अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

प्रिय मित्रो,

पिछले दिनों प्रसिद्ध कहानीकार तेजेन्द्र शर्मा ने फ़ेसबुक पर प्रश्न पूछा था - हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ हैं? सैंकड़ों लोगों ने उनके प्रश्न पर प्रतिक्रिया प्रकट की। मैंने भी एक टिप्पणी की। पर तेजेन्द्र जी के इस प्रश्न ने मन में उस संदेह को शब्द दे दिये जो कि हिन्दी के लेखक वर्षों से मन ही मन पूछते रहे हैं।

निःस्संदेह यह एक गंभीर प्रश्न है और इसका कोई सीधा उत्तर हो ही नहीं सकता। सदियों की उपेक्षा के इतिहास को कौन एक वाक्य, एक आलेख और एक संपादकीय में व्यक्त कर सकता है। फिर भी एक चर्चा आरम्भ करना चाहता हूँ और आप सभी को आमंत्रित कर रहा हूँ - इस विषय पर सोचें और अपनी प्रतिक्रिया लिख भेजें।

भारत के पारिवारिक जीवन में साहित्य की आजकल क्या भूमिका है - इससे मैं बिल्कुल अनिभिज्ञ हूँ। मैं तो अभी भी उस काल में अटका हुआ हूँ, जिस काल में मैं प्रवासी बना था। शायद हमारे लिए या मेरी पीढ़ी के लोगों के लिए साहित्य मनोरंजन के सीमित साधनों के कारण महत्वपूर्ण था।

हो सकता है कि कोई तर्क दे, आज मनोरंजन के नए साधनों की बाढ़ है। इंटरनेट, सोशल मीडिया टी.वी. को पीछे छोड़ता जा रहा है। इस दौर में साहित्य कौन बैठ कर पढ़ेगा? यह तर्क ठोस नहीं है। पश्चिमी देशों को देखते हुए, जहाँ मैं जी रहा हूँ , साहित्य अभी भी जीवित है। साहित्य का ख़रीददार भी जीवित है। पुस्तकों का प्रारूप अवश्य बदल गया है या कहें प्रारूप के नये विकल्प हो गये हैं। पेपरबैक से लेकर ई-पुस्तकों के उतने ही ख़रीददार उपस्थित हैं जितने कि पिछली सदी में थे। बल्कि बढ़े ही हैं कम नहीं हुए। भारत में ऐसा क्या हो गया कि साहित्य के पाठकों की कमी हो गयी?

आज भारत या कम से कम महानगरीय समाज की तुलना पश्चिमी देशों के महानगरीय समाजों से करें तो दोनों एक ही स्तर पर हैं। पर यह समानता केवल ऊपरी सतह तक ही है। थोड़ा कुरेदो और समझो तो पश्चिमी देशों के समाज की सांस्कृतिक गहराई भारत की महानगरीय संस्कृति से कहीं अधिक है। क्योंकि पश्चिमी समाज की जड़ें पश्चिम की मिट्टी में पनपी हैं। इस मिट्टी की परतें ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हैं। भारत की महानगरीय संस्कृति आयातित है - भारतीयता का पुट तो है, जड़ें भारतीय हैं और ऊपर पौधा पश्चिमी संस्कृति की कलम बाँध कर विकसित हो रहा है। तो गहराई कैसे होगी। इसका सीधा प्रभाव साहित्य पर होगा ही विशेषकर हिन्दी साहित्य पर। पाठक एक ऐसा जीवन जी रहा है जिसकी जड़ें ऊपरी सतह पर ही फैली हैं और उसका जीवन विदेशी भाषा से सींचा जा रहा है; लेखक बेचारा क्या करे? कुछ हद तक उसकी रचनाएँ महानगरीय बाज़ार के अनुसार तो लिखी जा सकती हैं परन्तु भारत केवल महानगरों में ही तो नहीं बसता। जब घर में, स्कूल में, समाज में और काम पर भाषा ही भारतीय नहीं होगी तो भारतीय भाषाओं को पढ़ेगा कौन? विशेषकर जब भारत में भारतीय भाषा बोलने वाले को सामाजिक दृष्टिकोण से कमतर समझा जाता हो। कहते हुए बुरा तो लगता है, जब तक हिन्दी की पुस्तकें पढ़ना "फ़ैशनेबल" नहीं हो जाता महानगरों में हिन्दी साहित्य को संघर्ष करना ही पड़ेगा।

अब देखते हैं कि साहित्य का क्रेता/ख़रीददार कौन है? कहाँ रहता है? उसकी आर्थिक क्षमता क्या है? हालाँकि पिछले कुछ दशकों से मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं में वृद्धि हुई है। यह उपभोक्ता पुस्तकें खरीदने की आर्थिक क्षमता रखते हैं पर शायद खरीदते नहीं है। क्यों? यह एक विचारणीय प्रश्न है।

क्या मध्यवर्गीय समृद्धता के लक्षणों में हिन्दी साहित्य की पुस्तकें हाथ में होना या ड्राइंगरूम के टेबल पर दिखना पिछड़ेपन का चिह्न तो नहीं समझा जाता?

पश्चिमी देशों में साहित्य का पाठक स्कूल प्रणाली तैयार करती है क्योंकि यहाँ पर पाठ्यक्रम के अतिरिक्त पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। सिनेमा की टिकटों के लिए अगर लम्बी लाईन लगती है तो चर्चित पुस्तकों खरीदने वालों की भी उतनी ही लम्बी लाईन लगती है। इन देशों में न तो मनोरंजन के साधन सीमित हैं और न ही स्वदेशी भाषा के साहित्य को पढ़ना गँवारपन का प्रतीक समझा जाता है। इसका हो सकता है कि ऐतिहासिक कारण रहा हो। मध्यकालीन युग में क्योंकि पुस्तकें हस्तलिखित होती थीं तो यह केवल अभिजात्य वर्ग या धार्मिक मठों तक ही सीमित रहती थीं। छापेखाने का अविष्कार होने के बाद, समाज में उच्चवर्ग के लोगों में प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए हर घर में लाइब्रेरी का अलग कमरा होना अनिवार्य सा था। मध्यवर्गीय आर्थिक विकास के पश्चात यह पुस्तकें समाज के अधिकतर लोगों की पहुँच में हो गयीं। पुस्तकों की खरीदने, उन्हें पढ़ने और उन पर विचार करने की रीत अभी तक चली आ रही है।

मित्रो यह चर्चा की शुरूआत है। हो सकता है कि मेरे विचारों से आप सहमत न हों और उससे बढ़कर कुछ विचार चुभें परन्तु मेरे अनुभव के अनुसार जो मैंने कहा वह सच है। आशा है कि आप इस विचार शृंखला को न केवल आगे बढ़ायेंगे बल्कि अन्य मित्रों को भी इस दिशा की ओर प्रोत्साहित करेंगे।

- सादर
सुमन कुमार घई

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

सम्पादकीय (पुराने अंक)

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015