को पूरी तरह से समाप्त कर दिया है। उपभोक्ता कुछ पंक्तियाँ पढ़ कर, विज्ञापन पढ़ कर अनुमान के साथ ईपुस्तक खरीदता है। पुस्तक का क्या साहित्यिक स्तर होगा वह नहीं जानता। इन्हीं समस्याओं को देखते हुए pustakbazaar.com की नींव रखी है। प्रयास रहेगा कि स्तरीय पुस्तकों का प्रकाशन हो ताकि उपभोक्ता के पैसे व्यर्थ न जाएँ और पाठक को अच्छा साहित्य पढ़ने को मिले।
सादर –
सुमन कुमार घई
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